कोई राज्य अपने कानून बनाने की शक्ति का प्रयोग करके कैसे नागरिक आजादी को छीन सकता है और विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उपयोग करके अथॉरिटेरियन स्टेट में तब्दील हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण है उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम, 2020!
बीते 26 जून, 2020 को घोषित और मुख्यमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में प्रचारित प्रसारित उत्तर प्रदेश स्पेशल सुरक्षा बल से संबंधित कानून जो पहले अध्यादेश के रूप में लाया गया था, विधानमंडल से पारित होने के उपरांत 6 अगस्त, 2020 से प्रवर्तन में आ चुका है. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक को यह निर्देशित किया चुका है कि तीन महीने के भीतर इस बल को अस्तित्व में लाया जाए- प्रारंभ में 8 बटालियन का गठन 9,900 पुलिसकर्मियों से मिलकर होगा जिसका कमांडिंग ऑफीसर एडीजी रैंक का पुलिस ऑफिसर होगा और इसका मुख्यालय लखनऊ में स्थित होगा.
इस अधिनियम के प्रावधानों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह पुलिसबल बिना जवाबदेही के व्यापक शक्तियों से युक्त और नागरिकों को न्यायिक उपचार से निवारित करता है, जो कि आपराधिक न्याय प्रशासन के मान्य सिद्धांतों के ही विरुद्ध है. राज्य सरकार द्वारा इस ‘एलीट पुलिस फोर्स’ के गठन को औचित्य प्रदान करने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिसंबर 2019 में स्वत: संज्ञान लेकर प्रकरण में पारित किए गए आदेश को ढाल बनाया गया है. इसमें उच्च न्यायालय ने बिजनौर अदालत परिसर सहित प्रदेश भर के जिला न्यायालयों में हुई कई अपराधिक व फायरिंग की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए राज्य सरकार को निर्देशित किया था कि अदालतों की सुरक्षा चाक-चौबंद की जाए. इस हेतु विशेष प्रशिक्षण प्राप्त विशिष्ट सुरक्षाबल उपलब्ध कराए जाएं जिससे अधिवक्ताओं के आईडी कार्ड्स, सीसीटीवी कैमरे, आदि का रखरखाव समुचित रूप से हो सके.
यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि न्यायालय के आदेश में ‘ए स्पेशलाइज्ड सिक्योरिटी फोर्स’ की बात कही गई थी न कि स्पेशल सिक्योरिटी पुलिस फोर्स के गठन का निर्देश दिया गया था. वस्तुतः यह न्यायालय की मनमाफिक व्याख्या करने के समान है जिसमें ऐसा कानून बनाकर संवैधानिक सिद्धांतों को परित्याग कर नागरिकों के न्यायिक उपचार के अधिकार को समाप्त करने का कुत्सित प्रयास किया गया है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह कानून एक ऐसे पुलिसबल के गठन हेतु राज्य को समर्थकारी बनाता है जिससे सीक्रेट स्टेट पुलिस या नाजी जर्मनी के “गेस्टापो” की संरचना सामने आती है.
इस अधिनियम में कुल 19 धाराएं हैं; जिसमें धारा 17, अधिनियम के क्रियान्वयन हेतु राज्य सरकार को रूल्स बनाने की शक्ति प्रदान करती है, वहीँ धारा 18 अधिनियम के उपबंधों को प्रभावी बनाने के लिए उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करने हेतु आदेश जारी करने के बारे में राज्य को सशक्त करती है. धारा 10 व 11 बिना मजिस्ट्रेट के आदेश अथवा वारंट के गिरफ्तारी व तलाशी को प्रावधानित करती है, वहीं दूसरी ओर धारा 15 इस बल के सदस्यों के विरुद्ध सिविल या अपराधिक कार्यवाही से संरक्षित करती है जबकि धारा 16, न्यायालयों द्वारा बल के सदस्यों के विरुद्ध सरकार से पूर्वानुमति के बिना संज्ञान लिए जाने पर प्रतिबंध लगाती है.
अधिनियम के ऑब्जेक्टिव वाले क्लॉज़ पर नजर डालें तो फौरी तौर पर यह लगता है कि प्रस्तुत बल का गठन उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय, प्रशासनिक भवनों, औद्योगिक इकाइयों, वाणिज्यिक व बैंकिंग प्रतिष्ठानों जैसे महत्वपूर्ण निकायों व अधिसूचित व्यक्तियों की सुरक्षा हेतु लक्षित है ताकि यूपी पुलिस व पीएसी बल, जो इस कार्य हेतु अब तक लगाए गए हैं, उन्हें मुक्त किया जा सके. इस बल का निर्माण सीआइएसफ एवं सीआरपीएफ तथा उड़ीसा व महाराष्ट्र के विशेष औद्योगिक सुरक्षा बलों की तर्ज पर किया जाना है, किंतु इस एक्ट के कई प्रावधान उक्त बलों से इसे विलक्षणता प्रदान करते हैं. धारा 7 के अनुसार न केवल सरकारी प्रतिष्ठानों, न्यायालयों, एयरपोर्ट्स, औद्योगिक वाणिज्यिक भवनों की सुरक्षा हेतु इनका नियोजन होगा बल्कि प्राइवेट लोगों व उनके आवासीय परिसर तथा महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा में डीजीपी की अनुमति से समुचित शुल्क अदा किए जाने पर भी इसे लगाया जा सकेगा.
यहां उल्लेखनीय है कि सीआइएसफ जैसे केंद्रीय बल के अंतर्गत गिरफ्तारी व तलाशी लेने की शक्ति केवल नियत रैंक के ऑफिसर को ही प्राप्त है जबकि यूपीएसएसएफ के सभी सदस्यों को- चाहे उनका रैंक़ कुछ भी हो- यह शक्ति प्रदत्त की गई है. ध्यान रहे कि सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बल, जिनकी पूरे देश में 246 बटालियन हैं और जो संसद भवन परिसर, उच्चतर न्यायपालिका के परिसरों जैसे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा एवं पाक व चीन की सरहदों की सुरक्षा में लगी सेनाओं की सहायता में भूमिका निभाती है- को भी बिना वारंट तलाशी व गिरफ्तारी की शक्ति नहीं प्राप्त है. इस तरह अधिनियम की धारा 10 और 11 यूपीएससएफ के प्रत्येक सदस्य को बिना जवाबदेही के स्वेच्छा से चोट पहुंचाने तथा संज्ञेय अपराध कार्य किए जाने की आशंका मात्र पर किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी, तलाशी और डिटेंशन की शक्ति बिना मजिस्ट्रेट के आदेश अथवा वारंट के प्रदत्त की गई है. बल का कोई भी सदस्य मौके पर गिरफ्तारी, तलाशी व डिटेंशन का निर्धारण करने वाला एकमात्र प्राधिकारी होगा. यह सब उसके सब्जेक्टिव सेटिस्फैक्शन यानी निजी संतुष्टि पर निर्भर करेगा.
यही नहीं, उक्त अधिनियम में सबसे आश्चर्यचकित करने वाला उपबंध यह है कि यूपीएसएसएफ का कोई सदस्य अपने द्वारा किए गए सिविल रॉंग यानी अपराधिक कृत्य के लिए किसी न्यायालय में अभियोजित नहीं किया जाएगा, भले ही उसने अत्यधिक यानी जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग किया हो, निजता के अधिकार का उल्लंघन किया हो या दूसरा नुकसान किया हो. कोई कोर्ट आफ लॉ, इन सदस्यों के विरुद्ध अपराध का संज्ञान भी बिना राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के नहीं ले सकती (धारा 16 व 17). इस तरह की असाधारण शक्ति तथा उन्मुक्ति सीआइएसएफ और सीआरपीएफ को भी नहीं प्राप्त है. सीआइएसएफ में किसी सदस्य के विरुद्ध अभियोजन संचालन हेतु सक्षम उच्च अधिकारी को 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होता है जबकि राज्यस्तरीय इस पुलिसबल के संबंध में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है. इस प्रकार हम देखते हैं कि यूपीएसएसएफ के तहत एक प्रांतीय स्तर के पुलिसबल को दी गई असाधारण शक्तियां एवं उन्मुक्तियां केंद्रीय बलों से भी ज्यादा हैं. यह संघीय व्यवस्था वाले संवैधानिक लोकतंत्र में स्टेट के भीतर एक स्टेट प्राधिकारी बनाने के समतुल्य है. यह कानून प्रवर्तन एजेंसी को सूडो-आर्मी (छद्म फौज) में तब्दील करने का कुत्सित प्रयास है जो दैनिक मामलों में हस्तक्षेप तो करेगी परंतु उसकी जवाबदेही कुछ न होगी. यह सब संवैधानिक लोकतंत्र वाले देश में संविधान- जोकि सुप्रीम लॉ ऑफ द लैंड होता है- की अपेक्षाओं को नजरअंदाज करने तथा सत्य विभाजन के बुनियादी सिद्धांत को ठेंगा दिखाने जैसा प्रयास लगता है.
उक्त कानून की धारा 18, उपबंध को प्रभावी बनाने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने तथा चीजों के स्पष्टीकरण हेतु राज्य सरकार को आदेश जारी करने में सक्षम बनाती है. अधिनियम के लागू होने के अगले दो साल तक कोई नया आदेश जारी नहीं किया जा सकेगा. यह इंगित करता है कि यदि 2022 में वर्तमान सत्ताधारी दल सत्ता से बेदखल हो जाता है तब भी नयी सरकार कोई नया आदेश जारी नहीं कर पाएगी. यह प्रावधान राज्य के छुपे इरादे को प्रदर्शित करता है.
यूपीएसएसएफ एक्ट 2020 के प्रावधान दुनिया भर में मान्य अपराधिक विधि के सिद्धांतों की अवहेलना में बनाये गये हैं. इस बल के सदस्यों द्वारा गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के बारे में डिटेंशन आदि का स्थान एवं गिरफ्तार व्यक्ति के नातेदार आदि को सूचना देने से मुक्त रख करके बंदियों को प्राप्त मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण तो किया ही गया है, साथ ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों जिसमें गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लेख है, सीआरपीसी की धारा 50, 50a, 57 तथा संविधान के अनुच्छेद 21 व 22 आदि का खुला उल्लंघन है. इसके अलावा गिरफ्तारी को न्यायालय की स्क्रुटनी से परे रखना कानूनी उपचार से वंचित रखने के समान है. अधिनियम की धारा 7 जो निजी प्रतिष्ठानों तथा व्यक्तियों की सुरक्षा में शुल्क संदाय के बदले डीजीपी द्वारा नियोजित किए जाने को वैध बनाती है- मनमानी प्रयोग की संभावना को बलवती करती है. यह एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा जिसमें राज्य से अपने समस्त नागरिकों के सुरक्षा एवं कल्याण की अपेक्षा होती है की अवधारणा के बरक्स धनी एवं दबंग व्यक्तियों के पक्ष में राज्य का झुकाव प्रदर्शित करता है. यह भारतीय संवैधानिक स्कीम के ही विरुद्ध है.
संविधान एक निर्वाचित सरकार से यह उम्मीद करता है कि वह समाज में सामाजिक और आर्थिक विवादों को अपनी नीतियों के द्वारा रिड्यूस करेगी जिससे समाज में आपसी भाईचारा बढ़ेगा तथा अपराध कम होंगे, परंतु उस दिशा में प्रयास करने के बजाय ड्रैकोनियन कानूनों का निर्माण करके कोई राज्य न्यायपूर्ण समाज का निर्माण नहीं कर सकता. जहां राजकोष पहले से ही लाचारी की अवस्था में हो और कोरोना काल में अपने नागरिकों के हित में बेहतर निर्णय न लिए गए हों, इस तरह के इलीट फोर्स उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में गठन राजनीतिक आकाओं के सनकपूर्ण फैसले को दिखाता है जहां लगभग 18 हजार करोड़ रुपये निवेश करना कहीं से भी समझदारी भरा काम नहीं लगता. पहले से मौजूद पुलिस बल एवं पीएसी में पड़ी रिक्तियों की भर्ती पूरी करके तथा उन्हें अत्यधिक उपकरणों व तकनीक से सुसज्जित करके उनकी क्षमता को बढ़ाया जा सकता था. न्यायालय परिसर की सुरक्षा हेतु सीबी सीआईडी, एसटीएफ, एटीएस, जल पुलिस, एंटी करप्शन ऑर्गेनाइजेशन, इकोनामिक ऑफेंस विंग की भांति एक विशेष सुरक्षा विंग का निर्माण मौजूदा पुलिस बल के अंतर्गत ही किया जा सकता था. यूपी पुलिस, जो कि स्टाफ की कमी, ढांचागत सुविधाओं के अभाव, अल्प बजटीय समर्थन से जूझ रही है, उसको दूर किए बिना अतिरिक्त भार राजकोष पर डालना उचित नहीं लगता.
ऐसे समय में जब यूएपीए, एनएसए एवं सेडिशन लॉ जैसे कानूनों का प्रयोग सरकारों द्वारा खुद से नीतिगत असहमति रखने वाले नागरिकों के विरुद्ध धड़ल्ले से हो रहा है तथा इस संबंध में न्यायविदों, अधिवक्ताओं, एक्टिविस्ट व अन्य समाज के गणमान्य लोगों द्वारा चिंता व्यक्त की जा रही है; तब बिना किसी जवाबदेही के असाधारण शक्तियों से युक्त विशेष सुरक्षा बल का गठन राज्य की मंशा पर संदेह पैदा करता है. इस अधिनियम पर राज्य विधानमंडल में पर्याप्त चर्चा भी नहीं की गई और विधान परिषद को बिना विश्वास में लिए ही आनन-फानन में इसे पारित करा लिया गया क्योंकि विपक्ष वहां बहुमत में है. संक्षेप में कहें तो यूपीएसएसएफ ने यूपी पुलिस के ध्येय वाक्य “आपकी सुरक्षा, हमारा संकल्प” को “आपका जोखिम, हमारा संकल्प” में तब्दील कर देता है.
(लेखक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं)