अन्नदाता, जागो और देखो, हल की जगह चलाये जा रहे हैं बुल्डोजर!

प्रेम ही आदमी को कवि बनाता है। कवि की ज़रूरत इसलिए होती है कि जब हवाओं में घृणा भरी हो, वह प्रेम का संगीत बाँटता है। वह सुंदरता से प्रेम करना सिखाता है और बताता है, क्या सुंदर है, क्या नहीं।

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‘सीने में फांस की तरह’ फंसी कविताएं

कवि के सीने की फाँस है सेलेब्रिटी बनाम सामान्य मनुष्य। वह कहते हैं- सराहना में/खो जाते सामान्यजन स्वतः/अपने आप। लगभग सभी कविताओं में कवि ऐसे ही विचलित होता है और मानवता के पक्ष में अपनी आवाज उठाता है। ‘आदिवासी’ कविता में निमाड़, मालवा के आदिवासियों का संघर्ष, उनकी बेबसी, उनके दुख, गरीबी और पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। ‘मिथ’ बड़े पृष्ठभूमि की कविता है जिसमें कवि ने अन्तर्विरोधों को रेखांकित किया है।

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किनिर: आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करने वाली नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाती कविता

कविता संग्रह की मूल अंतर्वस्तु ही जंगल को बचाने की है। कविता संग्रह के माध्यम से जंगल गाथा कहने में तनिक हिचकिचाहट नहीं दिखायी देती। ये कविताएं नये भावबोध से लैस हैं। यहां नया भावबोध का तात्पर्य यह भी है कि उनकी कविताएं किसी परंपरागत सौंदर्यशास्त्र के पैमाने के अनुसार न चलकर अपनी स्वयं की जमीन बनायी हैं।

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बसंत पंचमी पर निराला और उनकी कविता की याद…

निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तनिहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हैं। बसंत पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा।

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संक्रमण काल: साहित्य का नया रास्ता

वर्चुअल दुनिया से संबंधित इन कविताओं और अक्कड़-बक्कड़ जैसे पॉडकास्टों व साहित्य और तकनीक के सम्मिश्रण के लिए जारी अनेकानेक कोशिशों से गुजरते हुए आशा बनती है कि पुराने मिजाज का हिंदी साहित्य भी देर-सबेर साहित्य के नए रास्तों को स्वीकार करेगा।

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सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं…

शमशेर में जहां नित-नूतनता है वहीं निरन्तर बढ़ाव या उठान भी। नित-नित परिष्कृत होती उनकी शैली अपने वैशिष्ट्य के चलते एक जीवित मिथक गढ़ती है। शमशेर स्थूल के आग्रही किन्हीं विशेष परिस्थितियों में अपवादवश भले रहे हों, मूलतः सूक्ष्म संवेगों की छटी हुई अनुभूतियों का खाका उनकी कविताओं में विद्यमान है।

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खड़ी बोली काव्य के स्तम्भ पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय

बीसवीं सदी के प्रथम दशक में खड़ी बोली और ब्रज का संघर्ष जोरों पर था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नये विषयों, नई शैली और भाषा योजना द्वारा नवयुग का शंखनाद किया। वे गद्य में तो खड़ी बोली के पक्षपाती थे, परन्तु पद्य रचना में ब्रज माधुरी का मोह छोड़ नहीं सके। एक जगह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, चाहने पर भी उनसे खड़ी बोली में सरस कविता नहीं बनती लेकिन भारतेन्दु युग में श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनूदित रचनाओं द्वारा काव्य रचना के लिए खड़ी बोली का द्वार खोल दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, पं. रामचरित उपाध्याय तथा लोचनप्रसाद पाण्डेय ने उन्हीं का अनुगमन किया।

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कवि होने की सादगी-भरी और संजीदा कोशिश

‘वसंत के हरकारे’ में सभी विधाओं पर आलोचनात्मक लेख, टिप्पणियां और पुस्तक समीक्षा का समायोजन कर एक साथ प्रस्तुत करने का महती दायित्व सुरेंद्र कुशवाह ने गंभीरता से निर्वाह किया है।

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मुक्तिबोध ने अपने को मारकर कविता को जिला लिया- हम लोगों तक पहुंचाने के लिए!

मुक्तिबोध की रचनाएं सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भांति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरों के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यु की तरह अकेले ही जूझते हैं अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है; जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है।

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‘मैं तुमसे और तुम्हीं से बात किया करता हूं’! कवि त्रिलोचन को याद करते हुए…

खुद को कितना बोलने देना है, इस मामले में असंयम बरतने वाले त्रिलोचन, कविता को कितना बोलने देना है, इस मामले में सदैव संयमी रहे। त्रिलोचन जी का वस्तुसत्य व माया और उनकी लंबी बतकही निश्चित ही उनके एक गंभीर नागरिक सोच का जीवंत प्रमाण है।

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