खबर है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प जन आंदोलनकारियों के डर से अपने निवास वाइट हाउस में भीतर बने बंकर में डर कर एक घण्टे तक छुपे बैठे रहे। यह घटना सच है या कि आगामी चुनाव में नस्ली ध्रुवीकरण को बढ़ाने के लिए ट्रम्प द्वारा ये प्रायोजित कार्यक्रम है, इसका पता तो बाद में चलेगा । फिर भी यह घटना एक संकेत अवश्य है कि वहां पर ट्रम्प उस तरह से अजेय नहीं हैं जैसा कि अपने हाव भाव से वे जाहिर करते हैं। धुर दक्षिणपंथी नेताओं की यह विशेषता होती है वे बाहरी दुनिया में अपने को प्रचार माध्यमों से समय समय पर अजेय घोषित करवाते रहते हैं। उनके अंतिम पतन तक भी सामान्य निगाह से यह जानना मुश्किल होता है कि उनका राजनीतिक जीवन समाप्त होने वाला है। फिर भी, इस घटना का असर दुनिया भर के तानाशाह टाइप धुर दक्षिणपंथियों पर निकट भविष्य में पड़ सकता है अथवा यह बस धुर दक्षिणपंथी नफरती लामबंदी का एक हथकंडा मात्र है, यह भी भविष्य ही बताएगा।इस घटना के परिप्रेक्ष्य में ही यह संक्षिप्त आलेख दक्षिणपंथ/धुर दक्षिणपंथ के बारे में कुछ सामान्य तथ्य रखने का प्रयास है।
पिछले दशकों में पूरी दुनिया में धुर दक्षिणपंथ का उभार हुआ है। यह उभार राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों क्षेत्रों में देखा जा सकता है जिसकी जड़ें उस समाज में हैं जो कि पिछले कुछ दशकों में धुर दक्षिणपंथी सोच से ग्रस्त हैं।
इसका एक कारण तो समाजोन्मुख राजनीति करने वाले लोगों की दिशाहीन और ढुलमुल राजनीति है जिस कारण से इस खतरे के प्रति वे समय रहते गंभीर न हो सके और धुर कट्टरपंथी राजनीति का विकल्प समाज को न दे सके। लेकिन मुख्य कारण यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था को बेलगाम हो जाने दिया गया और आर्थिक धंधेबाजों को उनकी औकात में नही रखा गया। यानि राजनीति को कॉरपोरेट सेक्टर के अधीन उसकी प्रचंड सेवा में लगा दिया गया। इससे इन लोगों में असीमित लालसाएं पनप गयीं और वो दुनिया की हर चीज को बस अपने फायदे/मुनाफे के लिए इस्तेमाल करने लगे। बात पर्यावरण संकट से आगे जाकर ecological disaster के खतरे तक बढ़ गयी।
दक्षिणपंथ/धुर दक्षिणपंथ होता क्या है, ये समझना यहां पर जरूरी है। दक्षिणपंथ दो तरीके/माध्यम से सामने आता है:
1. अर्थव्यवस्था के तौर पर यह पूंजीवादी व्यवस्था का अतिरेकी स्वरूप है। पूंजीवाद यूं तो केवल मुनाफा कमाने के सिद्धांत पर चलता है और समाज पर इसका क्या असर होगा ये नहीं देखना चाहता। पूंजीवाद राजनीतिक सत्ता केंद्रों के साथ तालमेल बनाकर उन्हें प्रभावित करने की जुगत में लगा रहता है और चाहता है कि सरकारें ऐसी नीतियां और कार्यक्रम बनायें जिससे पूंजीवाद पनपता और बढ़ता रहे। यह सब पूंजीवाद के उदय के साथ ही होता रहा है। पूंजीवाद पर तमाम अंकुश भी लगता रहा है और इसे नंगा नाच करने का अवसर कम ही मिलता रहा है। उदाहरण के लिए, यूरोप में पूंजीवाद के साथ ही उसके विरोध में उन देशों में सशक्त धाराएं रहीं जिन्होंने पूंजीवादी विकृतियों को उजागर किया। वहां का पूंजीवाद बाकी दुनिया के लिए साम्राज्यवाद/उपनिवेशवाद के रूप में सामने आया और जिस-जिस देश में यह औपनिवेशिक पूंजीवाद आया, वहां पर साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद विरोधी महानतम जन आंदोलन हुए। भारत का राष्ट्रीय आंदोलन इसी का परिणाम था। पूंजीवाद के साथ-साथ समाजवादी विचारधारा भी थी जिसने और कुछ भले न किया हो लेकिन पूंजीवाद के निर्बाध घोड़े पर अंकुश जरूर रखा।
1990 के बाद इस स्थिति में बदलाव आया और पूरा विश्व संतुलन पूंजीवाद की ओर झुक गया। पूंजीवाद अपने मूल में दक्षिणपंथी ही हो सकता है और 1990 के बाद यही अतिरेकवादी पूंजीवाद धुर दक्षिणपंथ का वाहक बना है। इसे ग्लोबलाइजेशन के रूप में देख सकते हैं और इसमें latest stage technological revolution ने बड़ी भूमिका निभायी। आइटी रेवोल्यूशन, कम्प्यूटर क्रांति व अन्य टेक्नॉलोजिकल बदलावों ने ग्लोबलाइजेशन को घर-घर तक पंहुचा दिया। इसके साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का बेशर्म दोहन, precious metals’ capturing deep politics , ये सब इनके स्वीकृत मूल्य बन गये। सामानों की लालसा, उपभोग का नया दौर शुरू हुआ। जरूरत के हिसाब से सामानों का उपभोग करने के बजाय उसी से सामाजिक स्टेटस निर्धारित होने लगा। हाय पैसा, हाय पैसा की एक अंधी दौड़ समाजों में होने लगी। कुछ मूलभूत प्रश्न व चिंताएं जैसे नैतिकता, मनुष्यता, ईश्वर से डरना, मृत्यु दर्शन, बदनामी से डरना, ये सब नेपथ्य में चले गये। जिसके पास जितनी दौलत उसकी समाज मे उतनी ही इज्जत, ये सोशल नॉर्म हो गया। मेरी एक दोस्त के शब्दों में लोग दौलत रूपी अंधे कुंए को पाटने में अपना जीवन लगाने लगे। बक्कई सब बातें गौण हो गईं।हर चीज माल हो गयी, रिश्ते भी ,संवेदनाएं भी। इस धुर दक्षिण पंथी अर्थव्यवस्था ने मनुष्य की इंद्रियों पे कब्जा कर लिया। तर्क और औचित्य के प्रश्न ही भुला दिए गए। मनुष्य बस पैसा कमाने की मशीन में तब्दील हो गया। इस अंधी दौड़ का असर हर क्षेत्र पर पड़ा और नकारात्मक पड़ा। बड़े से बड़ा आशावादी भी ये नही कह सकता कि पिछले बीस तीस सालों में हम बेहतर मनुष्य बने हैं।
2. दक्षिणपंथ का दूसरा और अधिक विनाशकारी परिणाम यह सामने आया कि जिन सड़ी गली मान्यताओं को बेकार मानकर मनुष्यता आगे बढ़ चुकी थी, वे सब गन्दी सोचें पुनर्जीवित होकर सतह पर आ गयीं। धर्म, जो मनुष्य को नैतिक बनने को प्रेरित कर सकता था और कभी करता भी था, वो कट्टरपंथ में फंस गया। कर्मकांड ने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप को गायब ही कर दिया। इस्लाम को एक खास तरीके से कट्टरपंथ में फंसाया गया। इस्लाम मे जो उदारवादी तत्व थे उन्हें किनारे लगाकर इस्लामोफोबिया रचा गया। धुर दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए इस इस्लामोफोबिया को एक महत्त्वपूर्ण टूल के रूप में इस्तेमाल किया गया। ऐसा नही था कि इस्लाम कोई अलग से बुरा धर्म था और इस्लाम मानने वाले कोई अलग से बुरे या कट्टर थे, लेकिन जब यह इस्लामोफोबिया का परसेप्शन बन रहा था तब सामान्य इस्लाम मानने वाले भी इस खेल को समझ न सके और कर्मकांडी कट्टरपन का प्रभावी विरोध न कर सके।
यही हाल अन्य धर्मों का भी कमोबेश हुआ। दुनिया के हर धर्म को यह डर सताने लगा कि वो फलाने धर्म की वजह से खतरे में है। क्रिया-प्रतिक्रिया, लांछन, आरोप-प्रत्यारोप में हर धर्म के लोग उलझ गये। इस धार्मिक कट्टरता ने हर देश की राजनीति को प्रभावित किया। वैसे राजनीतिक दल मजबूत हुए जो इसी धार्मिक कट्टरता की रोटियां सेंक कर आगे बढ़े और राजसत्ताओं पर विराजमान हुए। जब राज्य व सरकारें ही कट्टरपंथियों के कब्जे में आ गयीं तो कानून का डर आदि तिरोहित होने लगा और समाजों के साम्प्रदायिकीकरण का दौर चला। इसी तरह से नस्लवाद आदि भी। रंग के आधार पर, जाति के आधार पर लोग अच्छे या बुरे माने जाने लगे। सामाजिक अत्याचार, विभेद, हिंसा, गुस्सा आदि सब समाज पर हावी हो गये। चूंकि समाजोन्मुख और मानवतावादी सोच व धाराएं इन कट्टरपंथियों द्वारा लगातार हमलों का शिकार हो रही थीं और बचाव के साधन भी कम से कमतर होते गये, तो यह कमजोर होने लगीं। यह कट्टरपन ही मुख्य सोच के रूप में घर-घर में व्याप्त हो गया। तर्क का स्थान चीखने-चिल्लाने ने ले लिया। मनुष्यता का स्थान बदले की भावना ने ले लिया। करुणा का स्थान सबक सिखाने की भावना ने ले लिया। हर कोई थोड़ा गुस्से में, थोड़ा फ्रस्ट्रेशन में, थोड़ा कुटिल हंसी वाला हो गया। यही धुर दक्षिणपंथ है जो आज हमारे सामने है।
दक्षिणपंथ के इन दोनों प्रकारों में एक अभिन्न गठजोड़ हो गया और इसी गठजोड़ का राजनीतिक सत्ता पर कब्जा हो गया।
ट्रम्प इसी धुर दक्षिणपंथ के सबसे बड़े प्रतीक हैं।
धुर दक्षिणपंथी राजनीति के नेताओं की कुछ खास चारित्रिक विशेषताए हैं।
1. ये अपनी सोच में घोर निरंकुश व तानाशाही पसंद हैं। ये अपनी किसी भी बात या कदम की जवाबदेही नही चाहते। ये प्रश्न नापसंद लीडरशिप है जो कि प्रश्नकर्ता को जान की हानि तक पहुंचा सकते हैं।
2. ये अशिक्षित हैं। डिग्री भले कुछ हो लेकिन इन्हें दुनिया के इतिहास, भूगोल, विकास आदि की कुछ भी सार्थक समझ नहीं है। ये समझते हैं कि मानव सभ्यता तब से ही है जब ये सत्ता में आये हैं। ये स्वयं को भगवान समझते हैं। दूसरों को डरा कर रखना इनकी खास शैली है। ये उस तरह से काम करते हैं जैसे गुंडे, माफिया करते हैं। आपराधिक सोच व प्रवृति ही इनकी कार्यशैली है।
3. ये झूठ के पुलिंदे हैं। जनता की नाजानकारियों का फायदा उठा कर ये झूठ फैलाते हैं। हर तरह का झूठ। आंकड़े ये अपनी मर्जी अनुसार बनाते-बिगाड़ते हैं।
4. ये प्रचार तंत्र के सहारे अपनी छवियाँ गढ़ते हैं जबकि ये निजी जीवन मे काफी गिरे हुए होते हैं। धुर दक्षिणपंथ के छोटे नेता भ्रष्टाचार, व्यभिचार, गुंडागर्दी, आदि सभी वृत्तियों के कुशल खिलाड़ी होते हैं।
5. इनकी सोच बहुत सड़ी मान्यताओं पर आधारित होती है। जैसे, ये मानते हैं कि कोई गरीब अगर है तो ये उसके कर्मों का फल है। इन्हें बराबरी, स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा जैसे मूल्यों से कोई मतलब नही होता। ये जनता के दुखों से मन ही मन खुश भी होते हैं क्योंकि ये सोचते हैं कि जब जनता खुद ही परेशान रहेगी तो उनसे क्या सवाल करेगी। ये जनता को तमाम फर्जी बातों में उलझा;s रखते हैं और अपना व धुर दक्षिणपंथी आकाओं का उल्लू सीधा करते रहते हैं।
6. ये नफरत आधारित साम्प्रदायिक छद्म राष्ट्रवाद को आधार बनाते हैं जनता का समर्थन पाने के लिए। हमेशा एक काल्पनिक शत्रु जनता के जेहन में जिंदा रखते हैं ताकि जनता का ध्यान इनके खुद के कुकर्मों पर न जाये।
यह जो वर्तमान संकट है वो इसी धुर दक्षिणपंथ की वजह से है। अपनी अक्षमतों को ये भांति-भांति के प्रपंच से छुपाने को कोशिश करते रहे हैं, पर अब दुनिया भर में इनकी कलई खुलने की शुरुआत हो चुकी है। आखिर झूठ कब तक चल सकता है। भविष्य किधर जाएगा ये कहना जल्दबाजी होगी लेकिन इस धुर दक्षिणपंथी नजरिये का खोखलापन परत दर परत सामने आने लगा है और दुनिया भर में लोग इस अंधी दौड़ के खतरे के प्रति कुछ सोचने को मजबूर हुए हैं ,ऐसा तो कहा ही जा सकता है।
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