बात बोलेगी: भेद खोलेगी बात ही…


बात किसी के द्वारा की जाती और किसी के द्वारा सुनी जाती है। कोई बात को लिखता है और कोई इसे पढ़ता है। ज़रूरी नहीं है कि बात किसी के द्वारा की ही जाये। यह खुद भी बोलती है। बात कर्ता है या महज़ कर्म, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं।

हिन्दी में बात को लेकर खूब बातें हुई हैं। ऐसे लगता है कि बात कोई बेजान चीज़ नहीं है बल्कि इसमें वो सब खूबियाँ हैं जो किसी जिंदा शै में होती हैं। मसलन, यह चलती है, यह बनती है, यह  लड़ती है, यह कटती है, तो काटी भी जाती है।

बात निकलती है और दूर तलक चलती है। बात बढ़ती है। बात से बतंगड़ बनता है। बात छिपती है। बात से बात निकलती है। किसी की बात पर जाया जा सकता है तो किसी की बात पर नहीं जाया जा सकता। कोई बात रख लेता है, कोई बात नहीं रख पाता। कुछ लोग बातें पी जाते हैं, कुछ लोग नहीं पी पाते और कोई दुर्घटना घट जाती है।

बात को बातों में उड़ा दिया जा सकता है। बात पूछी जाती है। कई बार बात को पूछा नहीं जाता । कुछ लोग बात के धनी होते हैं, कुछ इसे लेकर बहुत गरीब।

बात फैलती है और बात बोलती है। यहाँ बात की उस खूबी पर बात करेंगे जिसे हिन्दी के एक बड़े कवि शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी एक महत्वपूर्ण कविता के मार्फत हमें बताया कि बात बोलती है और वह भेद खोलती है।

बहादुर शाह जफर ने इतिहास के संक्रमण काल में यूं ही तो न कहा होगा कि ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी, जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी’।

इस दौर में भी जब बात करना मुश्किल होता जा रहा है, एक यही शै है जो इस समय के सारे भेद भी खोल सकती है। कोई और चारा है क्या?

बात तो करना ही पड़ेगी। बोलना तो पड़ेगा ही। बात बोलेगी भी और अपने समय के भेद भी खोलेगी और ज़ुबान पर चढ़ती जा रही बर्फ की मोटी सिल्लियों को पिघलाने का काम भी करेगी। 

दो व्यक्तियों के बीच कोई भी रिश्ता बात से बनता है। बात का रिश्ता अनिवार्य रूप से बराबरी पर आधारित होता है। दो बराबर के लोग आपस में बात करते हैं जिसे बातचीत कहा जाता है। एक कहता और दूसरा सुनता है। जो सुनता है वो भी फिर कहता है। और इस पूरी प्रक्रिया को संवाद कहा जाता है।

संवाद किसी भी स्वस्थ रिश्ते का सबसे बड़ा आधार है। दो लोगों के आपसी रिश्ते, परिवार, समाज और मुल्क़ इसी संवाद से चलते हैं। मानव सभ्यता के इतिहास में संवाद पर आधारित जनतंत्र जैसी व्यवस्था इसलिए ही तो सर्वोपरि है क्योंकि इस संवाद ने ही उस सामुदायिकता का निर्माण किया जिसमें सभी को बराबर की भागीदारी और रुतबा मिला।

आज इस संवाद की सबसे ज़्यादा कमी खल रही है और संवाद के गिरते स्तर या उसे लगभग अनुपयोगी बना देने के ही अनुपात में देश में दो व्यक्तियों, परिवारों, समाज और अंतत: इस जनतंत्र का स्तर भी गिरा है। जितना संवाद यानी बात कम होती जाएगी उतना ही हमारा जनतान्त्रिक व्यवहार और बरताव कम होता जाएगा।

आज की सबसे बड़ी चुनौती इस बात और इससे पैदा होने वाले संवाद को बचाने की है। और इसे केवल इसके अधिकतम उपयोग से ही बचाया जा सकता है। चलिए, इसका उपयोग करें ताकि बचे हुए देवता इससे कूच न कर जाएँ। बात बचेगी तो भाषा भी बचेगी और भाषा बचेगी तो फिर से अच्छी दुनिया रची जा सकेगी।

अभी पूरी दुनिया में कोरोना वायरस ने तहलका मचाया हुआ है। पूरी दुनिया करवट बदल रही है। हमारा देश भी बदल रहा है। एक तरह का संक्रमण काल है।

इस बदलती दुनिया में बहुत भेद हैं जिनके बारे में जिन्हें बताना चाहिए। जिन्हें उन भेदों को भेदना था, वे अपने पेशे से मुकर गए हैं। उनके मुकरने की कीमत हमारा देश सबसे ज़्यादा चुका रहा है। बात होती है तो वह सवाल भी पूछती है। सवाल किसी जनतंत्र में उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना संवाद है। संवाद और सवाल के बिना और कुछ भी हो सकता है पर एक जनतान्त्रिक वातावरण का निर्माण नहीं हो सकता है और जनतंत्र के निर्माण के बगैर बराबरी, न्याय और शांति की स्थापना भी नहीं हो सकती है। सवालों से जवाबदेही तय होती है। जवाबदेही के बिना कोई भी व्यवस्था चल नहीं सकती। ऐसी कोई भी व्यवस्था हालांकि कभी रही नहीं जहां जवाबदेही शून्य रही हो लेकिन जब यह जवाबदेही जनता के प्रति, अपने नागरिकों के प्रति होती है तभी यह सबके हित में हो सकती है और तभी यह व्यवस्था सभी की, सभी के द्वारा और सभी के लिए हो सकती है। राजनैतिक शब्दावली में इसे ही लोकतन्त्र कहा जाता है।

तो बात, एक लोकतन्त्र की बुनियादी शर्त है। जहां बात नहीं होगी वहां लोकवृत्त का निर्माण नहीं होगा और जहां कई कई लोकवृत्त नहीं होंगे वहां और कुछ भी हो सकता है जनतंत्र नहीं हो सकता।

बात तो आज भी हो ही रही है, लोकवृत्त आज भी बन रहे हैं पर यह बात अब एकतरफा हो रही है। ‘मन की बात’ एकतरफा बात का उदाहरण है। इसमें बात संवाद का जरिया नहीं बन पाती और इसलिए यह लोकतन्त्र के खिलाफ हो जाती है। ‘देशवासियों के नाम संबोधन’ भी एकतरफा बात का ही उदाहरण है इसलिए इससे भी लोकतन्त्र को खतरा पैदा होता है क्योंकि इसमें संबोधन करने वाले और उस संबोधन को सुनने वाले के बीच गहरी फांक पैदा होती है और उसका एहसास उससे भी तीव्र होता है। यहां बात, अपनी बुनियादी विशेषताओं से रहित महज एक संदेश में सिमट जाती है।

बात एक सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और अंतत: राजनैतिक क्रियाकलाप है। दो लोगों का किसी एक उद्देश्य से बात करना राजनीति की बुनियादी शर्त है। इसी से बड़ी राजनीति पैदा होती है। और आज इक्कीसवीं सदी में जहां हर किसी की राजनैतिक हैसियत बराबर है या होना चाहिए, तो यह बराबरी उस बात से ही होगी जो हम करते हैं और करते रहेंगे।

आपका स्वागत है। हम हर सप्ताह बात करेंगे। जहां बात ही बोलेगी। हम नहीं।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैंयह कॉलम अब हर बुधवार प्रकाशित होगा।


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One Comment on “बात बोलेगी: भेद खोलेगी बात ही…”

  1. जी हाँ बात की बात तो होनी ही चाहिए। संवाद हीनता लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है इसलिए सार्थक संवाद जारी रहना चाहिए।

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