प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल से ज्यादा बड़ा है पत्रकारिता के वजूद का संकट!

प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।

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आप न्यूज़ चैनल क्यों देखते हैं?

आप ये सोचिए कि क्या तमाम न्यूज़ चैनल देखने के बावजूद आपको ये बुनियादी जानकारी थी कि लॉकडाउन के दौरान क्या-क्या खुला रहेगा? ट्रेन कब चलेंगी? एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने के नियम क्या हैं? क्या ये बातें आपको न्यूज़ चैनलों के द्वारा बतायी गयी थीं या आपने बड़ी मुश्किलों से ये जानकारी खुद जुटायी और फिर भी कंफ्यूज़ रहे?

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क्या भारत का जनतंत्र फ़ेसबुक-ग्रस्त हो चुका है?

एक विशालकाय कम्पनी की सक्रियताओं को जानने के लिए जांच जरूरी ही है, लेकिन हमें लिबरल जनतंत्र के भविष्य के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए, जिसकी तरफ प्रोफेसर डीबर्ट ने इशारा किया है।

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फेक न्यूज़: जिसे लोगों ने सच समझ लिया और आग लग गयी…

हाल ही में यूएई सरकार ने कोरोना को लेकर फेक न्यूज़ फैलाने वाले लोगों पर शिकंजा कसते हुए आदेश दिया कि अगर कोई ऐसी भड़काऊ खबर फैलाता है, तो उसको 4 लाख का जुर्माना भरना होगा। वहीं कई अन्य देशों में जुर्माने के साथ कुछ साल की सजा भी निर्धारित की गयी है।

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पत्रकारिता के दारा सिंहों! मदारी को खारिज कर दो, अब भी वक्त है!

दाराओं की फितरत है अपने आकाओं के लिए हत्याएं करना, बच्चों को जलाना, औरतों की हत्याओं का जश्न मनाना। मानवता का माखौल उड़ाना। “दारा” पूरे समाज को दारा बनाने के सपने देखता है लेकिन ये उसका दु:स्वप्न है। हम उन्हें विचारों से परास्त करेंगे।

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