बादशाह के बरक्स किसानों की ताकत का सच गरिमा के साथ स्वीकारने का विवेक क्या शेष है?

समुद्र की लहर किसी भी शाही हुक्मनामे से ज्यादा ताकतवर होती है. इस सहज सी सचाई को समझाना उस समय का विवेक था. हमारे समय का विवेक आज कह रहा है कि किसानों का उमड़ा सैलाब संसद द्वारा पास किसी भी कानून से ज्यादा ताकतवर है.

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कृषि पर कॉर्पोरेट कब्ज़ा संवैधानिक अधिकारों और लोकतंत्र के निगमीकरण की शुरुआत है

अगर आपने मुख्यधारा की मीडिया में होने वाली विशेषज्ञ चर्चाओं और वहां परोसे जाने वाले दृश्यों को अपनी सारी बुद्धि पहले से ही गिरवी नहीं रखी है, तो आप परी कथा की तरह सवाल पूछ सकते हैं: “आईना, दीवार पर आईना, मुझे दिखाओ कि इन सबके पीछे कौन है”। और फिर, आईना सत्तारूढ़ पार्टी के दो सबसे शक्तिशाली राजनेताओं (दोनों गुजरात से) को नहीं दिखाएगा, बल्कि दो अन्य चेहरे, देश के दो सबसे अमीर कारोबारी (दोनों ही गुजरात से) को दिखाएगा।

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भारत में बेरोजगारी के दैत्य का आकार और सरकार

उदारीकरण के बाद के चरण में उत्पादन वृद्धि का रिश्ता रोजगार वृद्धि के साथ तेजी से इसलिए खत्म होता गया है क्योंकि मशीनीकरण की वजह से उत्पादन जहां प्रति नियोजित श्रमिक बढ़ता गया, वहीँ इस किस्म के औद्योगीकरण के तहत संगठित उद्योग में श्रमिकों को खपाने के लिए सृजित किये गये कुल रोजगार की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की आजीविका अधिक मात्रा में नष्ट होती गयी है।

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लॉकडाउन के तले सरकार ने मजदूरों को उनकी औकात दिखाने का काम किया है

पूर्ण रोजगार की एक नीति के सभी विचारों को नीतिगत चर्चा से दूर रखा जाता है और बेरोजगारी एवं विनाश को बढ़ने दिया जाता है. यह कदम मजदूरी को लेकर मोलभाव करने की मजदूरों की शक्ति को कमजोर करने की नीयत से सिर्फ मजदूरों की एक आरक्षित सेना नहीं बनाये रख रहा है, बल्कि मज़दूरों की उनकी औकात भी दिखाता है.

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