आज़ाद भारत में दलित सशक्तिकरण के तीसरे चरण की शुरुआत

भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।

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कांग्रेस के संकटकालीन अध्यक्ष की वैचारिक व रणनीतिक चुनौतियां

नवनिर्वाचित अध्यक्ष खड़गे के लिए आने वाला समय बहुत चुनौतीपूर्ण है। सबसे बड़ी चुनौती तो कांग्रेस के उस वैचारिक आधार को पुनर्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित करने की है जो अहिंसक संघर्ष, सेवा, सहयोग, समावेशन और बहुलताओं की स्वीकृति जैसी विशेषताओं से युक्त है। बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के वर्तमान फासीवादी उभार का मुकाबला असंभव है।

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धर्मनिर्पेक्षता: किसी समाज के सभ्य और विकसित होने की पूर्व-शर्त

भारत में भी जो विकास नजर आ रहा है वह उसके संविधान के धर्मनिर्पेक्ष होने का नतीजा है। अगर हमने धर्मनिर्पेक्षता को छोड़ दिया या उसकी रक्षा नहीं की तो भारत को पाकिस्तान बनने में देर नहीं लगेगी।

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अडानी-अंबानी के बीच मजदूरों के ‘अवैध शिकार’ पर समझौते की जड़ें औद्योगिक क्रांति तक जाती हैं

नो पोचिंग अनुबंध के अनुसार अम्बानी समूह के 3 लाख 80 हजार कर्मचारी अब अडानी समूह में नौकरी नहीं कर पाएंगे। अडानी समूह के 23 हजार कर्मचारी भी अम्बानी समूह की किसी कम्पनी में कम नहीं कर सकेंगे। अब इन दोनों कंपनियों द्वारा आपस में मजदूरों का अवैध शिकार नहीं किया जाएगा। तो क्या मान लिया जाय कि मजदूरों का शिकार दोनों कंपनियां तो करेंगी, लेकिन वैध तरीके से? यह शिकार का वैध तरीका मजदूरों की उन्नति का मार्ग बंद कर देगा।

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चुनावी पॉलिटिक्स की असाध्य वीणा को यात्रा से साधने की एक कोशिश

भविष्य राहुल गांधी का ही मगर इसके लिए राहुल गांधी को एक लकीर खींचनी पड़ेगी। यह लकीर तब तक नहीं खींच सकते जब तक कांग्रेस के वेटरन चाटुकारों की सरपरस्ती से राहुल खुद को निकाल कर अपनी एक अलग इमेज नहीं बना लेते। यह भारत जोड़ो यात्रा दरअसल राहुल की इमेज बनाने की कवायद ही है।

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तराजू और तलवार साथ रखने की अर्थनीति

सरकार को चाहिए कि उद्योगपतियों को प्रोत्साहन दे, न कि अमर्यादित सहायता, अन्यथा क्रॉनी कैपिटलिज्‍म (याराना पूंजीवाद) नाम का राक्षस सत्ता को निगल जाएगा। यह पूंजीवाद स्वतंत्र मीडिया, निष्पक्ष न्यायपालिका, मूर्ख और कम पढ़े लिखे की सत्ता में भागीदारी, सभी को लील लेगा क्योंकि याराना पूंजीवाद कभी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता है और न ही वह किसी कानून को मानता है।

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गुजरात में किसी को कोई शिकायत नहीं है या नागरिक अधिकार ही खत्म कर दिए गए हैं?

गुजरात की राजधानी गांधीनगर के धरना स्थल सत्याग्रह छावनी गया तो वहां भी खुफिया विभाग के लोगों ने बिना अनुमति नहीं बैठने दिया। सत्याग्रह छावनी में कुछ गरीब लोगों की झुग्गियां पड़ी हुई हैं व कुछ खाने पीने के ठेले लगे हुए थे, लेकिन धरना एक भी नहीं चल रहा था। इसके दो ही मतलब हो सकते हैं।

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इस्लामोफोबिया और हिन्दूफोबिया: शेखचिल्ली के सपनों से निकले दो डर

आज के दौर में न तो गजवा-ए-हिंद और न ही अखण्ड भारत मुमकिन है। जो लोग इस तरह के ख्वाब में डूबे रहना चाहते हैं उनको डूबे रहने दो, लेकिन बाक़ी जो विवेकशील लोग हैं और जो हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते हैं उनके लिए ऐसी नामुमकिन बातों पर सोचना अपना समय बर्बाद करना है।

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लोकतंत्र में चीते की वापसी का राजसी उत्सव

मीडिया और सरकारी प्रचार तंत्र के बड़े-बड़े दावों से एकदम अलग प्रोजेक्ट चीता की कामयाबी के लिए निर्धारित मापदंड यह दर्शाते हैं कि सरकार स्वयं बहुत ज्यादा आशान्वित नहीं है। प्रोजेक्ट को सफल मानने के लिए निर्धारित लक्ष्यों में लाये गये चीतों में से 50 प्रतिशत का जीवित रहना, इन चीतों द्वारा कुनो-पालपुर को अपना घरेलू क्षेत्र बनाया जाना, इन चीतों का वन में प्रजनन करना, उत्पन्न शावकों का एक वर्ष से अधिक अवधि तक जीवित रहना तथा एफ1 पीढ़ी का कामयाबी से प्रजनन करना आदि सम्मिलित हैं।

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समरकंद में प्रधानमंत्री का सम्बोधन दार्शनिक है या महत्त्वाकांक्षी?

समरकंद सम्मेलन के दौरान भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों के बीच द्विपक्षीय संवाद की आशा बहुत से प्रेक्षकों ने लगाई थी, किंतु स्वयं प्रधानमंत्री इनके प्रति अनिच्छुक नजर आए। चीन से सीमा विवाद और कश्मीर के मसले पर मोदी को वही भाषा बोलनी पड़ती है जो पुतिन यूक्रेन के विषय में बोल रहे हैं।

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