हिन्दी अखबारों में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ का संविधान-विरोधी और किसान-विरोधी चेहरा

आज के संपादकीय, संपादकीय पेज (यह हिन्दी का पहला अखबार है जहां इसके मालिक संजय गुप्ता संपादक की हैसियत से हर रविवार को कॉलम लिखते हैं) और ऑप-एड पेज ‘विमर्श’ पर छपे लेखों को देखें। वहां से जातिवाद की दुर्गंध भभका मारकर बाहर निकल रही है।

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हाथरस पर दलित समाज के नेताओं की दबी जुबान चौंकाने वाली है

दलित समाज के लोग दलित राजनेताओं को सामाजिक न्याय की लडाई को बुलंद करने के लिए वोट देते हैं। इस घटना पर दलित समाज से आने वाले नेताओं का मद्धम स्वर निश्चित तौर पर चकित करता है। उन्हें जिस तरह से पीडिता और परिवार को न्याय दिलाने की पैरोकारी करनी चाहिए थी, अभी तक वह दिखाई नहीं दी है।

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मनु को इतिहास तक सीमित करने का सवाल बनाम मनुस्मृति को ‘सैनिटाइज़’ करने के षडयंत्र

मनु को इतिहास तक सीमित करने का सवाल निश्चित ही व्यापक उत्पीड़ित समुदायों के लिए ही नहीं बल्कि अमन और इन्साफ के हर हिमायती के लिए बेहद जरूरी और मौजूं सवाल लग सकता है, लेकिन जिस तरह यह समाज ‘राजनीतिक बुराइयों से कम और स्वतःदंडित, स्वतःस्वीकृत या स्वतःनिर्मित और टाले जाने योग्य बुराइयों से कहीं अधिक परेशान रहता है उसे देखते हुए इस लक्ष्य की तरफ बढ़ने के लिए हमें कैसे दुर्धर्ष संघर्षों के रास्ते से गुजरना पड़ेगा, इसके लिए आज से तैयारी जरूरी है।

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