पंखे उतार देने से खुदकुशी नहीं टलती! असल सवाल मानसिक समस्या की स्वीकारोक्ति का है


17 दिसम्बर को छपी ख़बरों के अनुसार भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर ने छात्रों को आत्महत्या करने से रोकने के उद्देश्य से छात्रावास से सीलिंग फैन्स को उतारने का फैसला लिया है। संस्थान द्वारा उठाए गए इस कदम के कोई सकारात्मक परिणाम निकलने की संभावनाएं कम ही हैं क्योंकि आत्महत्या कोई पंखे से लटकने की प्रक्रिया नहीं है जो साधन के अभाव में रुक जाएगी। यह एक विचार है और इसको रोकने के लिए इस विचार को मारनाही एकमात्र समाधान हो सकता है।

संस्थान का यह कदम समाज का मानसिक समस्याओं के प्रति हमारे नज़रिये की अभिव्यक्ति मात्र है। यह हमारी उस प्रवृत्ति का परिचायक है जिसमें हम मानसिक समस्याओं को सिरे से ख़ारिज करने की जल्दी में रहते हैं जबकि यह समस्या एक विकराल रूप में प्रकट हो रही है।

भारत में मानसिक समस्याएं एक महामारी का रूप ले चुकी हैं और विभिन्न स्रोतों में उपलब्ध आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं। आकड़ों पर नज़र डालें तो स्थिति सुखद नहीं दिखती। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 56 मिलियन लोग डिप्रेशन तथा 38 मिलियन लोग एंग्जायटी डिसऑर्डर से पीड़ित बताये जाते हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्व में होने वाली कुल आत्महत्याओं में भारत की हिस्सेदारी 36.6 प्रतिशत है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा दर्ज आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 में आत्महत्याओं में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है और इसमें सर्वाधिक आत्महत्याएं विद्यार्थियों द्वारा की गयी हैं। बताया गया है कि प्रतिदिन 418 लोग आत्महत्या कर रहे हैं जो कि एक चिंता का विषय है। इतने बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्याओं के बावजूद हमारा सामाजिक दृष्टिकोण मानसिक समस्याओं के प्रति उदासीन बना हुआ है।

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इतनी बड़ी आबादी के मानसिक समस्याओं से प्रभावित होने के कई कारण हैं परन्तु इसकी समाज में  स्वीकारोक्ति अब भी एक बड़ा प्रश्न है। हम आज भी इस समस्या को नकारने की वृत्ति से उबर नहीं पाए हैं जो कि इसके निवारण के मार्ग की प्रमुख बाधा है। इस समस्या के समाधान के लिए इसको नकारने की प्रवृत्ति के सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों को समझने के साथ ही समाज में हो रहे बदलावों के तानेबाने को हमारा समझना  आवश्यक है ।

मानसिक समस्याओं की स्वीकारोक्ति में हमारा धार्मिक दृष्टिकोण भी एक बड़ी रुकावट है। भारतीय संस्कृति में धर्म मानव जीवन के केंद्र में रहा है और हर कार्य भगवान को अर्पित करने की वृत्ति का निर्माण इसी विचार के अनुरूप हुआ है। समर्पण का यह भाव हमें कार्य की वजह से होने वाले तनाव को दूर रखने में कारगर सिद्ध हुआ है, परन्तु नब्‍बे के दशक से भारतीय समाज तेजी से बदला है। मुक्त बाजार की पद्धति के अनुसरण के उपरांत सामाजिक, सांस्कृतिक ढांचे में आमूलचूल बदलाव हुए हैं और धर्म के प्रति भी नज़रिया बदला है। हमारा व्यवहार अब बाज़ारवाद से प्रभावित हुआ है तथा धर्म की महत्ता जीवन में कम हुई है। परिणामस्वरूप अब जीवन की समस्याओं का दबाव हमें मानसिक रोगी बना रहा है। नब्‍बे के दशक से हमारे आदर्श बाज़ारवाद से निर्मित होने लगे हैं। जीवन को भौतिक संसाधनों को अर्जित करने का माध्यम मान लिया गया है। ऐसे में मानसिक समस्याओं का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

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सांस्कृतिक तथा सामाजिक बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो भौतिक, वैज्ञानिक, पर्यावरण सम्‍बंधी कारकों से प्रभावित होती है किन्तु ज़रूरत है तो इस बदलाव को समय रहते स्वीकारने की। भौतिक रूप से हमने काफ़ी तरक्की की है परन्तु वैचारिक रूप से हम अब भी यही मानते हैं कि मानसिक समस्याएं सिर्फ बड़ी उम्र के लोगों की समस्याएं हैं। इसी वैचारिक ढाँचे की वजह से हम युवाओं की मानसिक समस्याओं को स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं। स्वीकारोक्ति किसी भी समस्या के समाधान की पहली सीढ़ी है। बात धर्म की करें तो धर्म मानसिक समस्या के समाधान में सहयोगी हो सकता है, पर समाधान नहीं।

धर्म के केंद्र में भगवान तथा समर्पण का भाव होता है जो आपको  दुनियादारी से बचाता है। धर्म स्वस्थ मस्तिष्क को दिशा देने का साधन हो सकता है। मानसिक समस्या से ग्रस्त व्यक्ति को समय रहते मनोचिकित्सक की आवश्यकता होती है न कि बुज़ुर्गों के आदेशात्मक उपदेशों की। हमारी सामाजिक संरचना में बड़ों को सम्मान तथा ज्ञान के केंद्र के तौर पर परिभाषित किया जाता है जिससे इस विषय पर सहज वार्तालाप के लिए अभी भी जगह नहीं बन पायी है, किन्तु यह समझने की परम आवश्यकता है कि हर पीढ़ी के जीवन की जटिलता उसके परिवेश के अधीन होती है और यह हम सभी जानते हैं कि वर्तमान में समस्याएं बढ़ी हैं।

 वर्तमान में हमारे मनोभाव बहुत ही जटिल हो चुके हैं। ऐसे जटिल मनोभावों को समझने के लिए हमें सबसे पहले नकारने की प्रवृत्ति को बदलना होगा। इसके लिए हमें एक दूसरे को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह उनकी समस्या को सहज रूप से सुनेंगे तथा किसी तरह का आदेशात्मक व्यवहार नहीं प्रदर्शित करेंगे। मानसिक समस्या से लड़ना एक सामूहिक ज़िम्मेदारी है और हम एक सकारात्मक माहौल बनाकर इससे पीड़ित व्यक्ति को समय रहते उचित परामर्श पाने का मार्ग अवश्य प्रशस्त कर सकते हैं।


(लेखक देव नागरी कॉलेज, मेरठ में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष हैं)


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