यदि आपका वेतन 50 हज़ार मासिक से ज़्यादा है, तो आप भारत के वेतनभोगी समूह के शीर्ष एक फ़ीसदी में शामिल हैं. कार्यबल में शामिल 86 फ़ीसदी पुरुषों और 94 फ़ीसदी महिलाओं की महीने की कमाई 10 हज़ार रुपये से कम है. देश के सभी किसानों की आबादी में 86.2 फ़ीसदी के पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है. इस हिस्से के पास फिर भी फ़सल उगाने वाली कुल ज़मीन का केवल 47.3 फ़ीसदी ही है. आबादी के निचले 60 फ़ीसदी के पास देश की संपत्ति का 4.8 फ़ीसदी हिस्सा है. देश की सबसे ग़रीब 10 फ़ीसदी आबादी 2004 के बाद से लगातार क़र्ज़ में है.
ऐसे तमाम तथ्य यह इंगित करते हैं कि देश की बहुत बड़ी आबादी बहुत सस्ते में अपना श्रम बेचती है और उसकी दशा कमोबेश प्राचीन ग़ुलामों व मध्ययुगीन दासों की तरह है, बल्कि शायद उससे भी बदतर. इसका एक पहलू हम कोरोना संकट के दौरान लोगों को मामूली नगदी बांटना, भविष्य निधि से कर्मचारियों द्वारा पैसे निकालना, अग्रिम वेतन उठाना या क़र्ज़ लेना आदि के रूप में देख सकते हैं. इसी सिलसिले में हम खाना बांटने या लोगों को सरकारों और स्वयंसेवी संगठनों या नागरिकों द्वारा फ़ौरी राहत देने को रख सकते हैं. यह सब यह बताता है कि एक बड़ी कामगार आबादी के पास मामूली बचत भी नहीं है, जिससे वह संकट में दो-चार दिन भी गुज़ारा कर सके. दुनिया भर में भयावह विषमता का साम्राज्य है.
यह कहने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि आज के श्रमिक की दशा ग़ुलामों और दासों से भी बदतर है. ग़ुलाम भाग सकता था, वह मर सकता था, उसे आज़ाद किया जा सकता था- ये छुटकारे की ऐसी सहूलियतें अब नहीं हैं. यह ठीक है कि पूंजीवादी व्यवस्था में कुछ मायनों में चीज़ें बदलीं, सही मेहनताना, आठ घंटे, पेंशन, संगठन बनाना आदि स्थापित हुए, पर वे सब सीमित रहे तथा अब तो वे सब भी वापस ले ली गयी हैं.
मुझे हमेशा से मज़दूरी का गुणगान बुरा लगता है. मज़दूरों के अधिकारों की बात, जो बस काम कर पाने की कुछ बेहतर स्थितियों तक सीमित रही हैं, से चिढ़ होती है. मेरे तईं श्रमिक होना शापित होना है. मज़दूरी बस मज़बूरी ही नहीं, शर्मिंदगी भी है. कल एक बूढ़े धनपशु ने कहा है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए लोग अगले दो-तीन साल 12 घंटे काम करें. वह यह नहीं बताएगा कि क्या काम करें, कहां काम करें, कैसे काम करें. वह यह भी नहीं कहेगा कि सारे धनपशु अभी बेहद मुश्किल दौर में अपनी बेईमान तिजोरियां खोल दें और कहें कि जब हालात बेहतर हो जाएंगे, तो कम मेहनताना और सुविधाएं मिलेंगी. तब लोग शायद जी-जान से मेहनत भी करें.
एक और बात से मुझे एलर्जी है- मज़दूरों से क्रांति या विरोध की उम्मीद करना. ऐसा कभी इतिहास में नहीं हुआ है. उसके लिए या तो क्रांतिकारी मज़दूर की विशेष पृष्ठभूमि होनी चाहिए या फिर उसे अन्य वर्ग से नेतृत्व मिले. ‘बेन-हर’ फ़िल्म (विलियम वाइलर, 1959) में एक दृश्य है. बेन-हर एक ग़ुलाम था, जो जूडिया के एक ग्लेडियटर स्कूल के मालिक द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है. उस दृश्य में स्कूल का मालिक बेन-हर से कहता है कि इस बार रथों की दौड़ में रोमनों को हरा देना है. बेन-हर कहता है, यह मुमकिन नहीं है. मालिक कहता है, मुझे पता है कि यह मुमकिन नहीं है, पर सोचो, यह सोचना ही कितना सुखद है! बेन-हर और स्कूल का मालिक इसलिए ऐसा सोच पा रहे हैं क्योंकि वे रईस पृष्ठभूमि से हैं और वे भूख से और जान बचाने से आगे की सोच सकते हैं.
ग़ुलामों, क्रांति और आज़ादी की बात होती है, तो स्पार्टकस का ज़िक्र सबसे पहले होता है. कार्ल मार्क्स ने उन्हें अपना हीरो मानते हुए प्राचीन इतिहास का सबसे शानदार चरित्र और प्राचीन सर्वहारा का असली प्रतिनिधि कहा है. ‘स्पार्टकस: वेंजिएंस’ टीवी सीरीज़ (स्टीवेन डीनाइट, 2012) में स्पार्टकस का एक संवाद है- ‘मेरे लोगों के साथ जो भी हो, यह इसलिए होगा क्योंकि इसे उन्होंने चुना है. हम अपनी क़िस्मत ख़ुद तय करते हैं, रोमन नहीं, भगवान भी नहीं.’
स्पार्टकस ऐसा इसलिए कह पाते हैं क्योंकि कभी वे अपने इलाक़े में एक आज़ाद इंसान थे और बाद में रोमन सेना में सैनिक बने. बाद में वे ग़ुलाम ज़रूर हुए, पर वह अपने इतिहास से अपने भविष्य की रूपरेखा खींच सकते थे. इसीलिए मैं कहता हूं, मज़दूरों ने ख़ुद को और अपने बच्चों के भविष्य को तबाह कर बहुत सारा अधिशेष पैदा कर दिया, जिसमें फ़ुरसत भी एक है, जिसका आनंद अन्य देशों में उच्च और मध्य वर्ग उठाता रहा है और हमारे देश में उच्च वर्ग (भारत में मध्य वर्ग नहीं है, जिसे मध्य वर्ग कहा जाता है, वह मध्य आय वर्ग या उपभोक्ता वर्ग है.) इन वर्गों को मज़दूरों की मुक्ति के बारे में कुछ करना चाहिए. थके हुए पस्त मज़दूरों से ऐसा नहीं हो सकेगा.
प्रकाश के. रे पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं। यह टिप्पणी उनके ब्लॉग से साभार प्रकाशित है।