छत्तीसगढ़: धर्मांतरण के खिलाफ आदिवासियों के छद्म आंदोलन में छुपा सियासी एजेंडा


बड़ी भूरी आंखों वाली वह महिला कमजोर-सी लग रही है। अपनी बाहों पर चोटों को छुपाने के लिए उसने एक शॉल लपेट रखा है। उसकी आवाज धीमी है, लेकिन वह गरिमा के साथ बोलती है और इस गरिमा में निहित है जीवित रहने के लिए उसका संघर्ष। 

वे बताती हैं, ”मेरे गांव रामावंड में सांस्कृतिक  भवन में सभा हो रही थी। मुझे रविवार की प्रार्थना में न जाने की चेतावनी दी गई थी। 27 दिसंबर को वे मेरे पति को घसीट कर ले गए और उसकी पिटाई शुरू कर दी। वे उसे लातों से ऐसे मार रहे थे जैसे कि वह कोई फुटबॉल हो और प्रत्येक खिलाड़ी किक मारने के लिए अपनी जगह लगातार बदल रहा हो…

मुझे गांव के नेताओं की ही छह महिला रिश्तेदारों ने पकड़ रखा था। वे लोग मुझे सबक सिखाने के लिए कह रहे थे और मुझे गंदी-गंदी गालियां दे रहे थे। मेरा ब्लाउज़ फाड़ दिया गया, मेरे बाल खींचे गए, मेरे सिर पर बार-बार मुक्का मारा गया और मुझे ज़मीन पर पटक-पटक कर मारा गया…

मेरे गाँव में (यीशु पर) आस्था रखने वाली ग्यारह महिलाओं, जिनमें एक किशोरी भी शामिल है, को भी इसी तरह की यातना का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि अगर तुम शांति से रहना चाहती हो, तो ‘घर वापस’ आओ, हमारे समाज में फिर से शामिल हो। मैंने कहा कि मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है, केवल प्रार्थना की है।”

उसके मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गई है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। वह छत्तीसगढ़ के उत्तर बस्तर के कांकेर, कोंडागांव और नारायणपुर जिलों में ईसाई समुदाय के उन लगभग 500 आदिवासी परिवारों में से एक हैं, जिन पर पिछले साल अक्टूबर से लगातार हमले हो रहे हैं और इन हमलों के कारण वे सदमे में हैं और आतंकित हैं।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा सहित हिंसा की व्यापकता और क्रूरता की शायद ही रिपोर्ट दर्ज की जा रही है, जैसा कि मैंने हाल ही में एक प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रभावित क्षेत्रों के दौरे के समय देखा है। 

दिसंबर में 1500 लोगों को अपने घरों से भागकर सरकार द्वारा आयोजित शिविरों, चर्चों, रिश्तेदारों और दोस्तों के घरों में शरण लेना पड़ा था। 200 से अधिक अभी भी वापस नहीं लौट पाए हैं। नारायणपुर में मुख्य चर्च और “प्रार्थना कक्ष” सहित इन जिलों के अन्य चर्चों में तोड़फोड़ की गई और कुछ में आग लगा दी गई। घरों को तोड़ा और लूटा गया है। नारायणपुर चर्च पर हमले के आरोप में गिरफ्तार लोगों में भाजपा जिलाध्यक्ष समेत अन्य स्थानीय नेता शामिल हैं।

बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे आरएसएस से जुड़े संगठनों के नेतृत्व में धर्मांतरण के खिलाफ “घर वापसी” अभियान कोई नया नहीं है, लेकिन इस बार अंतर यह है कि जनजाति सुरक्षा मंच जैसे मंचों के निर्माण के माध्यम से इसे आदिवासियों द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ अपनी परंपराओं की रक्षा के लिए एक सहज आंदोलन के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐसा कुछ भी नहीं है।

नवंबर के पहले सप्ताह में जनजाति सुरक्षा मंच के एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व एक पूर्व भाजपा विधायक और क्षेत्र के एक आदिवासी नेता ने किया था। उन्होंने एक भड़काऊ भाषण देते हुए मांग की कि पीलिया से मरने वाली 55 वर्षीय आदिवासी ईसाई महिला चैतीबाई के शव को खोदकर निकाला जाए, जिसके परिवार ने उसे अपनी निजी जमीन पर दफना दिया था। उन्होंने घोषणा की कि गाँव में एक ईसाई को दफनाने से “ग्राम देवता क्रोधित होंगे और गाँव को बर्बाद कर देंगे।” चैतीबाई के परिवार को इस हद तक धमकाया गया कि उन्होंने गांव ही छोड़ दिया। अगली रात मंच के लोगों ने कब्र खोदी और मृतक के शरीर को बाहर निकाला। प्रशासन ने इस तरह के अवैध, बर्बर कृत्य पर कार्रवाई करने की बजाय शव को कब्जे में लेकर 100 किलोमीटर दूर ईसाई कब्रिस्तान में दफना दिया। प्रशासन के इस रवैये से जनजाति सुरक्षा मंच को प्रोत्साहन मिला और उसने और ज्यादा कब्रों की खुदाई का आयोजन किया, जिसके चलते ईसाई समुदाय के खिलाफ हिंसा में तेजी आई। हिंसा के वर्तमान दौर के लिए प्रतीक के रूप में जीवितों को नहीं, बल्कि मृतकों को बहाना बनाया गया है।

ऐसी कार्रवाइयों का आदिवासी संस्कृतियों के संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। आदिवासी अपने मृतकों को दफनाते हैं और जो ईसाई हैं, वे अपने मृतकों को अपनी जमीन पर दफनाते हैं। यह प्रथा भारत में कहीं भी, किसी भी आदिवासी क्षेत्र में कभी भी विवाद का मुद्दा नहीं रही है। यह एक गढ़ा गया एजेंडा है, जो आदिवासी संस्कृतियों के हिंदुत्वीकरण की परियोजना को दर्शाता है।

छत्तीसगढ़ में 2006 में तत्कालीन भाजपा  सरकार ने जबरन धर्मांतरण के खिलाफ एक कानून बनाया था। धर्मांतरण के खिलाफ वर्तमान अभियान के विपरीत, जबरन धर्म परिवर्तन का एक भी मामला सामने नहीं आया है। जिस चीज पर हमला हो रहा है, वह अंतरात्मा की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार है।

आदिवासी क्षेत्रों में मंदिर बन रहे हैं, कीर्तन और भजन मंडलियां आयोजित की जा रही हैं, आदिवासी मान्यताओं और संस्कृतियों से दूर, मूर्ति पूजा से जुड़े कर्मकांडों का खुलेआम प्रचार किया जा रहा है। आदिवासी परंपराओं के नजरिये से देखा जाये, तो इन सब को भी थोपा हुआ और धर्मांतरण माना जा सकता है। 

जब आदिवासियों में ईसाई विश्वासियों को “घर लौटने” की धमकी दी जा रही है, तो किस ‘घर’ की ओर इशारा किया जा रहा है? झारखंड में झामुमो सरकार के नेतृत्व में विधानसभा ने जनगणना प्रारूप में “सरना/आदिवासी” को शामिल करने के लिए एक कॉलम जोड़ने के लिए एक संकल्प पारित किया है, जो आदिवासियों के विश्वासों और आस्था को उल्लिखित अन्य धर्मों से अलग दर्शाता है। झारखंड सरकार के इस कदम का भाजपा और “घर वापसी” के प्रचारकों द्वारा कड़ा विरोध किया गया है क्योंकि उनके लिए “घर वापसी” को “हिंदू धर्म” में वापस आने के रूप में ही पहचाना जाता है और इसका आदिवासी होने की मान्यता से कोई लेना-देना नहीं है।

नारायणपुर के आदिवासी दो लौह अयस्क परियोजनाओं के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, जो ग्राम सभाओं की कानूनी और संवैधानिक रूप से अनिवार्य सहमति के बिना शुरू किए जा रहे हैं।

ओडिशा नियमगिरि परियोजना के समान, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने रोक दिया था, ये परियोजनाएं आदिवासी विश्वास के लिए पवित्र माने जाने वाले क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, लेकिन आदिवासी अधिकार के इस मुद्दे पर जनजाति सुरक्षा मंच खामोश है।

हां, ग्राम सभा का यह अधिकार है कि ग्राम सभा की सहमति के बिना किसी परियोजना को रोक दें, लेकिन उनके इस अधिकार को ‘घर वापसी’ अभियान द्वारा विकृत किया जा रहा है और गांवों में ईसाई पादरियों के प्रवेश पर रोक लगाने जैसे अवैध प्रस्ताव पारित करवाये जा रहे हैं। 

इस साल के अंत में होने वाले राज्य चुनावों के संदर्भ में भाजपा “फूट डालो और फायदा उठाओ” की स्पष्ट रणनीति  पर चल रही है, लेकिन कांग्रेस सरकार के बारे में क्या कहा जाए, जिसने एक भी मंत्री को क्षेत्र का दौरा करने के लिए नहीं भेजा और एक भी प्रभावित परिवार की अभी तक मुआवजे के साथ मदद नहीं की है।

गिरजाघर पर पथराव में एक पुलिस अधिकारी के घायल होने के बाद ही गिरफ्तारियां की गईं है। भले ही महिलाओं सहित कई पीड़ितों द्वारा कई शिकायतें दर्ज की गई हैं और कुछ मामलों में प्राथमिकी भी दर्ज की गई हैं, लेकिन जिन लोगों के नाम हैं उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया है।

कोंडागांव के विधायक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। जहां तक पीड़ितों की बात है, जब उन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, वे नदारद थे। क्या भारत को जोड़ने का यही तरीका है?


लेखिका सीपीआइ(एम) की पोलित ब्यूरो  सदस्य हैं। अंग्रेजी से अनुवाद संजय पराते का है।


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