जीवन जगत का जो बोध है उसका व्यापक होना, पुष्ट होना, विश्व में ज्ञान का जो आज विकास स्तर प्राप्त है, उसको आत्मसात करना और उससे आगे बढ़ना आवश्यक है। भावना उसी क्षेत्र में सक्रिय होती है जो क्षेत्र वस्तुतः ज्ञानशक्ति द्वारा गृहीत हो। बोध यानी ज्ञान के क्षेत्र के भीतर ही भावना की पहुंच है, उसके बाहर नहीं। इसीलिए यह आवश्यक है कि हमारे जीवन का ज्ञानात्मक आधार व्यापक और विकसित हो। ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। उससे निकलते हैं निष्कर्ष, उससे होता है जीवन-विवेक का विकास। यह विवेक ही एक स्वप्न देता है। यह स्वप्न परमावश्यक है। वह जीवन-स्वप्न है। वह आध्यात्मिक है, यौनिक भी।
कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारीः दो’, एक साहित्यिक की डायरी, गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
कहानी बनाम कविता?
गजानन माधव मुक्तिबोध कवि थे, कथाकार थे, समीक्षक थे या निबंधकार थे? क्या वे डायरी लेखक थे? मुक्तिबोध के कवि-रूप पर या कथाकार-रूप पर अलग से क्या बात की जानी चाहिए? यदि हां, तो क्यों? यदि नहीं, तो क्यों? ‘‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना’’- निदा फाज़ली के इस पंक्ति को लिखने से बरसों पहले हिंदी के बौद्धिकों में यह चेतना और विवेक कहां से पैदा हुआ कि वे एक लेखक को अलग-अलग विधाओं के वाहक के रूप में बांट कर देखने लगे? क्या यह एक विशुद्ध अकादमिक अभ्यास है या लेखक को वास्तव में समझने की कोई प्रक्रिया? मुक्तिबोध के संदर्भ में ये सारे सवाल पूछने इसलिए जरूरी हो जाते हैं क्योंकि मुक्तिबोध आज जिस भी रूप में हमारे सामने हैं, वह उनके जीते-जी तय किया हुआ या स्वतः स्थापित रूप नहीं है।
हम जानते हैं कि जीते जी मुक्तिबोध की एक भी पुस्तक छप कर नहीं आई थी और उनकी मृत्यु के बाद उनकी पहली किताब का प्रकाशन संभव हो सका। अगर उस दौर को याद करें, तो हम पाते हैं कि हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का डंका बज रहा था और प्रयोगवाद का प्रभाव हर छोटे-बड़े लेखक को अपनी चपेट में लेता जा रहा था। ऐसे में मुक्तिबोध का हिंदी जगत के परिदृश्य पर उभरना एक प्रतिपक्ष का उभार था। आज पचास साल बाद जब हम हिंदी के लेखकों की वैचारिक आस्थाओं और हिंदी लेखन में प्रच्छन्न वैचारिक टकराहटों का जायजा लेते हैं, तो इस बात से इनकार नहीं कर पाते कि अगर मुक्तिबोध न होते तो नेहरूवादी आशावाद के अवसान के दौर में हिंदी लेखन का कोई वैचारिक ‘पोलेमिक’ भी मौजूद नहीं होता। पोलेमिक न होने की अवस्था में हिंदी का लेखन एक सड़े हुए तालाब जैसा बन जाता, द्वंद्व नदारद रहता और नई प्रेरणाओं का घोर अभाव हो जाता।
इस लिहाज से इक्कीसवीं सदी के वर्ष 2016 की तुलना यदि मुक्तिबोध के निधन के वर्ष से की जाए, तो पचास वर्ष पहले के मुकाबले आज हम कहीं ज्यादा अभागे दिखाई देंगे। हमारे पास आज कोई मुक्तिबोध नहीं है जो समय की स्थापित अज्ञेयवादी धाराओं के खिलाफ एक प्रतिपक्ष रच सके। इसके कई कारण हो सकते हैं और उन पर बात भी की जा सकती है, लेकिन प्रतिपक्ष की तलाश या पोलेमिक की गढ़न से जुड़ी किसी भी कवायद में उपस्थित संकट आज भी वही है जो कल था। यह बात अलग है कि बीते कल में इसे संकट के रूप में पहचाना ही नहीं जा सका था- बल्कि इसके उलट यह कह सकते हैं कि एक आसन्न संकट को जानबूझ कर पोसा गया जिसके कारण अलहदा हो सकते हैं- और जब तक इस संकट की पहचान हुई, तब तक मुक्तिबोध कवि के रूप में स्थापित किए जा चुके थे!
सवाल यह है कि क्या स्थापित साहित्यिक मुख्यधारा के प्रचलित प्रभुत्ववादी फॉर्म के हिसाब से ही प्रतिपक्ष का भी फॉर्म स्थापित होना चाहिए, जैसा कि साठ और सत्तर के दशक में किया गया? इसके जवाब में एक और सवाल बनता है कि अगर मुक्तिबोध को स्थापित करने वाले समकालीन लेखकों ने उनके कथाकार रूप को स्थापित करने में सारी ऊर्जा लगा दी होती, तो हिंदी कविता में (या कहें हिंदी साहित्य में ‘तीसरी परंपरा की खोज’) पोलेमिक का क्या होता? तब तो अज्ञेय के बाद हिंदी कविता का सारा विकास ही रुक जाता गोकि रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल, असद जैदी, इब्बार रब्बी, नरेश मेहता, धूमिल, आलोक धन्वा, वेणुगोपाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल आदि से लगायत अस्सी के दशक और लॉग नाइंटीज़ (यह प्रयोग कुछ साल पहले कलकत्ता से निकलने वाली यशस्वी पत्रिका ‘वागर्थ’ में मदन कश्यप ने खुद को और अपने मित्रों को स्थापित करने के उद्देश्य से किया था, जो विमर्श के अभाव में चलन का हिस्सा नहीं बन सका) में उभरे महत्वपूर्ण कवियों का कुल समुच्चय दरअसल उसी स्वर का प्रतिनिधित्व करता दिखता है जो मुक्तिबोध का मूल स्वर था।
जाति की सलीब पर कवि को टाँगे जाने के विरुद्ध: दिवाकर मुक्तिबोध से एक संक्षिप्त संवाद
मुक्तिबोध का कहानीकार होना या कहें कि अपने कवि के मुकाबले थोड़ा कम कहानीकार होना उनके निधन के बाद की कई प्रवृत्तियों और प्रचलनों की पड़ताल की मांग करता है। जिस दौर में वे कहानियां और कविताएं एक साथ लिख रहे थे, उस दौर के तमाम प्रगतिशील लेखकों की तरह वे भी हिंदी साहित्य में छायावाद के अवसानपूर्ण गौरव की तलछट का ही हिस्सा बने रहे। साठ के उत्तरार्द्ध और सत्तर के दशक के आरंभ में जब उनकी कहानियों पर पर्याप्त चर्चा होनी चाहिए थी, उस वक्त तक नई कहानी की तिकड़ी (कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव) का वर्चस्व इतना गहरा हो चुका था कि उन्हें कविता के खेमे में डालकर अज्ञेय के बरक्स खड़ा करने के अलावा शायद कोई और विकल्प भी नहीं बचता रहा होगा। एक लिहाज से यह ठीक भी हुआ क्योंकि उनके बाद कोई ऐसा कवि नहीं रहा जिसे अगले पांच दशक तक पैदा हुए तमाम महत्वपूर्ण कवि उद्धृत करने के योग्य समझते रहे हों। इस पूरी प्रक्रिया में हालांकि मुक्तिबोध का कथा साहित्य वास्तव में एक ‘‘कैजुअल्टी’’ बन गया, जिस पर श्रीकांत वर्मा जैसे कुछ लोगों को छोड़कर किसी ने कभी गंभीर बात नहीं की। बड़ी आसानी से कह दिया गया कि मुक्तिबोध की कहानी और कविता में कोई फर्क नहीं है, उनकी कविता चलते-चलते डायरी बन जाती है और कहानी चलते-चलते समीक्षा। उनकी लंबी कविताएं एक लंबे उपन्यास के जैसी हैं और उनके समूचे साहित्य में दरअसल खुद मुक्तिबोध ही अपनी एक अनुकृति के साथ निरंतर संवाद करते नजर आते हैं। इतना सरलीकरण हिंदी साहित्य में शायद ही किसी कथाकार का हुआ हो, जितना मुक्तिबोध के साथ किया गया। इसकी बुनियादी वजह यही थी कि उनकी कहानियों को उनकी कविताओं के चश्मे से देखा गया। इसका सबसे बड़ा गुनाह आलोचकों के सिर जाता है जिन्होंने अपनी सुविधा के हिसाब से उनकी कहानियों की समीक्षा करते वक्त प्रवृत्तियों को पुष्ट करने वाले उद्धरण तक उनकी कविताओं से दिए।
यह कथाकार मुक्तिबोध के साथ वास्तव में किया गया एक अन्याय था, लेकिन जैसा कि मुक्तिबोध खुद मानते हैं कि कविता हो चाहे कहानी या कोई अन्य विधा, हरेक में लेखक का विश्वबोध और उसकी विश्वदृष्टि ही परिलक्षित होती है। फर्क शैली का हो सकता है, शब्द और अर्थ के द्वंद्व का हो सकता है, इस क्रम में उपजे साहित्यिक ‘फ्रॉड’ का अनुपात अलग-अलग बेशक हो सकता है। इस साहित्यिक ‘फ्रॉड’ के आईने में मुक्तिबोध के रचना-संसार को देखें तो एक बात तयशुदा तौर पर कह सकते हैं कि उनकी कहानियां उनकी कविताओं के मुकाबले कम ‘फ्रॉड’ रचती हैं। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि उनकी कहानियां उनकी कविताओं की चूंकि व्याख्या हैं, इसलिए कविता में अभिव्यक्ति को शब्दों की सही केंचुल पहनाने में अक्षम रहा कवि अपनी उसी बात को कहने के लिए कहानी का सहारा लेता है। कमोबेश यह प्रवृत्ति हर उस लेखक में दिखती है जिसकी अभिव्यक्ति का दर्द दुर्निवार हो, जैसे खुद अज्ञेय। यह संयोग नहीं है कि अज्ञेय ‘सांप’ के नाम से एक कहानी भी लिखते हैं और एक कविता भी। जो बात ‘सांप’ कविता में खुल नहीं पाती, वह एक स्वप्न के माध्यम से ‘सांप’ कहानी में प्याज की परतों की तरह खुलती जाती है।
ठीक वैसे ही मुक्तिबोध का रचना संसार है। उनकी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ और कहानी ‘ब्रह्राक्षस का शिष्य’ को एक साथ मिलाकर पढ़ें। उनकी कहानी और कविता ‘अंधेरे में’ को मिलाकर पढ़ें। ‘सतह से उठता आदमी’ नामक कहानी पर बनी फिल्म को देखें, तो ऐसा लगता है गोया एक लंबी कविता आंखों के सामने दृश्यमान हो उठी हो। इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि उनका कविता और कथा संसार एक-दूसरे का पर्याय है, बल्कि केवल इतना कि कवि मुक्तिबोध को अपनी कविता की व्याख्या के लिए किसी आलोचक या समीक्षक की दरकार नहीं है। मुक्तिबोध के रचना-संसार में कवि ही समीक्षक और आलोचक है। यह समीक्षा पात्रों के साथ बुनी जाती है तो कहानी की शक्ल ले लेती है और तीसरे पक्ष के तौर पर लिखी जाती है तो समीक्षा की शक्ल ले लेती है। यह ज्यादा प्रामाणिक तब होती है जब वे इसे डायरी के रूप में लिखते हैं। बहुत महीन रेखा है मुक्तिबोध की इन तमाम विधाओं के बीच, लेकिन उस विभाजक तत्व को पकड़ पाना ही साहित्यिक ‘फ्रॉड’ से लेखक को दूर ले जाना है और उसकी व्यक्तिगत ईमानदारी को उसकी रचना की कसौटी पर कसना है।
यह काम मुक्तिबोध के निधन के पांच दशक बाद भी अधूरा पड़ा हुआ है। इस अर्थ में उन्हीं का एक पात्र उठाकर कहें, तो मुक्तिबोध ‘विपात्र’ के उस केंद्रीय पात्र बॉस के जैसे नजर आते हैं जिसके पास बैठते तो सब हैं लेकिन अपने मोह की सच्ची वजह नहीं जान पाते और बीच-बीच में उकता भी जाते हैं। रसगुल्ले के लोभ में बॉस का दरबार छोड़ने की इच्छा को दबा जाना मुक्तिबोध की कविता पढ़ने जैसा कृत्य है, जबकि बॉस के दरबार में हो रही बौद्धिक परिचर्चा से ऊब पैदा होना मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ने जैसा काम है। ऐसा नहीं हो सकता कि आप रसगुल्ला खाकर चल दें। रसगुल्ला खाने के लिए चर्चा का हिस्सा बनना ही पड़ेगा। तर्ज ये कि मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए उनकी कहानियों को पढ़ने के सिवा कोई और चारा नहीं है।
‘विपात्र’ के बहाने
‘विपात्र’ मुक्तिबोध की शायद सबसे लंबी कहानी है- तकरीबन एक लघु उपन्यास जितनी लंबी। मुक्तिबोध की कहानियों से उलट इस कहानी में ढेर सारे पात्र हैं। आम तौर से मुक्तिबोध की कहानियों में दो पात्र दिखते हैं और ‘कहानी’ उनके संवाद से बुनती चली जाती है (सुविधा के लिए इस वाक्य को हम इसी रूप में लेंगे गोकि पात्रों के परस्पर संवाद से कोई ‘कहानी’- प्रचलित अर्थों में- वास्तव में बुनती है या नहीं, यह अपने आप में अन्वेषण का विषय है)। ‘अंधेरे में’ शीर्षक की कहानी में तो केवल एक पात्र है। ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ में भी दो पात्र हैं हालांकि एक अपनी उपस्थिति के लिहाज से तकरीबन अप्रासंगिक है। ‘पक्षी और दीमक’ में जिसे ‘कहानी’ कहा जा सकता है, वह कहानी के भीतर का एक अवांतर प्रसंग है जिसमें एक भी पात्र मौजूद नहीं है। ‘क्लॉड ईथरली’ में कहने को तो दो पात्र हैं, लेकिन दोनों इतने असम्पृक्त हैं कि कहानी के अर्थ में एक सवाल बचा रह जाता है कि इसका केंद्रीय पात्र कौन था- पाठक क्लॉड ईथरली के बारे में सोचता रह जाता है गोया वही असली पात्र हो और बाकी दोनों को भूल जाता है। इस शिल्प और संरचना के चलते मुक्तिबोध कहानी के प्रचलित फ्रेम को तोड़ते हैं। कहानी में कोई ‘कहानी’ है भी या नहीं, इस पर हम बाद में आएंगे लेकिन क्या कहानी को ‘कहानी’ बनाने वाले पात्र वास्तव में इसी जगत के हैं, यह अपने आप में बुनियादी आशंका है।
यही वजह है कि अपनी सुविधा के लिए अगर हम ‘विपात्र’ को मुक्तिबोध को प्रतिनिधि कहानी के तौर पर मानकर चलें, तो कुछ समस्याएं हल हो जाती हैं और बाकी कहानियों के पात्रों की निशानदेही भी आसान हो जाती है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस कहानी में कई पात्रों के बरअक्स एक ‘विपात्र’ है- विधा केंद्र का बॉस जिसके यहां रोज शाम मजमा लगता है। ‘विपात्र’ यानी विशेष पात्र। यह विशेष पात्र सूर्य की तरह है जिसके इर्द-गिर्द नक्षत्रों के जैसे दूसरे पात्र मंडराते हैं। इनका मंडराना रात के धुंधलके में साफ दिखता है जबकि दिन के उजाले में ये गुम रहते हैं। यह बात अलग है कि दोनों के बीच ऐसा अन्योन्याश्रित संबंध है कि दिन के उजाले में सूर्य और नक्षत्रों के बीच की अंतर्क्रिया पाठक की आंखों के सामने नहीं आ पाती। ‘विपात्र’ के सूत्रधार के शब्दों में कहें तो देवकीनंदन खत्री के गढ़े किसी तिलिस्म जैसी यह दुनिया है जो दिन ढलते ही अंगड़ाई लेती और रात के अंधेरे में पूरी तरह जवान होती है। अंधेरा प्लॉट के लिए अनिवार्य है क्योंकि दृश्य में सूर्य को ही चमकना है। बाकी सभी मोहावृत्त हैं या कुंठित। सबकी कुंठाएं अलग-अलग हैं, लेकिन बॉस के प्रकाश के समक्ष सबकी प्रतिक्रिया तकरीबन एक जैसी है। यह केंद्रीय सत्ता और परिधि के बीच का ऐसा रिश्ता है जहां जो कुछ घट रहा है, उसका तर्क घटना के पहले ही गायब हो जा रहा है। कार्य-कारण संबंध को खोजना बॉस की महफिल में मुश्किल है। विडंबना देखिए कि सभी पात्र किसी अनजाने गुरुत्व के आकर्षण में फंसे पड़े हैं जबकि विमर्श के विषय गुरुत्व से मुक्त होकर इधर से उधर उछल रहे हैं। ‘सब्जेक्ट’ और ‘ऑब्जेक्ट’ के बीच पैदा हुआ यह ‘डिसकनेक्ट’ ऊब पैदा करता है। यहां रागात्मकता को खोजना संभव नहीं है, बल्कि एक किस्म की जुगुप्सा बेशक महसूस होती है। यही जुगुप्सा हमारे समाज की संचालक ताकत है। इस जुगुप्सा से पैदा हुआ मनुष्य अनिवार्यतः आहत होता है।
मुक्तिबोध लिखते हैंः
आहतों का भी अपना एक अहंकार होता है जिसे मैं खूब पहचानता था और वह अहंकार बहुत दृढ़ होता है। वह उस मुण्ड-हीन कबंध के समान है जो पराजय के बावजूद रणक्षेत्र में खून के फव्वारे छोड़ता हुआ लड़ता रहता है। उसमें मात्र आवेग और गति होती है जो कि सिर न होने के सबब शून्य में चारों ओर तलवार चलाता रहता है। क्या जगत वैसा है? मेरे खयाल से वह ऐसा भी हो सकता है, नहीं भी हो सकता है।
विपात्र, मुक्तिबोध
लेखक यहां सर्वांतेस के दॉं कियोते (डॉन क्विझोट) से अपना संदर्भ ले रहा है। यहां उसने अपनी ‘आहत’ संगत की पड़ताल के बहाने दरअसल बॉस के पास बैठने वाले सभी विविध पात्रों को ‘होमोजिनाइज’ कर डाला है। यह एकरूपता सामाजिक श्रेणी की पहचान का सबसे बढ़िया स्रोत है। आज से पचास साल पहले जिस सामाजिक तबके की ओर दॉं कियोते का पात्र इशारा कर रहा था, आज वह मध्यवर्ग इस देश का नियंता बना बैठा है। सत्ता, समाज, राजनीति और विमर्श के हर क्षेत्र पर ऐसे ‘आहत’ मध्यवर्ग का कब्जा है जो केवल एक आंख से- ‘सफलता की आंख’ से- पूरी दुनिया को देखता है। ‘पूनों की चांदनी’ (कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं, मुक्तिबोध) जैसी अब है, वैसी साठ के दशक में न थी। संयोग नहीं है कि मुक्तिबोध के पांच दशक बाद भारत के बौद्धिक विमर्श में प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाज़ अरुंधती रॉय जब अंग्रेज़ी में ‘‘दि ब्रोकेन रिपब्लिक’ लिखती हैं, तो हिंदी में उसका अनूदित संस्करण ‘‘आहत देश’ के नाम से आता है।
आश्चर्य होता है कि मुक्तिबोध आज से पचास साल पहले अपना सारा साहित्य अपनी ‘आहत’ संगत के नाम लिख रहे थे! उनकी मध्यवर्गीय संगत उनकी कहानियों का मूल स्रोत थी और वे खुद इसकी गवाही देते थे। ‘जिंदगी की कतरन’ में वे लिखते हैंः
मध्यवर्गीय समाज की सांवली गहराइयों की रूंधी हवा की गंध से मैं इस तरह वाकिफ हूं जैसे मल्लाह समंदर की नमकीन हवा से।
कह सकते हैं कि वह संगत दरअसल खुद लेखक की प्रतिच्छवियां थीं जो अलग-अलग रूपों में उसके साहित्य में अभिव्यक्त होती रही हैं। इन आहत पात्रों को दी गई ‘एबीलॉर्ड’ (विपात्र) की संज्ञा आज सोचने को मजबूर करती है कि हिंदी में एक कथाकार ऐसा भी था जो पचास साल आगे की तस्वीर को साफ-साफ देख पा रहा था।
‘एबीलॉर्ड’ बनते एक समाज में
मुक्तिबोध के बाद शायद कोई भी ऐसा कथाकार नहीं रहा जिसने अपना साहित्य मध्यवर्ग की पड़ताल करने में खपाया हो। जो हिंदुस्तान आज हमारी आंखों के सामने है, वह मध्यवर्ग का, मध्यवर्ग के लिए और मध्यवर्ग द्वारा संचालित एक स्पेस है। यहां मूल्य आहत हैं, नैतिकताएं आहत हैं, संस्कार आहत हैं, विचार आहत हैं। यही वह मध्यवर्ग है जिसने अपने आहत गर्व को बहाल करने के नाम पर एक ऐसा समाज रच डाला है जहां असहमति की गुंजाइश दिन-ब-दिन खत्म होती गई है और विचारों की बहुवचनीयता (अशोक वाजपेयी के शब्दों में) का तकरीबन अंत हो चुका है। एक केंद्रीय सत्ता है और उसी प्रकृति की तमाम छोटी-छोटी स्वयंभू सत्ताएं हैं। यहां सत्ताओं के टकराव का दौर खत्म हो चुका है। परिधि पर जो पात्र बैठे हैं, उन्हें अपनी उकताहट का अहसास नहीं होने दिया जा रहा क्योंकि उनके आचार, विचार और व्यवहार को केंद्रीय सत्ता ने अनुकूलित कर लिया है। हाशिये से कभी कोई असहमति की आवाज आती है तो उसे राष्ट्रीय गौरव के नाम पर छलनी कर दिया जाता है। मध्यवर्ग पहले सामाजिक न्याय और संवैधानिकता का एक बफर था, अब वह उत्पीड़न और अन्याय का औजार बन चुका है। एबीलॉर्ड नंगे घूम रहे हैं और अपने वर्चुअल वीर्य का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। मुक्तिबोध अभी होते तो क्या लिखते?
‘क्लॉड ईथरली’ में वे एक काम की बात कहते हैंः
जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान कर के उससे छुट्टी पा लेता है वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज जो लगातार सुनता है और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज विरोधी तत्वों में शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन कर के हमेशा बेचैन रहा करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में सन्त हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।
बस आखिरी पंक्ति को थोड़ा सा दुरुस्त किए जाने की जरूरत है क्योंकि पागलखाना अब समकालीन समाज में कोई विशिष्टता या विचलन का बोध नहीं कराता चूंकि विवेक का अभाव सर्वव्याप्त है। कार्य और कारण के बीच संबंध विच्छेद हो चुका है। पहले ‘रेशनल’ लोग घर से भाग जाया करते थे (स्वदेश दीपक) या दिमागी बुखार से मर जाते थे (राजकमल चौधरी, शैलेश मटियानी, गोरख पांडे, इत्यादि)। अब ‘रेशनल’ लेखकों को गोली मारी जा रही है (एमएम कलबुर्गी और नरेंद्र दाभोलकर)। समाज को एकरस बनाने की यह एक सुनियोजित साजिश है। जो पागल नहीं है, वह मारा जाएगा। पूरा समाज ही पागलखाना है। पागलखाने में असहमति मौत को न्योता है।
मुक्तिबोध के कथाकार को यह बात समझाने के लिए कविता का सहारा लेना पड़ता हैः
मुझको डर लगता है,
कहने दो उन्हें जो यह कहते है’, मुक्तिबोध
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।
उनको डर लगता है
आशंका होती है
कि हम भी जब हुए भूत
घुग्घू या सियार बने
तो अभी तक यही व्यक्ति
जिंदा क्यों?
उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर
जीवित क्यों रहती है?
मरकर जब भूत बने
उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए
तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर
सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।
यह जो डर है, इसकी बुनियाद में लेखक का सफलता की चंद्रछाया के साथ ‘सनातन विरोध’ है। सत्ता और समाज को विरोध की जरूरत नहीं है। विरोध से सफलता की कसौटियों पर सवाल उठने लगता है। इसलिए पहले ‘कोऑप्ट’ करने की महीन या स्पष्ट कोशिशें होती हैं, उसके बाद मार दिया जाता है।
बेशक मुक्तिबोध अपने समय से बहुत आगे की कहानियां लिख रहे थे। आज के वक्त में वे लिख नहीं पाते। उनके पास एक साथी जगत था (विपात्र) जिससे उनका संवाद संभव था। एक अजनबी था जिससे संवाद संभव था। ये सारे संवाद आत्मालाप भी कहे जा सकते हैं, लेकिन उनका पात्रों में मानवीकरण क्या एक ऐसे समाज में संभव हो पाता जहां समानधर्मा और समान विवेक वाला कोई शख्स मौजूद न हो? बेर्टोल्ट ब्रेष्ट कहते हैं, ‘‘क्या अंधेरे में भी गीत गाए जाएंगे? हां, अंधेरे के बारे में गीत गाए जाएंगे’’। आज पूछा जाए कि क्या पागलखाने में भी गीत गाए जाएंगे, तो ब्रेष्ट के पास इसका जवाब नहीं होगा।
संकट केवल विवेक के लोप का नहीं है। रेशनलिटी के लोप के बाद संवेदन बचा रह जाता है। संवेदन दुनिया को बचा सकता है। रचना को प्राण दे सकता है। यहां संकट दुतरफा है। विवेक का लोप संवेदना के ऊर्ध्वमूल होने के साथ घट रहा है। मसलन, किसी के घर में शादी है और पैसे नहीं हैं क्योंकि केंद्रीय सत्ता ने रातोरात एक ऐसा तुगलकी फरमान जारी किया है जिसके चलते पुराने नोट बंद हो गए हैं। अब यह स्थिति संवेदन के योग्य उपयुक्त है। विवेक के अभाव में भी इस स्थिति में सब्जेक्ट से सहानुभूति स्वाभाविक है। यदि ऐसी स्थिति में सत्ता ठहाका लगाती है और उसके पीछे समाज ताली पीटता है, तो यह भयावह है। यह मुक्तिबोध का अंधेरा नहीं है जहां रात के प्रोसेशन में डोमा उस्ताद के पीछे-पीछे समाज का समूचा प्रबुद्ध वर्ग चल पड़ा हो। यह योगेंद्र आहूजा की ‘अंधेरे में हंसी’ है। अंधेरे में सत्य के खिलाफ प्रोसेशन निकाला जाना और अंधेरे में सत्य को हंसी में उड़ा देना, दोनों में फर्क है। बुनियादी फर्क।
हैना अरेंड को यहां उद्धृत करना उपयुक्त होगाः
तथ्यात्मक सत्य को स्थानापन्न कर के झूठ की निरंतर और संपूर्ण स्थापना करने का परिणाम यह नहीं होता कि अब झूठ को अब सत्य की तरह स्वीकार कर लिया जाएगा और झूठ की तरह सत्य बदनाम हो जाएगा, बल्कि एक वास्तविक जगत में हम जिस बोध के साथ चीजों को ग्रहण करते हैं- और सत्य बनाम झूठ की वह श्रेणी है जिसमें फर्क बरतने के रास्ते मानसिक रूप से हम इस साध्य तक पहुंच पाते हैं- उसे नष्ट किया जा रहा है।
यह सत्य और असत्य के बीच का बोध खत्म करने की एक ऐसी कवायद है जहां खुद अपनी अभिव्यक्ति की सत्यता का अहसास सब्जेक्ट को नहीं हो पाता। परिणाम यह होता है कि अभिव्यक्ति अस्वाभाविक हो जाती है और संवेदन नदारद। ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ अभिव्यक्ति की तलाश का परिणाम था। जब अभिव्यक्ति ही विकृत हो जाए, तो वह एक मिथ्या आभास को गढ़ती है जहां संवेदना वास्तविक जगत की अनुभूतियों से कट जाती है। पागलपन और क्रूरता का यहां सम्मिश्रण हो जाता है। ऑक्सफर्ड शब्दकोश इस स्थिति को 2016 में ‘पोस्ट ट्रुथ’ का नाम देता है। उत्तर-सत्य। उत्तर-सत्य न सत्य है न असत्य। यह सत्याभास भी नहीं है। सत्य का आभास समाप्त हो चुका है क्योंकि सत्य की जगह असत्य को लाकर खड़ा कर दिया गया है और इस बात का आभास होने की गुंजाइश भी समाप्त कर दी गई है। उत्तर-सत्य अपने स्वभाव में हिंसक ही है, लेकिन इसकी हिंसा प्रच्छन्न है। मनोवैज्ञानिक है। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में जिस मनोवैज्ञानिक हिंसा की कल्पना कर रहे थे, वह इक्कीसवीं सदी में एक हकीकत है।
यही वजह है कि जिस मध्यवर्ग को मिश्रा ने (विपात्र में) एबीलॉर्ड का नाम दिया था, उसे अपनी नग्नता और जननेंद्रिय के कटने का अहसास नहीं है। एक दौर था जब मिथ्या गौरव से आहत होकर अपनी शुचिता को बचाने के लिए उसने अपनी जननेंद्रिय काट दी थी। आज उसे यह स्थिति स्वाभाविक लग रही है क्योंकि वह सत्ता के मनोवैज्ञानिक औजारों से अनुकूलित हो चुका है। यह साठ के दशक से काफी आगे की स्थिति है लेकिन मुक्तिबोध अपने वक्त में इसकी छायाएं देख पा रहे थे। मुक्तिबोध की कहानियों में ‘एबीलॉर्ड’ पात्रों की खोज की जानी चाहिए। उन पात्रों की पड़ताल से हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि एक समाज धीरे-धीरे ऐसी स्थिति तक कैसे पहुंच जाता है जहां उसे नोटबंदी व नसबंदी के बीच का फर्क दिखना बंद हो जाता है और दोनों से उपजी विवेकहीनता व संवेदनहीनता को वह राष्ट्रीय गौरव के नाम पर वह सहर्ष जज्ब कर लेता है।
एक समूचे समाज का एबीलॉर्ड हो जाना, अपनी पीड़ा पर गौरव का मुलम्मा चढ़ाकर हंसते जाना, एक देश के पागलखाना बन जाने की गवाही है। मुक्तिबोध के पागलखाने में कैद क्लॉड ईथरली क्या समकालीन पागलखाने के साथ नैतिक रूप से सामंजस्य बैठा पाएगा? क्या पागलों की नैतिकता में भी फर्क होता है? यह सवाल जाहिर है मुक्तिबोध के समय से बहुत आगे का है, जिस पर शायद आज वे होते तो थोड़ा सोच पाते। अफसोस की बात है कि उनकी विश्लेषणात्मक विरासत की छाप हमें समकालीन लेखकों में नहीं मिलती कि उनसे इस बदलते हुए समाज का मूल्यांकन करने की हम कोई उम्मीद पाल सकते।
नैतिकता और निस्पृहता
मुक्तिबोध के कथा-साहित्य को खंगालने के बहुत से आयाम हो सकते हैं। एक जरूरी आयाम हालांकि उनकी कहानियों में पात्रों व संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त नैतिकता का है। नैतिकता मुक्तिबोध के लिए बहुत ज्यादा मायने रखती थी, लेकिन वह परंपरागत नैतिक आचार से बिलकुल अलहदा स्थापित फ्रेम को तोड़ने वाली नैतिकता थी जिसमें लेखक का पात्र अपनी नैतिक जवाबदेही को लेकर मोहावृत्त नहीं होता, बल्कि निस्पृह बना रहता है। यह एक दुर्लभ उपलब्धि है। हम आज के समाज पर निगाह डालें तो नैतिक और ईमानदार होने के एकाधिक दावे और उदाहरण हमें दिखायी देंगे जो आगे चलकर अश्लील हो गए। आज के समाज में नैतिक होना उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना ऐसा होने का दावा करना। नैतिकता प्रभुत्व कायम करने का एक राजनीतिक औजार बनती गई है जिसके माध्यम से उसके दावेदारों द्वारा लगातार एक ‘प्रिविलेज’ की स्थिति हासिल करने के प्रयास देखे गए हैं। जैसे कि पूरा समाज मोटे तौर से अनैतिक या नैतिकता के संकट से ग्रस्त हो और अकेले नैतिकता का स्वयंभू दावेदार ही विशिष्ट हो। इस प्रवृत्ति ने नैतिकता, ईमानदारी, विनम्रता जैसे स्वाभाविक इंसानी गुणों को प्रहसन का विषय बना डाला है। इन शब्दों के अर्थ समय के साथ बदल दिए गए हैं।
मुक्तिबोध के पात्र यदि मध्यवर्गीय थे, तो उनकी चिंता भी मूलतः मध्यवर्गीय नैतिकता के संकट से जुड़ी थी। इस संकट का कोई एक समाधान तलाशने की लेखक को जल्दी नहीं थी, बजाय इसके वह पात्रों की जीवन-स्थितियों के माध्यम से प्रॉब्लम पोज़ करता था। सवाल को जटिल बनाना, उसकी परतें उघाड़ना और अंत में छील-छाल कर एक सही सवाल पूछ देने की काबिलियत रखना- यह समीक्षक मुक्तिबोध का परिचय है। उनका समीक्षक कहानियों में बार-बार दिखता है। वे पात्रों समेत सूत्रधार की भी समीक्षा करते चलते हैं। ‘सतह से उठता आदमी’ के अंत में कृष्णस्वरूप को विदा करने जब कन्हैया नीचे पहुंचता है, ‘‘तब न मालूम क्यों उसने गटर में थूक दिया? क्यों? पता नहीं।’’ गटर में थूकने का बिंब एक ऐसा निर्णायक सवाल है जो समूची कहानी पर दोबारा सोचने को मजबूर करता है। रामनारायण और कृष्णस्वरूप की परस्पर प्रतिस्पर्धी मध्यवर्गीय नैतिकताओं के बीच टकराव का जवाब कन्हैया के पास नहीं है। वह कृष्णस्वरूप के सवाल पर शून्य में देखता है और आगे कहता है, ‘‘मेरे खयाल से तुम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो।’’ यह वाक्य बराबर अधिकार से ‘विपात्र’ के सभी नक्षत्र पात्रों पर लागू हो सकता है। मध्यवर्गीय नैतिकता यहां कई पहलुओं वाले एक सिक्के के रूप में हमें दिखती है। उसका हर पहलू दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में है। लेखक इनके बीच परस्पर द्वंद्व को खंगालने की कोशिश करता है और उसमें दुर्लभ ईमान को खोजता फिरता है। ‘एक दाखिल दफ्तर सांझ’ में वर्मा के माध्यम से इसी की तलाश करते हुए अंततः दोनों पात्र यन्त्रवत् पान का बीड़ा उठाकर अपने अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वे दोनों उस घुमटी के पास निस्तब्ध अपने-अपने अंतर्जीवन में लीन और भूत की मानिंद अकेले-से खड़े रहे।’’
नैतिकता के संकट से जूझते हुए मनुष्य का अंतर्लीन होकर ‘भूत’ बन जाना एक भयावह कल्पना है। मुक्तिबोध का समूचा साहित्य इसी कल्पना से भरा पड़ा है। बार-बार मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में भूत आते हैं। भूतों के बीच नैतिकता का कोई द्वंद्व नहीं होता। इसीलिए ‘भूत का उपचार’ में वे लिखते हैं, ‘‘मुझे लगा कि मेरा पात्र अब मेरे पीछे पड़ गया है कि वह ऐसा भूत है जो मेरा पिण्ड नहीं छोड़ेगा।’’ एक और जगह वे लिखते हैं कि मनुष्य बाहर तभी देखेगा जब बाह्य से उसका कोई विरोध होगा। वे अपने सामने मनुष्यों का विरोध खत्म होता देख रहे हैं। मनुष्यों को भूत बनता देख रहे हैं जो अपने स्वभाव में निर्द्वंद्व होते हैं। वे एक मनुष्य के इस स्थिति तक आने की पड़ताल तो करते हैं, लेकिन उससे पिण्ड भी छुड़ाना चाहते हैं क्योंकिः ‘‘मुझको डर लगता है/मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे/घुग्घू या सियार या/भूत नहीं कहीं बन जाऊँ।”
मुक्तिबोध ने अपने को मारकर कविता को जिला लिया- हम लोगों तक पहुंचाने के लिए!
मुक्तिबोध एक निर्द्वंद्व दुनिया नहीं चाहते। वैज्ञानिक समाजवाद में उनकी घोर आस्था है। उनके जीते जी मध्यवर्गीय नैतिकता जिस संकट को झेल रही थी, आज उसकी प्रकृति बुनियादी रूप से बदल चुकी है। मुक्तिबोध के जीवनकाल में नैतिकता का संकट सामूहिक या सामाजिक नहीं था, लेकिन आज के जगत में पूंजीवाद खुद इस संकट में फंस चुका है। स्लावोज जिजेक के शब्दों में कहें, तो उसकी वजह यह है कि लोकतंत्र और पूंजीवाद का संबंध-विच्छेद हो चुका है। पूंजीवाद को अब अपने संचालन के लिए लोकतंत्र की जरूरत नहीं रह गई है। चूंकि लोकतंत्र अप्रासंगिक है, तो लोकतांत्रिक समाज के मूल्य और मान्यताओं पर भी सवाल उठ चुका है। सभ्यता के विकासक्रम में पूंजीवाद ने जिस मध्यवर्ग को पैदा किया है, उसके मूल्य समानांतर तरीके से लेकतंत्र ने ही गढ़े हैं। पूंजीवाद और लोकतंत्र के बीच विच्छेद के चलते मध्यवर्गीय मनुष्य अब मूल्यहीन उपभोक्ता में तब्दील हो चुका है। उसके पास सिर्फ पेट और जुबान है। व्यवस्था को उसके विवेक और वीर्य की जरूरत नहीं रही। यह एक अवांछित स्थिति है जिसकी निशानदेही मुक्तिबोध अपने पात्रों की वैयक्तिक जीवन-स्थितियों के माध्यम से हर कहानी और कविता में कर रहे थे। इसीलिए उन्हें अपना चुना हुआ पात्र कहानी के अंत में भूत बनता जान पड़ रहा था।
कहानी बुनियाद है, कविता शेष आवेग…
‘कवि मुक्तिबोध’ का संकटग्रस्त कहानीकार आज क्यों पुनर्विचार की मांग करता है, यह खुद उन्हीं के शब्दों में जानेंः
कविताएं मैंने आपको इसलिए बतायीं कि जब कहानी लिख न पाया तब उसका भीतर का आवेग मन में बचा रहा। भाव नहीं, कथा तक नहीं, पात्र नहीं, प्रसंग नहीं। मात्र एक उद्वेग, मात्र एक आवेग। जब मैंने ये कविताएं लिखीं तब मुझे समझ में आया कि आवेग कितना ज़ोरदार था। उसे किसी न किसी तरह अपने आप को प्रकट कर के बिलकुल खो देना था। प्रकट करके आपने आपको खो देने वाली यह बात बड़े मारके की है। शायद हर लेखक को इस समस्या का सामना कर के हल खोज लेना पड़ता है। मैं तो क्षणिक उच्छ्वासों की कविता करना ही जुर्म समझता हूं…!
भूत का उपचार
नैतिक संकट का ऐसा निस्पृह समाधान मुक्तिबोध के सिवा और कहां मिलेगा? ध्यान देना होगा कि मुक्तिबोध के यहां कविता लिखने जैसा ‘जुर्म’ करने की बाध्यता शेष आवेग-उद्वेग से पैदा हुई है क्योंकि सारे पात्र भूत बन चुके हैं, सारे प्रसंग एकालाप की शक्ल ले चुके हैं, भावों की मनोभूमि असमाधेय प्रश्नों के धुंधलके में विलीन हो चुकी है और इन सब के बीच कथा का लोप हो चुका है। इस मायने में मुक्तिबोध की कविता, उनकी कहानियों से बच रहे आवेग-उद्वेग का उदात्त रूप है, न कि उनकी कहानियां उनकी कविताओं की व्याख्या- जैसा कि हम पहले मानकर चल रहे थे। मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया में कविता चूंकि कहानी लिख पाने में हासिल विफलता के बाद आती है (जिसका उद्देश्य महज खुद को प्रकट कर के खो देना है), फलस्वरूप मुक्तिबोध के ही लेखे ‘‘साहित्यिक फ्रॉड’’ का अनुपात उनकी कविताओं में उनकी कहानियों के बनिस्बत कहीं ज्यादा है।
रचना-प्रक्रिया में अभिव्यक्ति के इस दोहरे स्तर को समझना मुक्तिबोध के साहित्य को समझने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। शर्त यह है कि शुरुआत मुक्तिबोध की कहानियों से की जाए और उसकी पूंछ पकड़कर उनकी कविताओं तक पहुंचा जाए। आधुनिक हिंदी साहित्य में दशकों से लंबित पड़ा यह महती कार्यभार क्या कोई अपने हाथों में उठाने को तैयार है?
(लेखिका लखनऊ स्थित सेवानिवृत्त लेखिका और शिक्षक हैं। यह परचा 2016 में एक सेमीनार में प्रस्तुत किया गया था और बाद में मुक्तिबोध पर संकलित लेखों की पुस्तक में शामिल किया गया)