पिछले एक साल से चल रहा किसान आंदोलन अभूतपूर्व जीत के साथ फिलहाल स्थगित कर दिया गया। सरकार द्वारा किसानों पर लगाए कानूनी मुकदमों की वापसी समेत अन्य दूसरी सभी मांगें मंजूर होने का आधिकारिक पत्र मिला। इसके बाद इस मुद्दे पर संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक हुई हुई जिसमें किसानों ने आंदोलन को खत्म तो नहीं, मगर इसे स्थगित रखने का फैसला किया है।
इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान अनेक उतार-चढाव आए मगर किसानों ने हार नहीं मानी। केन्द्र सरकार द्वारा किसान आंदोलन को समाप्त करवाने के लिए साम दाम दंड भेद सभी तरह के तमाम हथकंडे अपनाए गए। यहां तक कि किसानों को बदनाम करने के लिए सारी मर्यादा तोड़ दी गयी। इसके विस्तार में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि विगत साल भर से किसान आंदोलन इतना सुर्खियों में रहा कि हर आदमी इसके हर पहलू से सकारात्मक या नकारात्मक किसी न किसी तौर पर जुड़ा ही रहा।
तमाम बाधाओं से जूझते और इस दौरान लगभग 700 से अधिक किसानों के बलिदान के बाद साल भर से अपनी मांगों को लेकर डटे संकल्पित और समर्पित किसान को आखिर फतह हुई और सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया।
यह तल्ख हकीकत है कि केंद्र सरकार द्वारा प्रशासनिक और भाजपा द्वारा सामाजिक स्तर पर किसानों को तोड़ने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। साल भर से जारी किसान आंदोलन भाजपा के लिए लगातार सबसे बड़ी परेशानी का सबब बनता गया। इस दौरान हुए चुनावों और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा नेताओं के प्रति बढ़ते जनाक्रोश ने केन्द्र सरकार और भाजपा नेतृत्व की हेक़ड़ी निकाल दी और वह हर शर्तों को मानने के लिए मजबूर हो गयी।
आज पूरा देश जानता है कि अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र ही भाजपा की केन्द्र सरकार आज किसानों के सामने झुकने को मजबूर हो गयी है।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि आंदोलन को लगभग समाप्त मान लिए जाने के बाद आगामी चुनावों में भाजपा को कोई फायदा मिलेगा और उसकी पकड़ मजबूत होगी। यह सवाल सिर्फ भाजपा से इसलिए बनता है क्योंकि अन्य दलों को किसान आंदोलन से हानि तो नहीं ही होती मगर कोई बहुत विशेष लाभ मिलने की संभावना भी कम ही नजर आती है। किसानों के निशाने पर शुरुआत से ही भाजपा और केन्द्र सरकार रही। अतः आंदोलन का प्रभाव या दुष्प्रभाव भी भाजपा पर ही पड़ने की संभावना रही आयी है।
अनुमानों के अनुसार ऐसा माना जा सकता है कि पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में होने वाले चुनावों में से गोवा में किसान आंदोलन का कोई असर पहले भी बहुत विशेष नहीं था और न अब किसी तरह से पड़ने की संभावना है। साथ ही उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर के वोटरों पर भी किसान आंदोलन का कोई खास असर होने की संभावना नहीं लग रही। भाजपा के लिए सबसे ज्यादा चिंता उत्तराखंड, पंजाब के और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के चुनावों पर किसान आंदोलन के विपरीत असर पड़ने को लेकर थी। इसी के चलते सरकार और भाजपा सभी समझौते करने को राजी हुई।
संयुक्त किसान मोर्चा भी सरकार की मंशा से अनजान नहीं है। इसी के मद्देनज़र सरकार की तरफ से किसानों के केस वापसी समेत दूसरी सभी मांगें मंजूर होने का आधिकारिक पत्र मिलने के पश्चात हुई मोर्चा की बैठक में नेताओं द्वारा किसान आंदोलन समाप्त करने की बजाय आंदोलन को फिलहाल स्थगित करने का एलान किया गया
यह एक बुद्धिमानी और रणनीति भरा फैसला है। किसान नेताओं द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि फिलहाल आंदोलन स्थगित किया जा रहा है और मोर्चे की अगली बैठक 15 जनवरी को होगी। इस दौरान सरकार से हुए समझौते एवं करारों पर किए जा रहे अमल की लगातार निगरानी और समीक्षा की जाती रहेगी। आगामी 15 जनवरी को आहूत बैठक में इन पर विचार-विमर्श कर आगे की रणनीति तय की जाएगी।
तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज़ पर मोर्चे का यह निर्णय केन्द्र सरकार पर एक दबाव की तरह हो गया है। अब सरकार को अपने करारों पर तेजी से काम करना होगा। किसी तरह की मक्कारी या जुमलेबाजी की संभावनाएं अब कुछ कम होंगी। मोर्चे द्वारा घोषित 15 जनवरी चुनावों के कुछ ही पहले की तारीख है। ऐसे समय पर केन्द्र सरकार किसी तरह का खतरा उठाने की हिमाकत संभवतः नहीं करेगी।
किसान आंदोलन ने सुनियोजित एवं एकजुट संघर्ष की एक मिसाल कायम कर देश, समाज और संगठनों को नयी दिशा एवं दृष्टि दी है। आंदोलन का दूसरा और महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि किसानों ने संघर्ष के दौरान सामाजिक एवं सांप्रदायिक कटुता मिटाने में अभूतपूर्व सफलता हासिल कर धर्म व संप्रदाय की राजनीति करने वालों को करारा जवाब दिया। किसानों की यही एकता, एकजुटता और समरसता भाजपा के लिए परेशानी का कारण बनी हुई है।
किसान नेताओं द्वारा रणनीति के तहत आंदोलन को समाप्त करने के बजाय फौरी तौर पर स्थगित करने के निर्णय के चलते अभी से ऐसा मानना कि भाजपा ने अपनी गिरती लोकप्रियता को संभाल लिया है, कुछ जल्दबाजी होगी।