पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने वामपंथ के विरोधाभास पर मेरा एक इंटरव्यू लिया था और उनके सवाल के जवाब में मैंने कहा था कि मैं भारतवर्ष में वामपंथी आंदोलन को राज्य और समाज के जनतंत्रीकरण का एक लोकतांत्रिक आंदोलन मानता हूं। मैंने यह भी कहा था कि इतिहास की विडंबना कहिए या त्रासदी कि देश में जो वामपंथी आंदोलन की तीन प्रमुख धाराएं थीं वह आपस में ठीक से राजनीतिक समझ नहीं बना पाईं। 1920 में बनी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी दर्शन पर ही आधारित आचार्य नरेंद्र देव के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और डॉक्टर अंबेडकर की शुरू में बनी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी जैसी धाराओं को एक राजनीतिक मंच पर जिसे हम बहुवर्गीय पार्टी कह सकते हैं, साथ आना बेहद जरूरी था। स्वतंत्रता मिलने के बाद मुझे यह लगता है कि इस तरह के राजनीतिक मंच बनाने की सबसे अधिक जवाबदेही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की थी क्योंकि अन्य जनवादी धाराओं की तुलना में जनाधार और संगठन की दृष्टि से यह अधिक मजबूत थी।
मेरा यह भी कहना था कि गांधी जी को आधुनिकता के विरुद्ध पुरातनपंथी या भूमि सुधार के विरोधी के रूप में दिखाया जाना इतिहाससम्मत नहीं है। हमें यह समझना चाहिए कि गांधी के विचारों का निरंतर विकास हुआ है। 1909 के हिंद स्वराज के गांधी का विचार 1948 तक आते-आते बहुत कुछ बदल जाता है। 1942 में लुई फिशर से बातचीत में गांधी जी ने कहा था कि जमींदारों की जमीन बिना मुआवजा दिए किसान ले लेंगे। लुई फिशर ने जब उनसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के संदर्भ में हिंसा और अहिंसा की बात की तो गांधी जी ने उसका कोई जवाब नहीं दिया। सुभाष चंद्र बोस से अपने मतभेद को स्वीकार करते हुए भी उन्हें वे देशभक्तों में सबसे बड़े देशभक्त के रूप में स्वीकार करते हैं।
दरअसल गांधी जी के सामने सबसे बड़ा सवाल देश को आजाद कराने का था और वे चाहते थे कि हर हाल में अंग्रेज यहां से विदा हों। उन्होंने तो यहां तक कहा कि अंग्रेज यहां से चले जाएं, हम यहां कुछ दिन अराजकता भी झेल लेंगे। सांप्रदायिकता के विरुद्ध हिंदू-मुस्लिम एकता पर उनका सर्वाधिक जोर रहता था। गांधी जी अंग्रेजी उपनिवेशवाद के विभाजन की राजनीति को बखूबी समझते थे इसीलिए भारत के विभाजन को टालने का प्रयास उन्होंने अंतिम दौर तक किया। भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के साथ वे भाईचारे का रिश्ता बनाना चाहते थे और दो सभ्य राष्ट्र के बतौर भारत और पाकिस्तान के बीच में रिश्ता बने यह उनकी दिली ख्वाहिश थी।
धर्म के बारे में भी उनकी दृष्टि साफ थी और जिस धर्म की वह वकालत करते थे वह सार्वभौमिक नैतिक मूल्य था। प्रचलित अर्थो में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी आदि धर्मों के बारे में उनकी दृष्टि साफ थी और वे धर्म को निजी विश्वास का मामला मानते थे। कहने का मतलब है कि गांधी जी की जो स्वतंत्र भारत के लिए दृष्टि थी वह डॉक्टर अंबेडकर की स्टेट और माईनार्टीज के प्रोग्राम और कम्युनिस्ट व सोशलिस्ट पार्टी प्रोग्राम से बहुत मायने में मेल खाती थी।
इतिहास में किंतु परन्तु नहीं चलता है लेकिन जब आज हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के विरुद्ध बड़े राजनीतिक मंच को बनाने की बात कर रहे हैं तो इतिहास का मूल्यांकन भी जरूरी है। मैं यह भी मानता हूं कि आजादी आंदोलन और उसके बाद के दौर में समाजवादी आंदोलन का बोलबाला था, इसलिए पूंजीवाद के अंदर निहित उत्पादन शक्तियों के बढ़ने की क्षमता को कम करके आंका गया था। कम्युनिस्ट आंदोलन समाजवाद में पहुंचने के पहले लोकतांत्रिक क्रांति को जरूरी मानता था लेकिन इस अंतरिम काल के लिए पूंजीवाद के जनवादी माडल को विकसित करने लायक संगठन, नीति, राजनीति और नारों को विकसित करने पर उनका जोर कम दिखता है।
बहरहाल, जनवादी आंदोलन की ताकतें बिखरी रही, कोई कारगर विपक्ष नहीं बना पाईं और कांग्रेस को देश चलाने का एकछत्र राज मिल गया। ऐसी परिस्थिति में भारत को आगे ले जाने की जिम्मेदारी जिस कांग्रेस पार्टी के ऊपर थी और जो भूमिका उसे निर्वहन करना था वह नहीं कर सकी। 1937 से 1939 तक राज्यों में बनीं कांग्रेस की सरकारें जनविरोधी, भ्रष्ट और सांप्रदायिक साबित हो चुकी थीं। पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री जरूर बने और भारत के आधुनिकीकरण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका भी रही लेकिन कांग्रेस का जो छतरीनुमा स्वरूप था और बहुत सारी प्रगतिशील विचारधाराओं को लेकर चलने की जो क्षमता थी, वह खत्म होती गई और कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथियों की पकड़ मजबूत होती गई। पंडित नेहरू सांप्रदायिकता और सीमा विवाद जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को भी हल करने में विफल रहे। कांग्रेस के अंदर शुरू से ही एक हिंदू वरीयता की प्रवृत्ति दिखती है, साथ ही समाज के मौलिक परिवर्तन से वह पीछे हटती रही है। इसलिए भारत को आधुनिक बनाने में पंडित नेहरू की भूमिका को स्वीकार करते हुए भी हमें आचार्य नरेंद्र देव की बात को जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि कांग्रेस भारत में मौलिक बदलाव के लिए तैयार नहीं थी।
इंदिरा गांधी के जमाने में हिंदू वरीयता की जगह हिंदू वर्चस्व ने धीरे-धीरे अपना स्वरूप ले लिया और 80 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व की राजनीति से कांग्रेस समझौतापरस्त होती चली गयी। नरसिम्हा राव सरकार तक आते-आते कांग्रेस का जनविरोधी, साम्प्रदायिक और भ्रष्ट चेहरा पूरी तौर पर बेनकाब हो गया। बाबरी मजिस्द गिराने में केन्द्र सरकार की भूमिका भी लोगों के सामने स्पष्ट हो गयी। इसके पहले 1984 के सिक्खों के नरसंहार में कांग्रेस पूरी तौर पर बदनाम हो ही चुकी थी। सांसदों की खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार बढ़ाने में भी और संसदीय राजनीति के पतन में इस सरकार की बड़ी भूमिका थी। यही नहीं, इस सरकार में अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था को कोटा-परमिट राज कहकर खारिज कर दिया गया और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के सामने पूरी तौर पर घुटना टेक दिया, जिसका दुष्परिणाम आज समाज का हर तबका झेल रहा है और उसके विरुद्ध अब विभिन्न रूपों में जनता की आवाजें उठ रही हैं।
2004 में मनमोहन की अगुवाई में बनी यूपीए सरकार धर्मनिरपेक्ष मूल्य और जनकल्याण की नहीं बल्कि प्रकारांतर में कांग्रेस की पुरानी नीति को ही जारी रखने वाली सरकार साबित हुई। इसने अमेरिकापरस्त विदेश नीति को आगे बढ़ाया, उदारीकरण की नीति के तहत निजीकरण को तेज किया, यूएपीए जैसे काले कानून को बनाया, जनता के सभी तबकों के ऊपर दमन जारी रखा। वाम मोर्चा से जो कुछ वर्षो के लिए इसका गठजोड़ बना उसे दरकिनार कर दिया गया। 2014 तक चली मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के लिए पूरी तौर पर बदनाम हो गयी और भाजपा गठजोड़ की सरकार बनने के लिए इसने रास्ता साफ कर दिया। कांग्रेस के साथ मोर्चा प्रयोग में धक्का लगने के बाद वाम मोर्चा कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मोर्चा बनाने से फिलहाल पीछे हट गया है।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में मेरी एक छोटी टिप्पणी भी है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पैरोकार हिंदुत्व के दार्शनिक विनायक सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धांतविद् गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत समग्र खतरे पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया। जबकि इनकी विचारधारा पूरी तौर से एक बड़ी आबादी को पितृभूमि और पुण्यभूमि के नाम पर नागरिकता के अधिकार से वंचित करना चाहती थी। उसी के अनुक्रम में ही मोदी सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम संसद से पारित किया गया है। बहुसंख्यकवाद के खतरे से पूरी तौर पर वाकिफ होते हुए भी पंडित नेहरू ने अपनी अंतरिम सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कैबिनेट मंत्री बनाया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही बाद में उनकी सरकार से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिलकर जनसंघ का गठन किया। अब कोई यह कह सकता है कि तात्कालिक परिस्थितियों के दबाव में ऐसा किया गया होगा लेकिन गलती तो गलती ही मानी जाएगी।
आजादी मिलने के बाद कांग्रेस से निपटने के नाम पर डॉक्टर लोहिया और जयप्रकाश जी के राजनीतिक प्रयोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीति को वैधता प्रदान की। सरकार चाहे जिसकी भी रही हो, वीपी सिंह की सरकार का समर्थन करके 90 के दशक से 2014 तक भारतीय जनता पार्टी और संघ के लोग समाज में अपनी जड़ें गहरी करते रहे।
अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी नेतृत्व के बारे में प्रशांत भूषण जी की खेद के साथ यह स्वीकृति कि आंदोलन को बढ़ाने में आरएसएस और भाजपा की भूमिका थी, बहुत महत्वपूर्ण है और दूसरों के लिए भी सबक है कि वे संघ और भाजपा की आंदोलनों में घुसने की चाल को समझें। अभी जनता का विक्षोभ मोदी सरकार के खिलाफ बनने लगा है और सरकार के विरुद्ध होने वाले आंदोलनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग विभिन्न रूपों में प्रवेश करने की कोशिश करेंगे, जैसे कभी उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच बनाकर और बाद में अन्ना आंदोलन के साथ जुड़कर किया था।
जहां तक कम्युनिस्ट आंदोलन की बात है इसमें राज्य के चरित्र, संयुक्त मोर्चा और संसदीय जनतंत्र को लेकर विवाद अभी तक बना हुआ है। 90 के दशक में लोकतांत्रिक शक्तियों को लेकर वाम-जनवादी महासंघ बनाने की जगह क्षेत्रीय दलों को लेकर वामपंथ की मुख्यधारा ने जो राष्ट्रीय मोर्चा बनाने और उसकी सरकार चलाने का प्रयोग किया वह नीतिगत और व्यवहारिक राजनीति दोनों के स्तर पर असफल साबित हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभी भी सम्पूर्ण हिंदू एकता बनाने में सफल नहीं हुआ है, लेकिन भाजपा को रोकने के लिए जो मंडल राजनीति का भ्रम खड़ा किया गया था वह पूरी तौर पर खंडित हो गया। अटल सरकार से जो हिंदुत्व का एजेंडा संघ नहीं लागू करा पाया, अब मोदी सरकार उस एजेंडे पर तेजी से बढ़ गई है। अटल सरकार की 2004 में हार के बाद आडवाणी को भी लगने लगा था कि उन्हें भी कथित उदार चेहरा लेकर ही भारत की राजनीति में आगे बढ़ना होगा और इसी सोच के तहत उन्होंने पाकिस्तान में संघ के विचार के विपरीत जिन्ना के पक्ष में बयान दिया था। यहीं उन्होंने आरएसएस का स्वभाव और वित्तीय पूंजी की गति को समझने में गलती कर दी और उनके हाथ से भाजपा का नेतृत्व उसी तरह छिन गया जिस प्रकार उन्होंने अटल के कथित गांधीवादी समाजवाद से राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर भाजपा नेतृत्व हथिया लिया था।
मोदी सरकार संघ और कारपोरेट गठजोड़ की सरकार है। खनिज पदार्थों और प्राकृतिक संसाधनों के आदिम संचय की लूट से लोगों का ध्यान हटाने के लिए माओवाद के खतरे को आंतरिक सुरक्षा के लिए मनमोहन-चिदंबरम सरकार ने देश का सबसे बड़ा खतरा बताया था। वहीं मोदी सरकार में कथित इस्लामी आतंकवाद भी उससे जुड़ गया है। वैसे भी संघ देश के अंदर अपने तीन बड़े दुश्मन इस्लाम, ईसाई और कम्युनिस्ट को तो पहले से ही मानता रहा है। वित्तीय पूंजी के लिए जन कल्याणकारी राज्य खतरा है इसलिए उदारवाद भी इस गठजोड़ के निशाने पर है। वित्तीय पूंजी एक तरफ पर्यावरण व प्रकृति के लिए विनाशकारी साबित हुई है वहीं मजदूर, किसान, व्यापार, छोटे-मझोले उद्यम की इसने कमर तोड़ दी है। संघ अपने वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों को देशद्रोही घोषित कर काले कानूनों में जेल भेजवा रहा है। लूट और दमन का यह संगठित अभियान मोदी सरकार चला रही है। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यक, महिलाओं पर दमन बढ़ता जा रहा है।
मोदी सरकार ने लोकतंत्र की सभी संस्थाओं को अंदर से बेहद कमजोर कर दिया है और वह उसे अधिनायकवादी संस्था के रूप में बदल देने के लिए पूरी तौर पर लगी हुई है। विधेयक तक का चरित्र बदलकर, संसदीय मान्यताओं के विरूद्ध जोड़-तोड़, दबाव डालकर, संसद के उच्च पदों का दुरुपयोग करके जैसे-तैसे विधेयक पारित कराना, कानून बनाना मोदी सरकार का चरित्र बन गया है। दरअसल, संसद की लोकतांत्रिक संस्थाओं को अधिनायकवादी स्वरूप दिया जा रहा है। संसद में उच्च पदों पर बैठे कथित उदारवादियों का लोकतंत्र विरोधी चेहरा लोगों के सामने खुलता जा रहा है और संसदीय राजनीति के पतन का नया दौर नंगे रूप में बेनकाब हो रहा है। कार्यपालिका और नौकरशाही मोटे तौर पर आज भी ब्रिटिश कानून से चलने वाली दमन की संस्था बनी हुई हैं। अभी तक प्रशासनिक स्वायत्तता की जो मान्यता रही है उसे दरकिनार करके ढेर सारे नौकरशाह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कार्यकर्ता बने हुए हैं। कई निवर्तमान प्रशासनिक और सेना के अधिकारी लोकतंत्र विरोधी अभियान चला रखे हैं और कुछ एक टी. वी. चैनलों में आकर युद्धोन्माद फैलाने की प्रतिद्वंद्विता में दिखते हैं। युद्धोन्माद ही इनके लिए देशभक्ति का पर्याय बना हुआ है।
न्यायालय, खासकर उच्चतम न्यायालय जिसको लोकतंत्र और संविधान बचाने की जिम्मेदारी थी, उसने राष्ट्रीय महत्व के ढेर सारे मुद्दों पर सरकार के गलत कार्यों से समझौता कर लिया है। किस तरह से उच्चतम न्यायालय में लोकतंत्र को समाप्त किया जा रहा है इस संदर्भ में दो वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीशों की प्रेस वार्ता अपने में ही इसका एक बड़ा उदाहरण है। कोर्ट के बारे में राय देना भी अपराध हो गया है। बहरहाल, इस संस्था की संविधान और संसदीय जनतंत्र बचाने में गहरी महत्ता है, इसे पारदर्शी बनाने और इसका जनतंत्रीकरण करने का संघर्ष आज के दौर के लिए बेहद जरूरी है।
सब मिलाजुला कर कहा जाए तो भारत एक अभूतपूर्व चुनौती के दौर से गुजर रहा है- न केवल भारतीय संविधान और लोकतंत्र को खतरा है बल्कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी गहरे खतरे के दौर से गुजर रही। मोदी सरकार के विरुद्ध विपक्ष की राजनीति दृष्टिहीन और समझौतापरस्त हो गयी है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने बहुसंख्यकवाद और वित्तीय पूंजी के साथ समझौता कर लिया है। इन दलों की सरकारों का चरित्र भी गैर-लोकतांत्रिक और निरंकुश रहता है। वास्तव में मोदी सरकार का कोई नीतिगत विरोध इनकी राजनीति में नहीं दिखता है। इसलिए जनपक्षीय नीति और लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण और विस्तार को लेकर इनके बारे में भ्रम नहीं पालना चाहिए। इनकी भूमिका संसद और संसद के बाहर सांकेतिक राजनीतिक विरोधों और भाजपा गठजोड़ के विरुद्ध चुनाव में ही बनती है। इन परिस्थितियों में वैकल्पिक राजनीति, विकल्प की राजनीति या जिसे मैं जनराजनीति कहता हूँ, की तात्कालिक और दीर्घकालीन भूमिका क्या हो सकती है इस पर विचार करने की जरूरत है।
आज हम एक ऐसे दर्शन, विचारधारा और राजनीति से लड़ रहे हैं जिसकी लंपट फौज गांधी जी की हत्या को गांधी वध कहती है। “आई एम ए ट्रोल” की लेखिका कहती हैं कि प्रधानमंत्री अपनी ट्रोल्स की फौज के साथ फोटो खिंचवाते हैं और उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। लिंच माब को मोदी सरकार के मंत्री माला पहनाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शस्त्र की सामूहिक पूजा पहले से ही करता रहा है। इसलिए आज की राजनीतिक परिस्थिति की तुलना आपातकाल के दौर से नहीं की जा सकती। वह संसदीय राजनीति का एक काला अध्याय था, एक भयावह घटना थी। आज हम पूंजीवाद के वित्तीय वर्चस्व के दौर में प्रवेश कर गए हैं। भारत में वित्तीय पूंजी हिंदुत्व राजनीति के साथ मजबूती से खड़ी है। चुनावी बांड से भाजपा को देशी-विदेशी कारपोरेट द्वारा दिए गये एकतरफा भारी चंदे को लोग जानते ही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने सामाजिक संरचना पर अपनी पकड़ बना रखी है।
लेकिन इधर मोदी सरकार में समाज के सभी अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। जो विरोध अभी तक नागरिक आंदोलन में दिखता था अब वह किसान, मजदूर और युवा आंदोलन में दिख रहा है। आने वाले दिनों में ये सभी आंदोलन और तेज होंगे, इसलिए इन आंदोलनों को स्वतःस्फूर्तता में नहीं छोड़ना है बल्कि उन्हें एक व्यवस्थित जनराजनीति की दिशा में ले जाना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की राजनीति को शिकस्त देना और चुनाव में भाजपा गठजोड़ को परास्त करना राष्ट्रीय कार्यभार होना चाहिए। यह राष्ट्रीय कार्यभार वाम और लोकतांत्रिक ताकतों को चुनाव में स्वतंत्र हिस्सेदारी से नहीं रोकता है।
इस दौर की कुछ राजनीतिक सच्चाईयों पर भी हमें चर्चा कर लेनी चाहिए। यह सही है कि मोदी सरकार के विरुद्ध आंदोलन उभर रहे हैं। नागरिक, सामाजिक और डॉक्टर अम्बेडकर के विचारों पर चल रहा दलित आंदोलन दमन का मजबूती से विरोध कर रहा है लेकिन इन धाराओं की राजनीतिक उपस्थिति नहीं है। यही वह बिंदु है जहां इन आंदोलनों को अपने को पुनर्परिभाषित करना चाहिए और देश के सामने आई राजनीतिक चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के विचार से जुड़ी हुई वैकल्पिक राजनीति की ताकतों को भी अपनी राजनीतिक दिशा पर विचार करना चाहिए। मेरा आशय वामपंथ की मुख्यधारा को लेकर है।
यह सही है कि वाम मोर्चे की सरकारों ने उत्पादक शक्तियों के विकास के नाम पर वित्तीय पूंजी से समझौता किया और विरोध के स्वर को दबाया, लेकिन पार्टी और उनकी सरकारों में फर्क किया जाना चाहिए और अभी तक वामपंथी दलों ने नवउदारवादी अर्थव्यवस्था को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार नहीं किया है। वामपंथी आंदोलन लोकतांत्रिक आंदोलन का अविभाज्य हिस्सा है और राजनीति में उनकी उपस्थिति है। यह भी सही है कि वाम आंदोलन की प्रमुख धाराएं वाम-लोकतांत्रिक मोर्चे के निर्माण में राजनीतिक दिलचस्पी नहीं लेती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मुद्दों पर वे वर्गीय-तबकाई आंदोलनों में शरीक रहते हैं चाहे वह किसान आंदोलन हो, नौजवान या मजदूर आंदोलन हो। पर्यावरण आंदोलन में भी उनकी अभिरुचि रहती है। उनसे राजनीतिक संवाद की जरूरत है क्योंकि आरएसएस और भाजपा के विरुद्ध लड़ने का उनका प्रतिबद्ध इतिहास है। ये सभी धाराएं अगर एक साथ आएं और एक राजनीतिक मंच जिसे मैं बहुवर्गीय पार्टी कहता हूं, तो भारतीय राजनीति में अधिनायकवाद के विरुद्ध एक प्रतिरोधक शक्ति तैयार हो सकती है।
यहां मैं उन विचारों से सहमत नहीं हूं जो इसको असंभव मानते हैं और राजनीति राजनीतिक सम्भावनाओं का खेल बताकर जोड़-तोड़ की राजनीति की वकालत करते हैं। इस तरह के मंच में सभी लोकतांत्रिक वाम विचार वाले समूह, व्यक्ति, उत्पीड़ित समुदाय और विकास में क्षेत्रीय असंतुलन के शिकार लोग आ सकते हैं। उनके आवयिक (आर्गेनिक) सम्बंध विकसित होंगे, यह एक प्रभावशाली राजनीतिक मंच बन सकता है। आजादी पूर्व कांग्रेस, चीन के कोमिंतांग पार्टी, दक्षिण अफ्रीका के अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस में इस तरह का प्रयोग हुआ है।
इस जनराजनीति को शासक वर्ग की राजनीति से प्रतिद्वंद्विता में आना होगा और रोजमर्रे की राजनीतिक कार्यवाहियों में उतरना पड़ेगा। राजनीतिक कार्यक्रम बन जाने के बाद संगठन निर्माण को सबसे अधिक प्राथमिकता देनी होगी। वर्ग हित में काम करने वाली राज्य सत्ता के चरित्र से जनता को शिक्षित करना होगा, जनता से एकरूप होना होगा। प्रचारतंत्र के भारी महत्व को स्वीकार करते हुए भी ट्विटर, फेसबुक, वाट्सएप और न्यायालय से इतिहास के फैसले नहीं होंगे। जनता ही इतिहास का निर्णायक तत्व होती है और उसे ही खड़ा करना होगा।
मेरी समझ में आज की मुख्य समस्या यह नहीं है कि हम अपनी परंपरा, संस्कृति और भाषा से नहीं जुड़ सके। गांधी जी समेत कांग्रेस के सभी अग्रणी नेता परंपरा, भाषा, धर्म और संस्कृति से जुड़े रहने के बाद भी भारत के विभाजन को नहीं रोक सके। यह भी बात गौर करने लायक है कि सभी दल के नेता अभिजन नहीं हैं, उनकी बोली भाषा को समझने में जनता को कोई परेशानी नहीं होती फिर भी वे अधिनायकवादी राजनीति को रोकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए यदि संविधान की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की मूल भावना आमजन की भावना नहीं बन सकी तो राजनीति और संगठन के चरित्र और स्वरूप पर विचार करना होगा। जातिविहीन, वर्गविहीन, धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज बनाने की लड़ाई यदि कमजोर हुई और हिंदुत्व की राजनीति मजबूत हुई तो देखना होगा कि जातिवादी, पूंजीवादी, सामंती राज्य के खिलाफ हमारी लड़ाई में क्या कमजोरी रह गई। तर्क और नैतिकता का वैचारिक प्रभुत्व भारतीय समाज में क्यों नहीं बन सका।
हमें नागरिकता के लिए लड़ते हुए युद्धोन्माद के विरुद्ध लड़ना होगा क्योंकि नागरिकता की लड़ाई साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। हमें समान दूरी नहीं, वित्तीय सम्राट अमेरिकी शासक गिरोह के विरुद्ध खुलकर बोलना होगा, विरासत में मिली सीमाओं के विवाद को बातचीत से हल करना होगा। कुछ समाजवादी और शांतिकामी जनता ने अच्छा ही नारा दिया है कि हमें युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए। हमें पूरा विश्वास है कि तानाशाही की ताकतें परास्त होंगी, जनराजनीति की जीत होगी।