अभिषेक श्रीवास्तव
नियमगिरि के पहाड़ों से लौटने के बाद बड़े संक्षेप में कुछ कहानियां मैंने लिखी थीं जिनमें एक प्रभात खबर और जनसत्ता में छपी। मेरे साथी अभिषेक रंजन सिंह ने दैनिक जागरण] शुक्रवार और जनसंदेश टाइम्स में रिपोर्ट की। लेकिन अब तक पूरी यात्रा का वृत्तान्त बाकी था। करीब दस हज़ार शब्दों में समूची यात्रा को समेटने की कोशिश मैंने की है जिसे समकालीन तीसरी दुनिया के सितंबर अंक में आवरण कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है। उसी आवरण कथा को किस्तों में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
वह सवेरे से ही स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रहा था जबकि हमारी ट्रेन दिन के ढाई बजे वहां पहुंची। गले में गमछा, एक सफेद टी-शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शू और जींस, कद कोई पांच फुट पांच इंच, छरहरी काया और रंग सांवला। तीनपहिया ऑटो में बैठते ही मेरे हमनाम पत्रकार साथी ने पहला सवाल दागा था, ”क्या यहां जानवर हैं?” ”हां, है न! बाघ, भालू, सांप, जंगली सुअर, सब है।” साथी ने जिज्ञासावश दूसरा सवाल पूछा, ”काटता भी है?” वह हौले से मुस्कराया। बीसेक साल के किसी नौजवान के चेहरे पर ऐसी परिपक्व मुस्कराहट मैंने हाल के वर्षों में शायद नहीं देखी थी। मुझे अच्छे से याद है, उसने कहा था, ”वैसे तो नहीं, लेकिन सांप को छेड़ोगे तो काटेगा न!” अपनी कही इस बात की गंभीरता को वह कितना समझ रहा था, मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता लेकिन वहां से लौट कर आने के दो दिन बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी की खबर आई। समझ आया कि सांप आजकल बिना छेड़े भी काटता है। क्या इसे नियमगिरि और गढ़चिरौली में होने का फर्क माना जाए?
ओड़िशा के रायगढ़ा जिले के छोटे से कस्बे मुनिगुड़ा के रेलवे स्टेशन पर हमें लेने आया वह युवक अंगद भोई आज (कहानी लिखते वक्त) विशाखापत्तनम के एक निजी अस्पताल में सेरीब्रल मलेरिया और निमोनिया की दोहरी मार झेल रहा है जबकि कथित तौर पर अपने हाथ का इलाज करवाने के लिए गढ़चिरौली में डॉ. प्रकाश आम्टे के यहां गया हेम मिश्रा दस दिन की पुलिस रिमांड पर यातनाएं झेलने को मजबूर है। दोनों की उम्र लगभग बराबर है। दोनों ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। एक नियमगिरि की पहाड़ियों में आदिवासियों के बीच काम करता है तो दूसरा आदिवासियों के बीच देश भर में घूम-घूम कर सांस्कृतिक जागरण करता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नियमगिरि में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अब भी अमल में लाया जा रहा है जबकि गढ़चिरौली जैसे इलाकों में सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेश हवा में उड़ाए जा चुके हैं (याद करें मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच का वह फैसला कि महात्मा गांधी की किताब रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता)। शायद इसी फर्क के चलते अंगद माओवादी नहीं है जबकि हेम पर माओवादी होने का आरोप लगा है।
यह फर्क कितना बड़ा या कितना छोटा है, इस बात की एक धुंधली सी झलक संजय काक की फिल्म रेड ऐन्ट ड्रीम में देखने को मिलती है जहां वे प्रतिरोध के एक कमज़ोर सूत्र में पंजाब, बस्तर और नियमगिरि को एक साथ पिरो देते हैं। हमें कई माध्यमों में बार-बार बताया गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के खिलाफ नियमगिरि का आंदोलन विशुद्ध आदिवासी आंदोलन है और इसमें माओवादियों के कोई निशान नहीं। संजय काक ऐसा खुलकर नहीं कहते, लेकिन यहां के आंदोलन के नेता ऐसा ही मानते हैं। दरअसल, संजय की फिल्म देखने के तुरंत बाद उस पर जो आलोचनात्मक राय मेरी बनी, वहीं से इस इलाके का दौरा करने की ठोस योजना निकली थी। इसलिए इस यात्रा का आंशिक श्रेय फिल्म को जाता है। मैंने अपने हफ्ते भर के दौरे में यही जानने-समझने की कोशिश की है कि बड़ी पूंजी के खिलाफ क्या कोई भी आंदोलन संवैधानिक दायरे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अहिंसक तरीके से चलाया जाना मुमकिन है। या कि जैसा संजय दिखाते हैं, नियमगिरि भी प्रतिरोध के उसी ब्रांड का एक झीना सा संस्करण है जिसे सरकारें माओवाद के नाम से पहचानती हैं। आखिर क्या है नियमगिरि की पॉलिटिक्स?
क्या, कहां और कैसे
बहुराष्ट्रीय अलुमिनियम कंपनी वेदांता के चालीस हज़ार करोड़ रुपये की लागत वाले प्रोजेक्ट से पहले तमाम मशहूर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच नियमगिरि को न तो कोई जानता था, न ही शहरी मानस में इसे लेकर कोई कल्पना तक थी। आज, जब वेदांता के प्रोजेक्ट पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गांव-गांव में जनसुनवाई का आदेश अमल में लाया जा चुका है, तो नियमगिरि और उसके भरोसे रहने वाले आदिवासी समुदाय अचानक अहम हो उठे हैं। नियमगिरि में प्रवेश से पहले आइए इस इलाके का कुछ भूगोल समझ लें।
दिल्ली से अरावली की जो श्रृंखलाएं राजस्थान तक देखने को मिलती हैं, वे आगे चलकर विंध्य और सतपुड़ा में मिल जाती हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के बाद पूर्व तटीय रेलवे का क्षेत्र शुरू हो जाता है। छत्तीसगढ़ के बाघबाहरा से जो पर्वत श्रृंखलाएं दिखना शुरू होती हैं और महासमुंद होते हुए ओड़िशा में प्रवेश करती हैं, वे दक्कन के विशाल पठार का बिखरा हुआ हिस्सा ही हैं जिन्हें पूर्वी तट के पठार कहते हैं। इनकी लंबाई कुल 1750 किलोमीटर के आसपास है और ये ओड़िशा में छोटा नागपुर पठार के दक्षिण से शुरू होकर तमिलनाडु में दक्षिण पश्चिमी प्रायद्वीप तक चली जाती हैं। छत्तीसगढ़ से रेल से ओड़िशा आते वक्त दिखने वाली इसी श्रृंखला का कुछ हिस्सा नियमगिरि कहलाता है जो सीमावर्ती बोलांगीर जिले से शुरू होकर कोरापुट होते हुए रायगढ़ा और कालाहांडी तक आता है। इस नियमगिरि का शिखर कालाहांडी के लांजीगढ़ में माना जाता है जो यहां के इजिरुपा नामक उस गांव से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर है जहां तीन साल पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी आकर ठहरे थे। वेदांता कंपनी की अलुमिनियम रिफाइनरी और टाउनशिप लांजीगढ़ में ही है क्योंकि यहां से नियमगिरि के शिखरों की दूरी काफी कम है। पहाड़ से बॉक्साइट निकालने के लिए इसी रिफाइनरी से एक विशाल कनवेयर बेल्ट निकलता है जो सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर कहीं खो जाता है। पूर्व तटीय रेलवे के माध्यम से यह इलाका दिल्ली से सीधे जुड़ा हुआ है। रायगढ़ा जिले का मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन नियमगिरि की पहाड़ियों का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। मुनिगुड़ा से पहले पड़ने वाले अम्लाभाटा और दहीखाल स्टेशन भी नियमगिरि की तलहटी में ही बसे हैं लेकिन वहां सारी ट्रेनें नहीं रुकती हैं। दूसरे, वहां मुनिगुड़ा की तरह बाज़ार विकसित नहीं हो सका है। इसलिए हमें मुनिगुड़ा उतरने की ही सलाह दी गई थी।
मूवमेंट के गांव में
इस यात्रा की शुरुआत हमने नौजवान साथी अंगद के सहारे की, जो सबसे पहले हमें कालाहांडी के जिला मुख्यालय भवानीपटना को जाने वाले स्टेट हाइवे के करीब स्थित और रायगढ़ा के मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर बसे एक गांव में लेकर गया। नियमगिरि की तलहटी में बसा राजुलगुड़ा नाम का यह गांव करीब 250 आदिवासियों को 70 के आसपास घरों में समेटे हुए है। इन्हें कुटिया कोंध कहा जाता है। इस गांव को ”ऊपर” जाने का बेस कैम्प माना जा सकता है क्योंकि यहां से डोंगर (पहाड़) पर रहने वाले दुर्लभ डोंगरिया कोंध व झरनों के किनारे रहने वाले झरनिया कोंध आदिवासियों के गांवों तक पैदल पहुंचने के सारे रास्ते व लीक निकलते हैं। शुरुआती पंद्रह किलोमीटर से लेकर सुदूरतम 40 किलोमीटर तक बसे गांवों में यहां से पैदल जाया जा सकता है। सिरकेपाड़ी जैसे एकाध गांवों तक तो अब चारपहिया गाड़ियां भी जाने लगी हैं। यह गांव अपेक्षाकृत नया है। इसका पुराना नाम था गोइलोकुड़ा जो बाद में बदल कर राजुलगुड़ा कर दिया गया। इसे यहां के लोग ”मूवमेंट का गांव” कहते हैं।
हमारा पहला पड़ाव राजुलगुड़ा गांव |
”मूवमेंट का गांव” का मतलब आपको राजुलगुड़ा में प्रवेश करने के बाद इसके चांपाकल तक जाने पर समझ में आएगा। चांपाकल गांव की सतह से थोड़ा ऊपर है और वहां तक पहुंचने के लिए छह-सात सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। सीढ़ियों के नीचे सीमेंट से पक्की जमीन पर अंग्रेज़ी के अक्षरों में AIKMS लिखा है। यह अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा का संक्षिप्त नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले)-न्यू डेमोक्रेसी का एक जनसंगठन है। इस इलाके में इस संगठन का काफी काम रहा है और मुनिगुड़ा में इसने जमींदारों से करीब 1500 एकड़ जमीनें छीन कर आदिवासियों में बांट दी हैं। दक्षिणी ओड़िशा में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर आदिवासी किसानों-मजदूरों में बांट देने का समृद्ध इतिहास रहा है और माले धारा का तकरीबन हर संगठन इस काम में अपने-अपने इलाके में जुटा रहा है। ऐसे आंदोलन का सबसे चमकदार चेहरा चासी मुलिया आदिवासी संघ रहा है जिसके भूमिगत नेता के सिर पर आज सरकारी ईनाम है। यहां मुनिगुड़ा ब्लॉक में ज़मीन आंदोलन पर न्यू डेमोक्रेसी की पकड़ है। कई गांवों में कुटिया कोंध आदिवासी बांटी गई कब्जाई जमीन पर ही खेती कर रहे हैं। यह काम लोक न्यू डेमोक्रेसी के संग्राम मंच के बैनर तले किया गया था। यही मंच आज कई अन्य संगठनों के साथ मिलकर कोरापुट, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई कर रहा है। जाहिर है, राजुलगुड़ा यानी नियमगिरि का बेस कैम्प राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा से एक गर्मजोश मेजबान रहा है तो सरकार व कंपनी की आंखों का कांटा भी रहा है। इस गांव को समझना वेदांता के आंदोलन को समझने में केंद्रीय भूमिका रखता है।
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