बूढ़े होते एक राष्ट्र का लोकतांत्रिक अल्जाइमर

वर्तमान में प्रधानमंत्री को ‘सुप्रीम लीडर’ मानता मीडिया, हर एक आंदोलन को भूलती जनता, विरोध के कर्तव्य को इतिश्री कह चुका विपक्ष, चुनाव पूर्व वादों को भूलती सरकारें और प्राकृतिक न्याय की अवधारणा से विचलित न्यायपालिका इस रोग से पूर्णत: ग्रसित हैं।

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बात बोलेगी: जो संस्थागत है वही शरणागत है!

शादी-ब्याह या किसी सामुदायिक आयोजन में किसे जाना है, किसे बुलाना है, कितनों को बुलाना है जैसे मसले कभी इन संस्थाओं के अधीन नहीं रहे, लेकिन कोरोना महामारी के बहाने राजकीय संस्थागत प्रभावों से मुक्त इस नितांत अनौपचारिक कहे जाने वाले कार्य-व्यवहार को संस्थागत राजनैतिक ढांचे में ला दिया है।

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खुद में अलोकतांत्रिक मीडिया कैसे कर सकता है लोकतंत्र की रक्षा?

‘लोगों के लिए’ होने की पहली शर्त है ‘लोगों के द्वारा’ होना। किसी भी संस्था को अपने स्वरूप में लोकतांत्रिक होने के लिए उसमें हर एक वर्ग, जाति, समुदाय की …

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बात बोलेगी: जो जीता वही सिकंदर, जो हारा वो जंतर-मंतर!

अगर बाहर यानी सदन के अलावा कहीं भी ठीक यही सुरक्षा, संरक्षण, मर्यादा व सभ्यता नहीं है तो सदन पर भी इसका प्रत्यक्ष प्रभाव होगा। सदन को मिली विशिष्टता उसे सुरक्षा देने में कभी भी चूक जाएगी।

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बढ़ता हुआ एकाधिकार लोकतांत्रिक सुधार नहीं, सत्ता के वर्चस्व को स्थायी बनाने का नुस्खा है!

वी डेम की रिपोर्ट में भारत पिछले वर्ष की तुलना में सात स्थानों की गिरावट के साथ कुल 180 देशों में 97वें स्थान पर है। ‘’ऑटोक्रेटाइजेशन टर्न्स वायरल’’ शीर्षक रिपोर्ट में यह संस्थान भारत को थर्ड वेव ऑफ ऑटोक्रेटाइजेशन के अंतर्गत आने वाले देशों में शामिल करता है।

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अगले 13 दिन में हो नेपाल की संसद बहाल! सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से ओली सरकार को झटका

मुख्‍य न्‍यायाधीश न्‍यायमूर्ति चोलेंद्र शमशेर ने फैसला सुनाते हुए कहा कि यह मुद्दा अपनी प्र‍कृति में राजनीतिक है लेकिन संविधान को कायम रखने के मद्देनजर अदालत को इस पर संज्ञान लेना पड़ा।

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बात बोलेगी: काया की कराह और निज़ामे मुल्क की आह के मद्देनज़र एक तक़रीर…

आपने या किसी ने भी कभी साँप के पैर देखने की कोई चेष्टा की? नहीं की होगी। आप कह देंगे कि पैर देखने जाएंगे तो वो डस लेगा। यानी आप इस डर से उसके पैर देखने की कोशिश नहीं करते हैं और बेसबब उसके बारे में बेवफाई के दर्द भरे नगमे गाने लगते हैं। अन्तर्मन से पूछिए कि क्या आपका ये रवैया ठीक है?

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म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के खिलाफ़ और लोकतंत्र के लिए जुट रहा वैश्विक समर्थन

सैन्य शक्तियां म्यांमार में एक लम्बे अरसे से वैश्विक मानवाधिकार पटल कर खरे नहीं उतरी हैं. सैन्य तख्तापलट के बाद भी सेना, मानवाधिकार उल्लंघन जारी रखे हुए है और सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जनजाति और अन्य समुदाय, धार्मिक समुदाय आदि की लोकतंत्र के लिए उठती आवाजें दबा रही है.

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बात बोलेगी: त्रेता और द्वापर के लोकतांत्रिक कड़ाहे में लीला और मर्यादा का ‘डिस्ट्रक्टिव’ पकवान

हमारी संसद दो महान मिथकीय युगों के पहियों पर टिका ऐसा रथ है जिस पर जबरन लोकतंत्र को सवार कर दिया गया है। यह अनायास नहीं है कि त्रेता और द्वापर के बीच ग्रेगरि‍यन कैलेंडर से लयबद्ध आधुनिक लोकतंत्र कहीं लुप्त हो रहा है। हिंदुस्तान का मानस इसी त्रेता और द्वापर में कहीं अटक गया है। गलती उसकी नहीं है, उसे इस रथ पर यही मर्यादा और लीला दिखलायी दे रही है। वो उसी को देखकर जी रहा है।

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बात बोलेगी: हर शाख पे उल्लू बैठे हैं लेकिन बर्बाद गुलिस्ताँ का सबब तो कोई और हैं…

ये खोज जब तक पूरी नहीं होगी तब तक बेचारे शाख पर बैठे उल्लुओं को ही ‘हर हुए और किए’ का दोषी माना जाएगा। बड़ी चुनौती- शुरू कहाँ से करें? घर से? पड़ोस से? गाँव से? समाज से? प्रांत से या देश से? क्योंकि गुलिस्ताँ का मतलब अब भी काफी व्यापक था।

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