आंबेडकर गाँधी से जब पहली बार मिलते हैं तो उनके बीच अछूतों के संघर्ष और वास्तविक प्रतिनिधि को लेकर बहस होती है। यह समय 1931 के आसपास का था। गाँधी ने आंबेडकर से कहा उन्होंने सामाजिक सुधार के लिए बहुत कुछ किया है। आंबेडकर गाँधी सहित कांग्रेस की अछूतों के प्रति सहानुभूति को महज एक औपचारिकता भर मानते हैं। इस बहस में आंबेडकर आगे कहते हैं कि “गाँधी जी, हमारा कोई वतन नहीं है”। गाँधी ने उत्तर दिया, ‘मैं जानता हूँ आप कृत्रिमता से दूर एक सच्चे आदमी हैं’। आंबेडकर ने पुन: कहा, ‘मैं इस वतन को अपना वतन कैसे कहूं और इस धर्म को को अपना धर्म कैसे कहूं जहां हम लोगों की हैसियत कुत्ते-बिल्लियों से अधिक नहीं है, हमें पीने को पानी भी मयस्सर नहीं है’।
आंबेडकर और गाँधी के इस संवाद का केन्द्रीय बिंदु सदियों से दलितों (अछूत) से हो रहे जाति आधारित भेदभाद और प्रताड़ना को लिए हुए है। आंबेडकर इस जाति आधारित भेदभाव और प्रताड़ना का आधार हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और इससे संबंधित धार्मिक मिथकीय, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को मानते थे। सदियों से चली आ रही ‘जाति प्रथा के प्रचलन और संरक्षण की क्रियाविधि’ का अनुभव आंबेडकर को सबसे पहले सतारा के एक स्कूल में होता है, जहां उनको स्कूल में अन्य सभी बच्चों से अलग बैठाया गया। जब उन्होंने संस्कृत पढ़ना चाहा तो उनको संस्कृत पढ़ने से मना कर दिया गया और कहा गया कि यह अछूतों के लिए नहीं है। अछूत केवल अंग्रेजी और फारसी विषय ही पढ़ सकते हैं। यहीं से आंबेडकर की जातिगत भेदभाव संबंधी ज्ञानमीमांसा का प्रमुखता से विकास होना आरम्भ हो जाता है। इस प्रकार के जातिगत भेदभाव और प्रताड़ना के अनुभवों ने आंबेडकर को मनोवैज्ञानिक रूप से इसके खिलाफ़ संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया जिसकी परिणिति यह हुई कि दलितों के हितों के लिए जाति आधारित भेदभाव के विरुद्ध जीवनपर्यन्त उन्होंने संघर्ष किया।
इसी तरह से बड़ौदा राज्य में नौकरी के दौरान आंबेडकर को एक पारसी के मकान में अपनी पहचान छुपाकर इसलिए रहना पड़ा था क्योंकि वह अछूत थे। अछूतों को कोई किराये पर मकान नहीं देता था। यहां तक कि ऑफिस में उच्च जाति के क्लर्क और अन्य सहकर्मी उनके साथ अभद्रता से पेश आते थे। वे आंबेडकर से भौतिक दूरी बनाकर रखते थे और कागजात, दस्तावेजों को उनकी मेज पर फेंक दिया करते थे ताकि भौतिक रूप से उनके सम्पर्क में आने से बचा जा सके। एक बार जब आंबेडकर ने ऑफिसर्स के क्लब या अन्य समारोहों में शामिल होना चाहा तो उनको दूर रहने को कहा गया। उन्हें इस तरह के समारोहों में भागीदारी करने से रोका जाता था। इस तरह से आंबेडकर या दलित/अछूत समाज के लिए छुआछूत एवं सामाजिक बहिष्करण एक सामान्य दैनिक क्रिया बन चुका था जिसे समाज में शाश्वत रूप से सामाजिक स्तरीकरण के निम्नजातीय कर्तव्य के रूप में वैधता प्राप्त थी। जीवन के विभिन्न स्तरों पर किए गये भेदभाव के वीभत्स अनुभवों ने आंबेडकर को संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। छुआछूत और इसके पोषण के सामाजिक-धार्मिक पक्ष आंबेडकर की अंतरात्मा को हमेशा झकझोरते रहते थे जिसे दूर करना उन्होंने अपने जीवन का मकसद बना लिया।
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भारतीय समाज में व्याप्त असमानता के कटु अनुभवों ने आंबेडकर को इसके खिलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरित किया, जिसके लिए सैद्धांतिक, वैचारिक समझ का विकास आंबेडकर को पाश्चात्य शिक्षा एवं विचारकों से प्राप्त होता है। जॉन डेवी, आर. ए. सेलिग्मन, ब्रुकर टी. वाशिंगटन और टॉमस पेन के समतामूलक विचारों से वे खासतौर पर प्रभावित थे। समाज में व्याप्त असमानता के ख़िलाफ़ संघर्षों में आंबेडकर पाश्चात्य ज्ञान, विज्ञान एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों का इस्तेमाल जाति आधारित भेदभावजनित व्यवस्था के विरुद्ध करते हैं जिसकी एक बानगी के रूप में महाड़ आन्दोलन को देखा जा सकता है जहां पर आंबेडकर फ़्रांसीसी क्रांति के सामाजिक समानता के मूल्यों का जिक्र करते हुए अपने समुदाय के लोगों में ‘विवेकीकरण’ की क्षमता का विकास और साहस पैदा करते हैं। आंबेडकर का संघर्ष कभी अपनी व्यक्तिगत पहचान और हितों तक सीमित नहीं था बल्कि सदियों से पिछड़े एवं दलितों जैसे वंचित तबके के लिए था।
गेल ओमवेट के अनुसार आंबेडकर समानता की लड़ाई के लिए दो रास्ते अपनाते हैं- एक शिक्षा, दूसरा राजनीतिक भागीदारी या प्रतिभागिता। वह शिक्षा के माध्यम से लोगों में जागरूकता प्रसार करना चाहते थे क्योंकि उनके अनुसार आधुनिक शिक्षा प्राप्त करके और शासकीय महत्व के पदों पर काबिज होकर ही समानता की लड़ाई लड़ी जा सकती है। वहीँ दूसरी ओर राजनीतिक रास्ता भी अख्तियार करते हैं। उनके अनुसार सामाजिक बदलाव का रास्ता भी राजनीतिक रास्ते से ही होकर जाता है इसलिए समय-समय पर अलग-अलग राजनीतिक संगठन बनाकर वे आवाज को उठाते रहते थे। ऐसा इसलिए करते थे जिससे उनकी लड़ाई कभी कमजोर न हो। बहिष्कृत हितकारिणी सभा, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, अनुसूचित जाति फेडरेशन, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया जैसे संगठनों के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आंबेडकर हाशिये के तबके की आवाज को राष्ट्रीय राजनीति एवं ब्रिटिश सत्ता के समक्ष मुखरता के उठाते रहे।
आंबेडकर सामाजिक असमानता के ख़िलाफ़ हमेशा मुखर रहते थे। जहां कहीं भी उनको अवसर मिलता था वह इस मुद्दे को उठाते थे। संविधान सभा में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को लेकर आंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक लोकतंत्र से पहले सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता है। वह कहते हैं, ‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं रह सकता है जब तक कि उसका आधार सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ जीवन के उस मार्ग से है जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व को सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है। इन तीनों में से किसी एक को दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल प्रयोजन को ही विफल कर देना है…। आंबेडकर इस बात को बखूबी समझते थे कि असमानता से भरे भारतीय समाज में सत्ता तक पहुँच/प्रभुत्व उन्हीं समुदायों की होगी जिनके पास एक ख़ास तरह की हैसियत/पावर है, जिसका निर्धारण लोगों की सामाजिक स्थिति से होता है और सामाजिक स्थिति जातिगत श्रेणीक्रम से सुनिश्चित होती है।
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आज के संदर्भ में हम यदि आंबेडकर के अनुभवों और संघर्षों को समझें तो अभी भी वंचित तबके के साथ जाति के आधार पर भेदभाव और हिंसा की जाती है। आजादी के 70 साल बाद एवं संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने के बावजूद हाशिये के तबके के साथ भेदभाव की घटनाएं होती रहती हैं। इस तरह के भेदभाव हर क्षेत्र में- शिक्षण संस्थानों, कार्यस्थलों, प्रशासनिक कार्यप्रणालियों, सामाजिक सांस्कृतिक कर्मकांडों में अलग-अलग रूपों में किए जा रहे हैं। कुछ दिन पहले की खबर है कि हरियाणा के किसी गाँव में कक्षा 10वीं के दलित छात्र के अंक अधिक आने पर ऊँची जाति के छात्र ने उससे लड़ाई की। इतना ही नहीं, उच्च जाति के लड़के के परिवारवालों ने दबाव बनाकर स्कूल से दलित छात्र का नाम भी कटवा दिया, हालाँकि दलित बच्चे के परिवार द्वारा प्रशासन से शिकायत की गयी और कोर्ट के आदेश पर दलित छात्र को परीक्षा पुलिस की सुरक्षा में दिलवायी गयी।
कुछ ऐसी ही घटना उत्तराखंड के एक स्कूल में पिछले साल हुई जहां पर दलित महिला द्वारा मिड-डे मील बनाये जाने पर उच्च जाति के बच्चों ने खाने से इन्कार कर दिया। अमेठी के सरकारी स्कूल में अनूसूचित जाति के बच्चों को मिड-डे मील अलग मिलता था, बच्चों के शिकायत करने पर स्कूल की प्रधानाध्यापिका उनकी पिटाई भी करती थी। जाति का दंभ भारतीय समाज में इस कदर हावी रहता है कि शादी समारोह जैसी गतिविधियाँ भी इसके आड़े आती हैं जिसका आधार हिन्दू वर्णवादी व्यवस्था है जिसका विरोध आंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाकर किया था। जाति की सड़ी हुई बजबजाती व्यवस्था ही यह सुनिश्चित करती है कि किस जाति का दूल्हा घोड़ी पर बैठेगा और किस जाति का नहीं। मध्यप्रदेश के छतरपुर में एक शादी समारोह में दूल्हे को घोड़ी पर बैठकर जाने से इसलिए रोक दिया गया क्योंकि दूल्हा अनूसूचित जाति था जबकि दूल्हा खुद पुलिस आरक्षी है। परिवार की शिकायत पर पुलिस की मौजूदगी में बारात निकाली गयी।
इन घटनाओं के अलावा समाज में सामाजिक भेदभाव से सम्बन्धित घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि आंबेडकर ने जिन कटु अनुभवों से टकराते हुए वंचित तबके की लड़ाई शुरू की थी वो आज भी चल रही है। 1931 के आसपास आंबेडकर ने गाँधी से संवाद करते हुए अपने समुदाय को लेकर जिस प्रकार की पहचान एवं सामाजिक दमन का जिक्र करते हुए चिंता जताई थी वो अब भी बनी हुई है, बेशक उसकी प्रकृति एवं स्वरूप बदल गया है। जिन लोकतान्त्रिक मूल्यों के आधार पर आंबेडकर समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे वह आज भी अधूरा है। आंबेडकर संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से असमानता से जुड़ें हुए सामाजिक दमन, आर्थिक, राजनीतिक प्रभुत्व को समाप्त करके समतावादी समाज की स्थापित करना चाहते थे जो अभी बाक़ी है।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में शोधार्थी हैं