मट्टो की सायकिलः विकास की राजनीति और जाति के दंश का सिनेमाई आईना


मट्टो की सायकिल एक उम्दा फ़िल्म है। कलाकार, कहानी और कैमरा के नज़रिये से कई साल बाद आयी एक ऐसी फ़िल्म जो सीधे हमारी आत्मा में धँस जाती है। प्रकाश झा का अभिनय ऐसा कि पूरे सिनेमाहॉल में मट्टो के पसीने की महक भर जाती है। कहानी इतनी सटीक जो फ़ाइव ट्रिलियन इकोनॉमी और सायकिल के दाम के दंश की लकीर को और पैना कर रही हो। कैमरा चलाने का हुनर इतना उम्दा कि हीरो सायकिल के विज्ञापन की होर्डिंग को निहारती मट्टो की आँखें दिल में उतर जाती हैं। फ़िल्मों पर लिखने के क़ायदे होते हैं। कुछ नियम और क़ानून। यह फ़िल्म की समीक्षा नहीं है, एक दर्शक का नज़रिया है।

मट्टो पाल मथुरा के हैं। मजूर आदमी हैं। यह कहानी सिर्फ़ मट्टो की नहीं है। यह उस दर्ज़े के लोगों की कहानी है जो हिंदुस्तान के निर्माण में अपना सब कुछ लगा देते हैं। जिनके दम पर इंडिया फ़र्राटे भरता है, पर मट्टो जैसे लोग रेंगने को मजबूर हैं। आगे बढ़ने वाले देश में पीछे छूट जाने वाले लोगों की कहानी, जो सिर्फ़ आर्थिक वजह से पीछे नहीं छूटते बल्कि अपनी जाति की वजह धकेल दिए जाते हैं। कल्लू की सायकिल की दुकान पर बैठकर अख़बार पढ़े वाले वकील बाबू को मुवक्किल इसलिए नहीं मिलते क्योंकि वे दलित हैं। थाने में बैठे यादव जी की थानेदार सुनवाई करता है लेकिन गड़ेरिया समाज से आने वाले मट्टो को डाँट मिलती है।

मट्टो की सायकिल ‘विकास की राजनीति’ को समझाती है। जैसे गाँव की कोई दादी या नानी अपने नाती-नतिनी को कहानी सुना रही हो। बिलकुल साफ़-साफ़। सायकिल से जब मट्टो अपनी पत्नी को बंगाली डाक्टर के पास ले जाता है तो कैमरा खंडहर में तब्दील प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को दिखाता है। ज़िला अस्पताल की अंतहीन कतार। बाहर से सोनोग्राफ़ी कराने की डॉक्टर की सलाह। यह इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की झांकी है। मट्टो के गाँव भरतिया से हाइवे गया है। जिनके पास ज़मीनें हैं उन्हें मुआवज़ा मिल रहा है। ज़मीन की क़ीमत न समझने वाली युवा पीढ़ी मौज में है। उधर मट्टो की बड़ी बेटी अपनी बहन लिमका के लिए अपनी आधी रोटी और चटनी इसलिए छोड़ देती है ताकि वह खा सके। गांव में 4जी तो पहुँच गया है लेकिन साफ़ पानी का बंदोबस्त नहीं है।

दिल्ली में फिल्म की स्क्रीनिंग के मौके पर एम. गनी, गोविंद निहलानी और प्रकाश झ, साभार: फ़ेसबुक

मट्टो की सायकिल फ़िल्म को शायद कभी यह नहीं कहा जाएगा कि यह पुरानी फ़िल्म है। इसको हर बार अलग-अलग नज़रिये से देखा जाएगा। एक-एक किरदार के बारे में तसदीक़ करने की ज़रूरत है। जैसे बड़ी उम्मीद से एक फ़ौजी को गाँववालों ने प्रधान बनाया होगा, लेकिन प्रधान जी देखते ही देखते दोपहिया से चारपहिया पर आ जाते हैं। प्रधानी के चुनाव में जिस प्रधान को मट्टो गोद में उठा लेता है वही प्रधान बाद में मट्टो को धकिया देता है। गाँव के एक युवा नेता का किरदार तो हर गाँव में मिल जाएगा जो सूदख़ोरी में लिप्त है, जिसे सिर्फ़ पैसे उड़ाने हैं।

मेरे साथ फ़िल्म देखने वाले एक भावुक दोस्त ने कहा कि यह फ़िल्म मज़दूरों को ज़रूर देखनी चाहिए। मैंने एतराज़ किया। यह फ़िल्म सिर्फ़ मज़दूरों की आँख में आंसू लाएगी। यह फ़िल्म खाये-पीये अघाये लोगों को देखनी चाहिए- पिज़्ज़ा और बर्गर वालों को, ताकि उनका दिल भर आए जब वो किसी मट्टो को कुछ मिनट लेट आने पर 300 की जगह 200 रुपये देते होंगे या जब गाड़ी में थोड़ी सी टक्कर लगने पर भद्दी सी गाली दे देते हैं।

हाँ, मट्टो की सायकिल आपको कई दिनों तक परेशान करेगी। आपको ट्रैक्टर के पीछे भागता मट्टो भूलेगा नहीं। अपनी बेटी के लिए रिश्ता लेकर गए मट्टो की बेबसी आपको याद आएगी। आकाश में निहारती मट्टो की आँखें शायद आपको सोने न दें। एम. गनी साहब आपको शुक्रिया,  ऐतिहासिक फ़िल्म की ख़ातिर…


लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के संगठन सचिव हैं


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