‘मैं तुमसे और तुम्हीं से बात किया करता हूं’! कवि त्रिलोचन को याद करते हुए…


शब्दों के सामर्थ्य पर अटल विश्वास रखने वाले कवि त्रिलोचन अपनी कविता से स्वयं क्या अपेक्षा करते हैं यह भी ध्यातव्य है। आज जब सामान्य नागरिक और सहज पाठक की रुचि से समकालीन कविता कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही है तब त्रिलोचन जैसा बड़ा कवि अपने काव्यसृजन के प्रति किस तरह सजग है यह देखने लायक है –

यह तो सदा कामना थी, इस तरह लिखूँ / जिन पर लिखूँ वही यों अपने स्वर में बोलें 
परिचित जन पहचान सकें, फिर भले ही दिखूँ / अपनापन देखने में विफल।

क्या यह करारा व्यंग्य नहीं है उन कवियों पर जो आलोचकों को साधने के लिए कविताएं लिख रहे हैं? यहां तक कि स्वयं त्रिलोचन जी से प्रभावित उनके प्रशंसक कवि भी, कविता को सामान्य पाठक के प्रभावित-अप्रभावित होने से निरपेक्ष ही मानते हैं। लेकिन त्रिलोचन जी स्वयं शब्दों से क्या आशय ग्रहण करते हैं यह काव्यसंग्रह ‘शब्द’ की इन कविता पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है।

शब्दों से ही वर्ण गंध का काम लिया है/ मैंने शब्दों को असहाय नहीं पाया है / कभी किसी क्षण पद् चिन्हों को देखा ताका/ मुझे देखकर सबने मेरा नाम लिया है / बता दिया क्या वस्तुसत्य है, क्या माया है।

उन्होंने गीत, सॉनेट, ग़ज़ल, बरवै, रुबाई, काव्य-नाटक, प्रबंध कविता, कुंडलियां, मुक्त छंद, चतुष्पदी इत्यादि छंदों में अपने व्यापक अनुभव को शब्दबद्ध किया। सॉनेट उनका प्रिय छंद है। उन्हें हिंदी सॉनेट (चतुष्पदी) का साधक माना जाता है। वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के जन्मदाता थे। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेटों की रचना की। तब हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था लेकिन त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: स्पेंसर, मिल्टन और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं।

सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किये गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया। त्रिलोचन शास्त्री का समूचा साहित्य ही मानवीय संवेदना से आद्यन्त आपूरित है। उनकी संवेदना के दायरे में मानव मात्र ही नहीं अपितु इस सृष्टि की समस्त जड़चेतन सत्ता समायी है। इस सृष्टि के जीवजन्तु, वनस्पतियाँ आदि सभी कवि के सहयात्री हैं। स्वयं कवि के शब्दों में- “इस पृथिवी की रक्षा मानव का अपना कर्तव्य है / इसकी वनस्पतियां चिड़िया और जीव-जन्तु / उसके सहभागी हैं।”

अपनी धरती की सोंधी गंध से गहरे जुड़े त्रिलोचन की कविता लोक जीवन से सीधा साक्षात्कार करती है। यहां प्रखर लोक चेतना, कवि की कविता का सशक्त पक्ष है। कवि की कविता में देशीपन है, गाँव का खाटी संस्कार। लोक संवेदना, लोक संस्कृति, लोक परंपराओं, लोक ध्वनियों, बोलियों को कवि की कविता शब्दबद्ध करती है। कवि एक बातचीत में इस तथ्य को स्वीकार करता है कि – उसने कविता लोक से सीखी है, पुस्तक से नहीं। ‘लोक’ समकालीन कवियों की कविताओं में अपनी समग्र प्राणवत्ता, जीवंतता के साथ उपस्थित हुआ है। त्रिलोचन की कविता में लोक का समूचा परिदृश्य उभरा है। कवि की कविता के महत्वपूर्ण पात्र भोरई केवट, नगई महरा, चंपा, चित्रा, परमानंद आदि सीधे-सीधे लोक से ही लिए गए हैं। त्रिलोचन का गाँव से गहरा रिश्ता है। उनकी कविता में लोक जीवन के उनके अनुभव, स्मृतियाँ दिखायी देती हैं-

घमा गए थे हम
फिर नंगे पाँव भी जले थे
मगर गया पसीना, जी भर बैठे जुड़ाए
लोटा-डोर फाँसकर जल काढ़ा
पिया
भले चंगे हुए
हवा ने जब तब वस्त्र उड़ाए।

भारतीय किसान की निश्छल, भोली-भाली दुनिया कवि की वास्तविक दुनिया है। भारतीय किसानों की मानसिकता, उनके मनोविज्ञान की बड़ी सूक्ष्म पकड़ कवि को है-

वह उदासीन बिल्कुल अपने से,
अपने समाज से है, दुनिया को सपने से अलग नहीं मानता
उसे कुछ भी नहीं पता दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची, अब समाज में
वे विचार रह गए वहीं हैं जिनको ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।

त्रिलोचन के लेखन में ग्राम्य-जीवन की महत्वपूर्ण भूमिका है। समूचा ग्रामीण परिवेश उनकी कविताओं में मूर्त होता है। उनकी प्रकृति गाँव की सहज प्रकृति है जिसमें खेत, खलिहान, मटर, गेहूँ, जौ, सरसों, जलकुंभी, पुरइन, पीपल, पाकड़, कटहल, नीम, बादल, हवा, चाँदनी, दुपहरिया, संध्या और रात अपने मोहक सौंदर्य के साथ उपस्थित होता है। इस प्रकृति के साथ कवि का गहरा रिश्ता है। ‘हवा’ कवि को बहुत प्रिय है। हवा कवि को मुक्ति का सुख देती है। इसका वर्णन कवि की कविता में बार-बार हुआ है। ऋतुओं में बसंत और शरद कवि को अत्यंत प्रिय है। सावन ऋतु का भी बड़ा सुंदर वर्णन कवि की कविता में देखा जा सकता है। ऐसे वर्णन में कवि का संगीत-ज्ञान भी स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ है-

बरखा मेघ-मृदंग थाप पर
लहरों से देती है जी भर
रिमझिम-रिमझिम नृत्य-ताल पर
पवन अथिर आए
दादुर, मोर, पपीहे बोले, धरती ने सोंधे स्वर खोले
मौन समीर तरंगित हो ले।

डॉ. सुभाष चन्द्र पाण्डेय के अनुसार ‘वस्तुतः कविता सामाजिक समस्याओं का अविकल अनुवाद नहीं हुआ करती, न ही हो सकती है। कविता में कवि की कल्पना का अपना अलग महत्व हुआ करता है। कवि की यह कल्पना भी यथार्थ से सर्वथा असम्पृक्त हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह यथार्थ की ही विधायिका होती है। कविता जीवन के कटुसत्यों के प्रति स्वीकृति और उसके समाधान के नये मार्गों का अन्वेषण भी किया करती है। कवि त्रिलोचन की कविता यथार्थ का जितना सचित्र चित्रांकन करती है उतना ही सामाजिक समस्याओं को समाधान भी प्रस्तुत करती है। मनुष्य की अस्मिता को, उसके स्वत्व को अक्षत रखते हुए उसे रचनात्मक कार्यों के प्रति प्रेरित करती है। प्रेरणा ऐसी की व्यक्ति संवेदना एवं ज्ञान का विशिष्ट एवं मंजुल समन्वय बनाए रख सके क्योंकि व्यक्ति संवेदनाविहीन होकर यन्त्र बन जाएगा और ज्ञानविहीन होकर निर्धारित जीवन लक्ष्यों से वंचित रह जायेगा। इन्हीं अर्थो में त्रिलोचन की कविता ज्ञानात्मक संवेदना एवं संवेदनात्मक ज्ञान का अद्भुत साक्ष्य प्रस्तुत करती है।

प्रगतिशील हिन्दी कविता के मध्य त्रिलोचन की स्थिति अन्य कवियों से थोड़ा हट कर है जहां लोग समाज के दीन-हीन व्यक्ति से अपना केवल रचनात्मक सम्बंध बनाए रखना पसंद करते हैं वहीं त्रिलोचन समाज के अन्तिम उपेक्षित सदस्य के साथ भी अपना आत्मीय संम्बध रखते हैं और यही त्रिलोचन की कविता है- ‘‘मैं तुम से, तुम्हीं से बात किया करता हूँ /और यह बात मेरी कविता है।’‘ ‘शरद’ का नीला आकाश कवि को बहुत प्रिय है। उसे वे ‘सबका अपना आकाश’ कहते हैं। प्रकृति के बहाने यह कवि अपनी अनुभूति का विस्तार करता है। प्रकृति के लोक पारखी घाघ, कवि गिरिधर कविराय की ध्वनियों को भी कवि की कविताओं में देखा जा सकता है। मौसम, फसल की प्रामाणिक जानकारी कवि की कविताओं को पढ़ते हुए हमें प्राप्त होती है। त्रिलोचन ने अपनी कविताओं में अपने को बड़े बेबाक ढंग से अभिव्यक्त किया है।

इस दृष्टि से इनके ‘उस जनपद का कवि हूँ’ तथा ‘ताप के ताये हुए दिना’ संग्रह की कविताएँ महत्वपूर्ण हैं। त्रिलोचन प्रेम के कवि हैं, लेकिन उनका प्रेम गृहस्थ की नैतिक एवं स्वस्थ भावभूमि पर खड़ा है। वे प्रकृति के कवि हैं, प्राकृतिक अनुभूतियों के कवि हैं-

कुछ सुनती हो
कुछ गुनती हो
यह पवन आज यों बार-बार
खींचता तुम्हारा आँचल है
जैसे जब-तब छोटा देवर
तुमसे हठ करता है जैसे।

अपने नाम, रूप, वेशभूषा, आत्मविश्वास, आस्था, आशावादिता, मस्ती, फक्कड़ता, दीनता, संघर्ष, अभावग्रस्त जीवन, चाल-ढाल-स्वभाव सब कुछ उनको कवि अपनी कविता में शब्द देता है। संघर्ष, अभावग्रस्त जीवन, चाल-ढाल-स्वभाव सब कुछ उनको कवि अपनी कविता में शब्द देता है। कवि की तटस्थता यह है कि अपने ऊपर भी वह व्यंग्य करता है। बड़े सहज ढंग से अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए अपनी वास्तविक तस्वीर खींचता है। कवि की विनम्रता है कि वह किसी प्रकार के छद्म में न रहकर अपने को कवि भी नहीं मानता है-

कवि है नहीं त्रिलोचन अपना सुख-दुःख गाता
रोता है वह, केवल अपना सुख-दुःख गाना
और इसी से इस दुनिया में कवि कहलाना
देखा नहीं गया।

उनके विषय में डॉ. केदारनाथ सिंह का कहना है:

त्रिलोचन एक खास अर्थ में आधुनिक हैं और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। दरअसल वे आज की हिन्दी-कविता में उस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आधुनिकता के सारे शोर-शराबे के बीच हिन्दी भाषा और हिन्दी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सींचती हुई चुपचाप बहती रही है। असल में त्रिलोचन की कविता जानी-पहचानी समकालीन कविता के समानान्तर एक प्रतिकविता की हैसियत रखती है और इसलिए इस बात की मांग भी करती है कि उसका मूल्यांकन करते समय आधुनिक कविता के प्रचलित मान-मूल्यों को लागू करने की जल्दबाजी न की जाय। ये कविताएं पाठक से और उससे भी ज्यादा आलोचक से, एक सीधे और मुक्त संबंध की अपेक्षा रखती हैं क्योंकि इनका मूल्य कहीं बाहर नहीं, इन्हीं के भीतर है, जैसे लोहे की धार लोहे के भीतर होती है।

“जो जन, त्रिलोचन के व्यक्तित्व को सीधा, सरल और पारदर्शी मानते हैं वे निश्चित ही उनके वैशिष्ट्य को नहीं जानते। तुलसीदास का ‘मानस रूपक’ पढ़ा है आपने? उस सरोवर के जल-तल तक पहुंचना जितना कठिन है उतना ही कठिन है कवि व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य को पहचानना। दाल भात नहीं है कि लपेटा और लील लिया।” (वशिष्ठ, जनपक्ष-6)

त्रिलोचनजी के साथ-संग का थोड़ा भी मौका जिन्हें मिला, उन सबका सामान्य अनुभव यही रहा कि उनसे किसी भी विषय पर बात कीजिए वे विषय से हमेशा बहुत दूर चले जाते थे। उन्हें किसी भी विषय में घेरना मुश्किल था पर उनकी कविता की ताकत थी कि वह उन्हें घेर सकती थी। भाषा की जड़ें खोजना और शब्दों की व्युत्पत्ति में उलझना उनका प्रिय व्यसन था। अरबी, फारसी, उर्दू और संस्कृत आदि भाषाओं में उनकी समान गति थी, लेकिन उनकी कविता उनके लिए ऐसी जगह होती थी जहां जीवन की जड़ें खोजने और जीवन की जड़ें रोपने में वे इतनी तल्लीनता से प्रवृत्त होते थे कि भाषा वाला अपना प्रिय खेल खेलना उन्हें बिसर जाता था। बल्कि तब किसी शब्द का निरा शब्द बने रहना भी उन्हें अखरने लगता था।

खुद को कितना बोलने देना है, इस मामले में असंयम बरतने वाले त्रिलोचन, कविता को कितना बोलने देना है, इस मामले में सदैव संयमी रहे (राजेंद्र सागर, जनसत्ता)। बहरहाल, त्रिलोचन जी का वस्तुसत्य व माया और उनकी लंबी बतकही निश्चित ही उनके एक गंभीर नागरिक सोच का जीवंत प्रमाण है।


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