अमित शाह को क्यों कहना पड़ा कि मोदी निरंकुश नहीं हैं!

सवाल यह है कि मोदी के गुजरात और दिल्ली में सफलतापूर्वक दो दशकों तक सरकारें चला लेने के बाद अचानक से इस तरह के सवाल के पूछे जाने (या पुछवाये जाने) की ज़रूरत क्यों पड़ गयी होगी? जनता तो इस आशय की संवेदनशील जानकारी की साँस रोककर प्रतीक्षा भी नहीं कर रही थी। सरकार और पार्टी में ऐसे मुद्दों पर बंद शयनकक्षों में भी कोई बातचीत नहीं होती होगी।

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अधिनायकवाद की आहट और पोलैंड के विद्रोही जजों का एक प्रयोग

गोरखपुर में एक टीवी चैनल के साथ मुलाक़ात में मुख्यमंत्री योगी ने जब यह कहा कि बिना सबूत के कोई गिरफ़्तारी नहीं होगी तो जनता सवाल करने लगी थी कि अदालत को सबूत जुटाकर देने का काम किसका है और आरोपियों को कौन और क्यों बचा रहा है? क्या दोनों ही काम कोई एक ही एजेंसी तो साथ-साथ नहीं कर रही है?

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कोरोना के लड़ के जनता की इम्यूनिटी बढ़ चुकी है, PM लाल किले से क्या बात करेंगे?

सत्तारूढ़ दल के लिए विपक्षी दलों के साथ-साथ जनता की भूमिका को भी संदेह की नज़रों से देखने की ज़रूरत का आ पड़ना इस बात का संकेत है कि वह अब अपने मतदाताओं को भी अपना विपक्ष मानने लगा है।

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लोकतंत्र के ताबूत में साइबर जासूसी की कील!

रविशंकर प्रसाद के कहे के बाद एक नया डर उत्पन्न हो गया है। वह यह कि किसी दिन कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति खड़े होकर यह बयान नहीं दे दे कि अगर दुनिया के 167 देशों के बीच ‘पूर्ण’ प्रजातंत्र सिर्फ़ तेईस देशों में ही है और सत्तावन में अधिनायकवादी व्यवस्थाएं क़ायम हैं तो भारत को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है?

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क्या मोदी बनारस में पार्टी और प्रधानमंत्री पद का भविष्य योगी के हाथों में सौंपने पहुंचे थे?

कोरोनाकाल की दूसरी लहर के दौरान भगीरथी गंगा द्वारा अपने कोमल शरीर पर बहती हुई लाशों की यंत्रणा बर्दाश्त कर लिए जाने के बाद अपनी पहली यात्रा में प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के कोरोना प्रबंधन को अभूतपूर्व घोषित करते हुए इतनी तारीफ़ की कि वहां उपस्थित मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी भौचक्के रह गए होंगे।

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अधूरी विजय-यात्रा में सम्पन्न होते अश्वमेध यज्ञ का भय

भाजपा अब अपनी आगे की यात्रा सिर्फ़ पुरानी भाजपा के भरोसे नहीं कर सकती! उसे अपनी पुरानी चालों और पुराने चेहरों को बदलना पड़ेगा। चेहरे चाहे किसी योगी के हों या साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, साध्वी प्राची, प्रज्ञा ठाकुर या उमा भारती के हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजनीति में सत्ता का बचे रहना ज़रूरी है, व्यक्तियों का महत्व उनकी तात्कालिक ज़रूरत के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है।

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क्या प्रधानमंत्री को पता है कि लोग उनके सम्बोधन से पहले किसी अनजान आशंका से भर जाते हैं!

प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बतायी ही नहीं गयी होगी। सम्भव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।

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ट्रम्प का मीडिया उद्यम और सूचना पर सत्ता व बाजार के संयुक्त नियंत्रण का भविष्य

महत्वाकांक्षी टेक कम्पनियाँ अगर तब के राष्ट्रपति ट्रम्प (बाइडन ने निर्वाचित हो जाने के बावजूद तब तक शपथ नहीं ली थी और ट्रम्प व्हाइट हाउस में ही थे) का अकाउंट बंद करने की हिम्मत दिखा सकती हैं तो उसके विपरीत यह आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए कि अपने व्यावसायिक हितों के चलते सरकार के दबाव में वे हमारे यहां भी कुछ हज़ार या लाख लोगों के विचारों पर नियंत्रण के लिए समझौते कर लें।

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सात साल में भाजपा देवकान्त बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन वाली इंदिरा काँग्रेस बन गयी है!

मोदी ने भाजपा को 1975 से 1984 के बीच की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बदल दिया है जिसमें देवकांत बरुआ जैसे चारणों ने इंडिया को इंदिरा और इंदिरा को इंडिया बना दिया था। पिछले सात साल में भाजपा में बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन खड़े कर दिए गए हैं।

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इंदौर का एक चोर और उन लहरों का शोर, जिनका ‘पीक’ शायद कभी न आए!

जिन लहरों से हम अब मुख़ातिब होने वाले हैं उनका ‘पीक’ कभी भी शायद इसलिए नहीं आएगा कि वह नागरिक को नागरिक के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाली साबित हो सकती है। जो नागरिक अभी व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा है वही महामारी का संकट ख़त्म हो जाने के बाद अपने आपको उन नागरिकों से लड़ता हुआ पा सकता है जिनके पास खोने के लिए अपने जिस्म के अलावा कुछ नहीं बचा है।

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