कर्नाटक और गुजरात सरकारों का प्रवासी मजदूरों को रोक लेना संविधान की अवमानना है


आखिर भाजपा शासित दो राज्यों कर्नाटक और गुजरात ने अप्रवासी मजदूरों को जबरन अपने ही राज्यों में रोककर अपने इरादे ज़ाहिर कर दिये। आश्चर्य नहीं होगा अगर अन्य राज्य भी ऐसा ही करें। आखिर यही तो सरमायेदारों के मुनाफे का धागा है जो सभी राजनैतिक दलों को एक जैसा बनाता है। इस मामले में अगुवाई भाजपानीत राज्य सरकारों ने की है। अपने ही देश में इन्हें अप्रवासी कहना एक तरह से संविधान के साथ गुनाह कहा जाना चाहिए लेकिन यही शब्द राज्य सरकारों को तमाम सहूलियतें देता है।  

पुख्ता ख़बर है कि कर्नाटक सरकार ने बिल्डर लॉबी की समझाइश पर दूसरे राज्यों के अप्रवासी मजदूरों के लिए तय की गयी ट्रेनों को निरस्त करवा दिया है। अब यह रेलगाड़ियां मजदूरों को लेकर उनके राज्य नहीं जाएंगी। इसी तरह के कदम गुजरात ने उठाये हैं। भाजपा के युवा तुर्क तेजस्वी सूर्या ने इस उचित कदम के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की सराहना की है और इसे बोल्ड स्टेप बताया है। गुजरात के सूरत शहर में ये मजदूर कई बार बाहर निकलकर घर जाने की मांग कर चुके हैं जिन्हें गुजरात पुलिस ने ठीक से सबक भी सिखाये हैं। 

बीते 43 दिनों से पूरे तरह से थम चुके देश में अगर कोई चल रहा था तो वो थे अप्रवासी मजदूर। वे सबको दिखाई दिये। यह दो कारणों से मजबूत नेता से समृद्ध देश और दुनिया के सामने आये। पहला, कि इन्हें अपने-अपने घर लौटना था और ये लौटने लगे किसी भी तरह। दूसरा, जो इतिहास में हर महामारी के दौरान देखा गया कि कामगार तभी सबको दिखलाई देने लगते हैं जब वे जन-स्वास्थ्य के लिए खतरा बनने लगते हैं। इन दोनों ही कारणों से हर तरह के कामगारों पर देश का ध्यान गया।

अज्ञेय ने लिखा है कि घर लौटने के लिए होता है। घर एक क्रियापद है। इसमें लौटना अंतर्निहित है। शाम को काम से थककर लोग घर लौटते हैं। कोई खतरा महसूस होने पर लोग घर की तरफ भागते हैं। इस महामारी में ऐसे ऐसे कामगार भी अपने अपने घरों की तरफ लौटे हैं जिन्हें महानगरों में बसे हुए दशकों बीत गये थे और अपने गाँव, अपने घर छोड़े हुए भी दशकों बीत चुके थे। घर एक सुरक्षा है। लोग सुरक्षा की तलाश में अपने अपने घर लौटते हैं।

कर्नाटक और गुजरात की सरकारों ने इस लौटने की सहज इच्छा और क्रिया को पूँजीपतियों के लिए दबाने का कुत्सित काम किया है। इन सरकारों और देश में मौजूद सभी सरकारों को यह याद रखना चाहिए कि अप्रवासी मजदूरों के पास शहरों में बने रहने के लिए बहुत कम वजहें हैं और अपने अपने गाँव लौटने के लिए बहुत वजहें हैं। तारिक़ थचिल लखनऊ के अप्रवासी मजदूरों पर किये एक शोध के आधार पर सुझाते हैं कि इसकी कई वजहें हैं। मसलन, प्राय: 63 प्रतिशत यानी 100 में से 63 मजदूर ऐसे हैं जो अकेले महानगरों या शहरों में आते हैं। उनके परिवार उनके साथ नहीं आते बल्कि वो गाँव में रहते हैं और इन पर आश्रित होते हैं। गाँव में कुछ छोटा-मोटा काम करते हैं लेकिन ज़ाहिर है वो इतना नहीं होता कि उससे गुज़र-बसर हो जाये।

दूसरी बड़ी वजह है कि 52 प्रतिशत मजदूर शहरों को अस्थायी ठिकाना ही मानते हैं और उनके जीने की परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि वे ज़्यादा समय उसी तरह नहीं रह सकते। ये मजदूर छोटे छोटे दड़बानुमा अवैध बस्तियों में बने किराये के कमरों या झुग्गियों में रहते हैं। आम तौर पर ऐसे एक दड़बे में कई कई मजदूर रहते हैं।

25 प्रतिशत अप्रवासी मजदूर सड़कों और फुटपाथ पर सोते हैं। प्राय: सभी को बहुत भरपूर श्रम के एवज़ में बहुत कम मजदूरी मिलती है। करीब 3 प्रतिशत लोगों के ही पास राशन कार्ड होता है।

जो भी पैसा इन्हें मजदूरी के बदले में मिलता है उसका बड़ा हिस्सा ये साप्ताहिक या मासिक तौर पर अपने ऊपर आश्रित परिवारों के खर्च के लिए घर भेज देते हैं। इनके पास कुछ बचता नहीं है। चोरी या छीन लिए जाने का डर हर समय बना रहता है।

पुलिस, ठेकेदार और स्थानीय गुंडे प्राय: इन्हें परेशान करते हैं। गाली-गलौज और मारपीट बेहद आम बात है। कई बार इनसे इनकी मजदूरी भी छीन ली जाती है या उधारी के नाम पर कई कई गुना ज़्यादा जबरन वसूला जाता है।

ऊपर बताई गयी सभी वजहों से एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि सरकारें इन अप्रवासी मजदूरों की ज़िंदगियों में कहीं नहीं हैं। अगर होतीं और कल्याणकारी भूमिका में होतीं तो कुछ वजहें ऐसी भी ज़रूर होतीं कि ये मजदूर महानगरों या शहरों में ठहरना भी चाहते।

बीते 25 साल में जब आर्थिक सुधारों ने पुराने क़ायदों को धीरे धीरे चलन से बाहर किया और नये क़ायदों को सांस्थानिक स्वरूप देते हुए लागू किया, तब से मजदूरों के अनैच्छिक पलायन में बेतहाशा वृद्धि हुई है। यह मौसमी या मियादी पलायन गाँव के गरीब परिवारों की ज़िंदगी का एक अनिवार्य हिस्सा बना दिया गया। मार्क्सवादी विचारक डेविड हार्वे भिन्न शब्दों में यह कहते हैं कि ग्रामीण वर्कफोर्स के पैरों में चक्र बांध दिया गया। ये स्थिर होकर एक जगह से अपने परिवार के लिए साल भर की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति कर ही नहीं सकते। इन्हें कम या ज़्यादा लेकिन एक निश्चित अवधि के लिए महानगरों या शहरों में मौजूद श्रम की मंडियों में अपने श्रम को बेचने आना ही होगा।

पी. साइनाथ की यह स्थापना भी हमें इनकी मजबूरी को समझने में मदद करती है कि ग्रामीण भारत में एक औसत परिवार को साल भर अपनी जीविका चलाने के लिए कम से कम तीन काम करने होते हैं। पहला छोटी-मोटी खेती (खुद की ज़मीन पर या ठेके या सालदारी या बंटाई पर), कुछ हुनर (शिल्प, कारीगरी आदि) और तीसरा मजदूरी ताकि नकद हासिल हो। यह एक औसत जीवन-चक्र बन गया है।

इनकी इसी अनिवार्य मजबूरी के चलते इन्होंने अपने ऊपर ‘चीप लेबर’ का लेबल चस्पा कर लिया है, जिसकी दुहाई देकर देश के “न भूतो न भविष्यति” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया नाम की वृहत परियोजना का मायालोक रचा था। 2 सितंबर 2014 को नरेंद्र मोदी ने टोक्यो स्टॉक एक्सचेंज में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपने भाषण में कहा था कि – आइए और इंडिया में अपना उत्पादन कीजिए। हम आपको सब कुछ मुहैया कराएंगे। उन्होंने विशाल उपभोक्ता बाज़ार और आसानी से उपलब्ध कुशल व सस्ते श्रम (श्रमिक) की भी दुहाई दी थी। इसी मार्केटिंग भाषण में उन्होंने अपना मास्टर स्ट्रोक लगाते हुए थ्री डी (3Ds) यानी डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी एंड डिमांड का भी ज़िक्र किया था। आजकल हालांकि इस मेक इन इंडिया का ज़िक्र प्राय: नहीं होता। भाजपा ने इसे 2019 के संकल्प पत्र से भी बाहर कर दिया था।

2016 में बलात नोटबंदी और अब अनियोजित देशबंदी के फैसलों ने इन थ्री डी (3Ds) के सब्ज़बाग को धराशायी कर दिया दिया है। ये फैसले डेमोक्रेसी की मिसाल नहीं थे, डेमोग्राफी इनसे सँभली नहीं और डिमांड ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर है। कर्नाटक और गुजरात सरकार के अप्रवासी मजदूरों को जबरन अपने राज्यों में रोकना किसी भी तरह से डेमोक्रेसी का तक़ाज़ा नहीं है बल्कि यह घनघोर रूप से भारत के किसी भी नागरिक के मौलिक सांवैधानिक अधिकारों की हत्या किए जाने की कोशिश है। तेलंगाना सरकार अभी भी इन मजदूरों को रोकने के लिए मान-मनौवल का सहारा ले रही है। दूसरी तरह से केरल सरकार इन्हें अप्रवासी मजदूरों के बरक्स अतिथि मजदूर कह कर आदर प्रकट कर रही है।

कोरोना की गिरफ्त में आने से पहले भारत की संसद ने श्रम क़ानूनों को लगभग दंतहीन बनाकर एक नयी श्रम संहिता (लेबर कोड) पारित की है हालांकि उसका ज़ोर केवल मजदूरों के किसी भी आक्रोश को दबाना और श्रम के अधिकतम शोषण को वैधता दिलाने पर रहा लेकिन उसमें भी देश में कहीं भी आने जाने पर पाबंदी जैसी कोई ऋचा नहीं जोड़ी गयी थी।

ख़बर है कि अब कंपनियों में श्रम अधिकारी की जगह चीफ वेलनेस ऑफिसर का पद सृजित किया जाएगा जो कार्यकारी समिति का भी सदस्य होगा जिसका काम वर्क फोर्स की वेलनेस पर होगा और जो दरअसल कंपनी में छंटनी की प्रक्रिया को आसान बनाएगा। हमारा देश और समाज इस नवाचार के लिए तैयार हो रहा है।    

इस कोरोना संकट ने उस भ्रामक अवधारणा को सबसे ज़्यादा कमजोर किया है जिसकी खेती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने दशकों से की है। वो है अखंड भारत। आज यह अखंड भारत छोटे-बड़े प्रादेशिक भूगोल में तब्दील हुआ जा रहा है। बलिया के मजदूर को अगर कर्नाटक से लौटना है तो उसके लौटने की जो आधी-अधूरी कानूनी प्रक्रिया अपनायी जा रही है वो किसी दूसरे देश से आने की अप्रवासन (इमिग्रेशन) प्रक्रिया से कम जटिल नहीं है। विदेश से आना तो फिर भी इस अखंड राष्ट्रवादी सरकार ने आसान कर दिया है लेकिन अपने ही देश में अपने ही घर लौटना सबसे ज़्यादा मुश्किल बना दिया गया है।

ख़बर है कि दूसरे देशों में ‘फंसे’ भारतीयों को लेने 65 विमान संचालित होंगे और जिनमें करीब 12000 लोग वापिस देश लाये जाएँगे। लॉकडाउन की वजह से कारोबार, उद्योग और बाज़ार को फिर से खड़ा करने की चुनौती का समाधान इन दोनों सरकारों को अगर अप्रवासी मजदूरों को जबरन रोक कर रखने और एक तरह से बंधक बनाने और उनसे जबरन काम करवाने में दिखाई देता है तो ये किसी भी लिहाज से लोकतान्त्रिक तरीका नहीं है और देश का संविधान उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। अगर किसी तरह से उन्हें रोक भी लिया गया तो तय है कि यह ज़्यादा देर नहीं चलेगा।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं

About सत्यम श्रीवास्तव

View all posts by सत्यम श्रीवास्तव →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *