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कंचनजंघा (1962): द्वन्द्व के बादलों में घिरा मन का शिखर
मानव मन और आधुनिक उहापोह के बीच बह रही दलदली धारा को साफ करती यह फिल्म मेरी दृष्टि में बेहद खास है। अपने व्यक्तित्व के ऊपर तथाकथित व्यवहारिकता को चुनना हमारे शहरी जीवन में आम बात है। किरदारों का प्रकृति की खामोश विशेषता से मंत्रमुग्ध हो जाना और अपने हृदय के तट को छू लेना मुझे बेहद खूबसूरत लगा।
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