ज़रूरी तो नहीं कि लिखे हुए से कुछ होता ही हो लेकिन नहीं लिखे हुए से भी तो कुछ नहीं होता। हर गैर-मौजूदगी भी हालांकि एक तरह की मौजूदगी ही है लेकिन ऐसी गैर-मौजूदगी उन्हीं के लिए मौजूदगी का अहसास है जिन्हें कोरे कागज़ पर भी कुछ पढ़ लेने की आदत है। यूं तो कोरा कागज़ भी एक पाठ होता है पर पढ़न की इतनी बारीकी और एहतराम कतिपय शांत वातावरण में ही संभव है। दिल्ली में झींगुर की आवाज़ भला कोई कैसे सुन सकता है?
झींगुर की आवाज़ सुन पाने की काबिलियत शहरों ने खो दी है। गांवों में कहीं-कहीं बची हुई है। झींगुर अब भी बोलते हैं। जैसे बिना लिखे अब भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है। लोगों के ज़हन में, उनकी आँखों में, उनके व्यवहार में। चुप्पी भी एक लिखत है और न बोलने का चयन भी एक निर्णय है। निर्णय सबने लिए हैं। इतिहास तय करता है कि किसका निर्णय कब, कहां और क्यों ठीक था- ऐसा कहकर लोग वर्तमान से कन्नी काटकर अपने सब कुछ किये-धरे और न किये-धरे को इतिहास की उन कन्दराओं में फेंक आते हैं जिन्हें भविष्य में बनना है। उन्हें पता है कि इन गुफाओं में से इतिहास जब बोलेगा, तब वे उसे सुनने के लिए यहां नहीं होंगे।
क्या होता है जब दो लोग किसी गंभीर बात पर बात कर रहे होते हैं और अचानक बारह पहियों वाला एक मालवाहक ट्रक लंबी टेर लगाने वाले हॉर्न का कर्कश कोलाहल करते हुए बगल से गुज़रता है? अमूमन लोग उतने समय के लिए चुप हो जाते हैं। वे इसलिए चुप हो जाते हैं कि अभी कुछ भी बोलने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि इस कर्कश कोलाहल में उनकी बात सामने वाले को सुनायी ही नहीं देगी। गौरतलब है कि यहां कहने वाले को यह भरोसा है कि उसकी बात महत्वपूर्ण है जिसे इस शोर में यूं ही ज़ाया नहीं हो जाना चाहिए। इसलिए कुछ समय की चुप्पी एक तरफ शोर से अपनी बात को बचा ले जाने की कोशिश है तो वहीं शोर के गुज़र जाने की एक प्रतीक्षा भी है।
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जब ट्रक वहां से गुज़र जाता है अपनी कर्कशता अपने साथ लिए, तब बात फिर से वहीं से शुरू हो जाती है जहां वह शोर की मौजूदगी में रोक दी गयी थी। लेकिन क्या हो अगर यह शोर कभी खत्म ही न हो? मसलन, एक ट्रक के बाद ऐसे कई ट्रक उनके बगल से गुजरते रहें और उसी तरह तेज़ आवाज़ में अलग-अलग तरह के हार्न बजते रहें? क्या ट्रकों की कर्कशता की निरंतरता के कारण दोनों के बीच चल रही बात वहीं खत्म हो जाएगी? आखिर कब तलक बात अपने छोड़े हुए पहलू को फिर-फिर पकड़ने की कोशिश करती रहेगी? बात तो खत्म हो जाएगी!
एक दूसरा तरीका भी हो सकता है कि बात कहने वाला उन ट्रकों से भी ज़्यादा तेज़ आवाज़ में अपनी बात कह दे ताकि ट्रकों के कर्कश कोलाहल में भी बात बोली जा सके, सुनी जा सके और समझी जा सके। यह एक तदबीर है, लेकिन इसमें अतिरिक्त श्रम और ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है। तेज़ बोलने से आपके गले पर असर पड़ सकता है। आपका गला सूख सकता है। गले की नसें खिंचने से आपको तकलीफ हो सकती है और इसी तरह कर्कश कोलाहल के बीच जो आपकी बात सुन रहा है उसे भी अपने कान पर ज़ोर देना पड़ सकता है और इस तरह एक महत्वपूर्ण बात जो कतिपय शांत वातावरण में हो सकती थी और वाकई जिसे होना ही चाहिए था उसकी पूरी तासीर बदल जाएगी।
लेकिन यहीं तो तय होना है कि आपका चुनाव क्या है! शोर के आगे चुप हो जाना या शोर से ज़्यादा तेज़ आवाज़ में अपनी बात कहना? इतिहास इसी चयन की टोकरी का इस्तेमाल करता है और हमारा आज का चयन कल इतिहास की थाती बन जाता है।
बीता साल इसी तरह बात बीच चुप्पियों की लुका-छुपी में बीता। क्या भूलूँ क्या याद रखूँ किसी एक व्यक्ति की ज़िंदगी को दर्ज करने की सबसे बड़ी चुनौती रही है, लेकिन एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में जब इस द्वंद्व से सामना होता है तब याद रखना और भूल जाना या बात करना और चुप हो जाना ज़्यादा व्यापकता की ज़रूरत पेश करता है। ज़िम्मेदारी का अहसास करवाता है।
बीता साल कुछ ऐसा बीता जिसके बारे में सब कहते हुए पाये जाते हैं कि इसे बीत ही जाना चाहिए। लोगों को 2021 का कैलेंडर बेरहमी से फेंकते हुए देखा है क्योंकि इस गुजरे हुए साल ने कुछ भी ऐसा नहीं दिया जिसे सँजो कर रखा जाय। लेकिन यह तो उनकी बात है जिन्होंने कैलेंडर बेमुरव्वती से फेंका। जिन्होंने कुछ संभालने लायक पाया उन्होंने ज़रूर किसी तरकीब से कुछ सँभाल कर रख लिया होगा। बीता साल युगांतरकारी रहा क्योंकि इसका असर व्यापक तौर पर हुआ। व्यक्तिगत हानि-लाभ से उठकर देखे बिना इस एक साल और 365 दिनों की परिघटनाओं को समझा नहीं जा सकता।
इन परिघटनाओं ने लोगों को बात और चुप्पी के चयन के लिए अलग-अलग परिस्थितियां दीं। लोग बोले, जब उन्हें लगा कि अब बोलना चाहिए। वे बोले, जब अस्पतालाओं ने दम तोड़ दिया। वे बोले, जब ऑक्सीजन एक दुर्लभ शै बना दी गयी। वे बोले, जब उन्हें लगा कि कोई अपना अब उनसे कभी बोल नहीं पाएगा। वे नहीं बोले जब उसी निज़ाम ने- जिसने ऑक्सीजन नहीं दी थी- 20 लाख मुसलमानों की हत्या करने का आह्वान होने दिया। वे नहीं बोले जब देश के गृह राज्य मंत्री के बेटे ने ज़िंदा किसानों को अपनी थार जीप से कुचल दिया। वे नहीं बोले जब बेरोजगार युवा सड़कों पर पीटे गए।
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बोलने और चुप रहने का चयन उन्होंने अपनी निजी भावनाओं और हानि-लाभ को ध्यान में रखकर किया। चयन करने के भरपूर मौके इस निज़ाम और इस बीतते हुए साल ने उन्हें मुहैया कराये लेकिन उन्होंने उसे तभी भुनाया जब उन्हें लगा कि इस अवसर को भुनाना चाहिए।
सब अगर बोलते तो ये साल कुछ ऐसा देकर जाता जो हमसे इस निज़ाम ने बीते वर्षों में छीना है। किसान बोले और अपना बहुत कुछ छिनने से उन्होंने बचा लिया। हम नहीं बोले और सब कुछ लुटा दिया। किसान बोले और उन तमाम अवरोधों और कोलाहलों को पार कर सकने वाली आवाज़ में बोले। वे चीखे और चिल्लाए, वे शांत रहे और सुना भी। किसानों ने बात की। बात पर भरोसा रखा।
लोग अब महंगाई पर भी बात नहीं करते। लोग बात की इज्ज़त करना भूल गए। बात ने उन्हें व्यक्त करना छोड़ दिया। लोग निज़ाम से डर गए। निज़ाम ने उन्हें और डराना शुरू कर दिया। इतना-इतना डरा दिया कि बेहतर भविष्य के लिए एक साध्वी से कहलवा दिया कि बच्चों को स्कूलों और किताबों से मुक्त करवाओ, उन्हें शस्त्र थमाओ। अभी हम और डरेंगे, वे हमें और डराएंगे। इस डरने-डराने में बात और पीछे चली जाएगी। बात पीछे जाएगी और डर के लिए ज़्यादा से ज़्यादा जगह बनाएगी। आखिर को निर्वात तो नहीं रह सकता। कुछ तो होता ही है जो खाली जगह को भरता है।
2021 में खाली हुई जगहों को कौन भरेगा यह 2022 में दर्ज़ होगा। हम मना ही सकते हैं कि खाली जगहें खाली न रहें और वे कम से कम डर से न भरी जाएं। ठीक।
(शीर्षक मंगलेश डबराल के कविता संग्रह से साभार उधार; कवर तस्वीर साभार Deviant Art)