तन मन जन: अवसाद में डूबता देश और परेशान आम जन


कोरोना महामारी के डेढ़ वर्षों में संक्रमण के कारण बड़ी संख्या में हुई मौतें दर्ज हैं। इसके अलावा मानसिक रोगों में बढ़त और उसके सर्वाधिक शिकार युवाओं के बद से बदतर हुए हालात पर न तो कोई चर्चा है और न ही उससे निबटने की तैयारी। दुनिया भर में मनोरोग चिकित्सक इस बात से हैरान हैं कि कोरोना वायरस संक्रमण ने रोगों की संरचना में ही बदलाव ला दिया है। कुछ वर्ष पहले तक मानसिक रोगों को उतना तवज्जो नहीं दिया जाता था, लेकिन आज यह एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बनकर उभरा है।

इस कोरोना संक्रमण ने न केवल मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों की हालात खस्ता कर दी है बल्कि नये मानसिक रोगियों को भी कतार में खड़ा कर दिया है। कोरोना काल में जिन मानसिक रोगों में सबसे ज्यादा वृद्धि हुई है उनमें ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी), डिप्रेशन (अवसाद), चिड़चिड़ापन, तनाव, भूलने की बीमारी आदि महत्वपूर्ण हैं। आम तौर पर ओसीडी शरीर में एन्डोर्फिन, सेरोटिनिन, डोपानिन, ऑक्सि‍टोसिन आदि हार्मोन बढ़ या घट जाने से होता है। ओसीडी से ग्रस्त व्यक्ति में किसी काम को बार-बार करने की प्रवृत्ति विकसित होती जाती है। बार-बार हाथ धोने की आदत, सन्देह में रहना, अपने किये पर विश्वास नहीं होना आदि ओसीडी के मुख्य लक्षण हैं। आमतौर पर किसी भी विचार का व्यक्ति के मन में बार-बार आना भी ओसीडी का लक्षण है। ये लक्षण विगत कोरोना काल में लोगों में असामान्य रूप से बढ़े हैं।

कोरोना वायरस संक्रमण के देश में फैलते ही केन्द्र सरकार ने अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी और लगभग एक वर्ष से भी ज्यादा समय तक जारी लॉकडाउन में लोगों में चिड़चड़ापन, अवसाद, तनाव और खास तौर पर ऑब्सेशन (ओसीडी) के लक्षणों का कहर रहा। बच्चे, युवा और बूढ़े लगभग सभी इसकी चपेट में आए। दरअसल इस दौरान लोग घरों में कैद थे और बात-बात पर उन्हें हाथ धोना पड़ रहा था। घर से बाहर जाते समय कई लोग तो बार-बार ताले को छूकर देखते कि ताला सच में बंद है या नहीं। मेरे कई मरीजों की शिकायत थी कि कार लॉक कर देने के बाद भी उन्हें तसल्ली नहीं होती कि कार सच में लॉक हो गयी है सो वे बार-बार रिमोट चाबी से यह सुनिश्चित करते कि कार वास्तव में लॉक हो गयी है। ऑब्सेशन के ये लक्षण कोरोना काल में लगभग आम हो गए थे।

The first data collection took place from the 24th of April to the 7th of May. Shown is the log-average of daily new confirmed Covid-19 cases, using the rolling 7-day average in the UK from the 1st of February 2020 to the 1st of September 2020. Lockdown was formally enforced on the 26th of March. The ease of lockdown commenced on the 10th of May when people were encouraged to visit parks again and engage in unlimited outdoor exercise. On the 4th of July pubs and restaurants were among the last businesses to come out of lockdown. The second data collection took place from the 15th of July until the 15th of August, after the lockdown restrictions had been lifted. The pandemic curve has been plotted on the basis of data maintained by Our World in Data63. Source: Obsessive–compulsive symptoms and information seeking during the Covid-19 pandemic

कुछ लोगों ने कई अन्य विचित्र लक्षण भी बताए, जैसे व्यक्ति द्वारा कपड़े की जिप या बटन को बार- बार बंद करने का प्रयास करना, एक ही बात को बार-बार पूछना, हर समय मन में कुछ गलत ही सोचना, आदि। ये सभी लक्षण ओसीडी के हैं।

भारत में पहले से ही ओसीडी के मरीजों की अच्छी संख्या है। नेशनल ‘‘हेल्थ पोर्टल और इंडिया’’ के अनुसार भारत में प्रति सौ लोगों में 3 व्यक्ति ओसीडी का शिकार हैं। यह बीमारी स्त्री, पुरुष दोनों में लगभग बराबर देखी जाती है। ज्यादातर 20 वर्ष से ऊपर के लोग इस बीमारी के शिकार होते हैं लेकिन चिकित्सीय तौर पर 2 वर्ष से ऊपर के उम्र के बच्चे भी इस बीमारी की गिरफ्त में आ सकते हैं। मनोचिकित्सकों के अनुसार इस बीमारी में दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। एक है ऑब्सेशन यानि सनक और दूसरा है कम्पल्शन यानि मजबूरी। ऑब्सेशन में व्यक्ति के मन में कोई भी विचार बार-बार आता रहता है जिस पर उसका वश नहीं चलता और उस आदत को करते रहने की उसकी मजबूरी (कम्पल्‍शन) हो जाती है। चिकित्सा की भाषा में यदि बात करें तो यह स्थिति व्यक्ति के बायोलॉजिकल और न्यूरोट्रान्समीटर्स के बीच बैलेन्स बिगड़ने से उत्पन्न होती है। यह स्थिति लम्बे समय तक शरीर में बनी रहती है इसलिए इसका उपचार दीर्घकालिक होता है। कोरोना काल में अव्यावहारिक लॉकडाउन के दौरान ओसीडी के मामलों में काफी वृद्धि हुई है। अब यह स्थिति बेहद खतरनाक दौर में है।

कोरोना काल में कई लोगों में ऑब्सेशन के लक्षणों के बारे में मनोचिकित्सकों का मानना है कि बार-बार हाथ धोने की मजबूरी और ओसीडी में फर्क है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण ओसीडी के मरीजों की संख्या में वृद्धि के पीछे यह भी वजह है कि इस दौरान आमतौर पर मनोचिकित्सकों की उपलब्धता न के बराबर थी। उनके क्लिनिक बंद थे और मरीजों को सहज रूप से सलाह नहीं मिल पा रही थी। कोरोना की दूसरी लहर में तो स्थिति और भयावह हो गयी। मुम्बई के मशहूर मनोचिकित्सक डॉ. हरीश शेट्टी के अनुसार कोरोना काल में मानसिक रोगियों की संख्या में 500 फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई। इस दौरान लोगों में खौफ और चिंता ने उनकी तकलीफों को और पीड़ादायी बना दिया था। लोग मौत, अपने परिजनों के बिछड़ने, अकेलेपन, नौकरी-रोजगार आदि के छिन जाने जैसे आशंकाओं से ग्रस्त थे। इसका असर युवाओं और बच्चों पर बहुत ज्यादा था। डॉ. शेट्टी के अनुसार इस दौरान लोगों में आत्महत्या की भावना भी ज्यादा बढ़ी थी। कई मामले देखे भी गए लेकिन वे ठीक से रिकॉर्ड नहीं किए गए। इस दौरान लोगों में स्वास्थ्य बीमा कराने का प्रचलन भी बढ़ा था। जाहिर है कि मानसिक परेशानियां भविष्य की आशंका को और बढ़ा रही थी।

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कोरोना काल में बढ़ी मानसिक व्याधियों पर ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी का एक अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है। ऑक्सफोर्ड का यह अध्ययन ‘‘द लेन्सेट साइकि‍याट्री जर्नल’’ में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन में 2,36,000 से ज्यादा कोरोना पीड़ित लोगों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड की जांच की गयी। इसमें ज्यादातर लोग अमरीका के हैं। इस अध्ययन का निचोड़ है कि कोरोना वायरस संक्रमण के छह महीने के अन्दर लगभग 34 फीसद रोगियों में मानसिक रोगों के लक्षण थे। इन लक्षणों में सबसे ज्यादा चिंता, डिप्रेशन, ऑब्सेशन, डिमेंशिया, स्ट्रोक आदि प्रमुख हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता प्रो. पॉल हैरिसन के अनुसार उपरोक्त शोध में कोरोना के वे सभी रोगी शामिल हैं जो होम आइसोलेशन में रहकर उपचार करवा रहे थे। प्रो. हैरिसन के अनुसार कोरोना वायरस संक्रमण के अलावा भविष्य की चिंता और आर्थिक अनिश्चितता ने मानसिक परेशानियों को बढ़ाने में अहम भूमिका निभायी। प्रो. हैरिसन कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के लिए वैक्सीन लेने की सलाह देते हैं लेकिन वे इस बात पर आशंकित हैं कि वैक्सीन से पूरी तरह बचाव हो जाएगा? उनके अनुसार कोरोना की तुलना में वैक्सीन में खतरा कम है।

कोरोना काल में बड़े मानसिक रोगों से लेकर एक और अलग प्रकार का अध्ययन सामने है। इन्दौर मनोचिकित्सक सोसाइटी के अध्यक्ष डॉ. राम गुलाम राजदान के अनुसार कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के बाद लोगों में महामारी के साइड इफेक्ट के रूप में लोगों में मानसिक बीमारियों के लक्षण देखे जा रहे हैं। डॉ. राजदान के अनुसार बाजार व निजी कम्पनियों में नौकरी करने वाले सामान्य लोगों में भविष्य के प्रति आशंका, आर्थिक असुरक्षा एवं नुकसान के कारण तनाव, घबराहट, अनिद्रा, बेचैनी, उदासी, गुस्सा व आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियों में वृद्धि देखी गयी है। इन्दौर के सबसे बड़े मानसिक अस्पताल में आम दिनों की अपेक्षा कोरोना काल में ज्यादा मरीजों का आना रिकॉर्ड किया गया है। इस मानसिक अस्पताल के अधीक्षक डॉक्‍टर मानसिक परेशानी में हैं। वे भी स्वीकार करते हैं कि आम दिनों की अपेक्षा कोरोना काल में मानसिक रोगों की ओपीडी में 40 फीसद ज्यादा मरीज आ रहे हैं।

कोरोना वायरस संक्रमण के दौर में बड़े मानसिक रोगों की एक और महत्वपूर्ण वजह रही है इस सम्बन्ध में सरकार की नीति! कोरोना काल के दौरान अव्यावहारिक एवं अधूरी तैयारी से लगाया गया लॉकडाउन, कथित सोशल डिस्टेंसिंग, बार-बार हाथ धोना, लगातार मास्क लगाना आदि भी कई मानसिक व्याधियों का कारक बना। रोग या रोग के शक मात्र से व्यक्ति का एकांत में रहना भी लोगों के मानसिक परेशानी का बड़ा कारण था। संक्रामक रोग होने की वजह से परिवार के बूढ़े और कमजोर वर्ग के लोगों की ज्यादा उपेक्षा हुई। इस दौरान ज्यादातर चिकित्सक और चिकित्साकर्मियों के संक्रमित होने, दवाओं की अनिश्चितता तथा उसके उपलब्ध न होने, ऑक्सीजन एवं वेंटिलेटर बेड की अनुपलब्धता, महंगा इलाज आदि भी लोगों के मानसिक परेशानियों को बढ़ाने में सहायक बना था। कोरोना वायरस संक्रमण के पूरे डेढ़ वर्षों में अफवाहों और झूठी खबरों ने सोशल मीडिया के माध्यम से करोड़ों लोगों को भ्रमित किया। इस दौरान कई नीम हकीमों ने भ्रामक खबरों को वीडियो के माध्यम से प्रचारित कर लोगों की मानसिक परेशानियों को बढ़ाने में योगदान दिया।

ऐसा नहीं है कि कोरोना काल में ही मानसिक रोगों में वृद्धि देखी गयी। ऐसा पहले की महामारियों में भी पाया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) के अनुसार वर्ष 2003 में एशिया में आयी सार्स महामारी के दौरान ठीक हो चुके करीब 50 फीसद मरीजों में अवसाद और उदासी के लक्षणों में वृद्धि दर्ज की गयी थी। इसी प्रकार 2013 में इबोला वायरस प्रकोप के समय भी स्वस्थ हो चुके 47.2 फीसद लोगों में अवसाद के सम्भावित लक्षण थे। महामारी की वैश्विक विपदा की वजह से कई देशों में सम्पूर्ण तालाबंदी की गयी जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बन्धित आपूर्ति में गम्भीर रुकावटों का सामना करना पड़ा। डब्लू.एच.ओ. द्वारा 130 देशों में किये गए सर्वेक्षण के अनुसार 43 फीसद देशों को मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी चिकित्सा उपकरण व स्नायुतंत्र सम्बन्धी सामग्री की आपूर्ति में गम्भीर रुकावटों का सामना करना पड़ा। इस दौरान करीब 67 फीसद देशों में तो मानसिक रोग विशेषज्ञों की भयंकर कमी देखी गयी। तकरीबन 70 फीसद देशों में दवाओं का भी अभाव था। चिकित्सा में प्रयुक्त सामग्री एवं उपकरणों की कमी से लगभग 80 फीसद देश जूझ रहे थे। मेडिकल जांच, दवाओं का अभाव एवं कोरोना सम्बन्धी प्रमाणिक सूचनाओं की कमी से भी लोगों में मानसिक स्थितियां बिगड़ी थीं।

महामारी के कारण लोगों को जो तालाबंदी में रहना पड़ा उससे घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न आदि के मामले भी चिंताजनक स्थिति में देखे गए। भारत की जनसंख्या पर किए गए एक सर्वेक्षण में 66 फीसद महिलाओं ने माना कि कोरोना के चलते तालाबंदी में उन्हें पहले से ज्यादा तनावपूर्ण हालात झेलने पड़े। इस दौरान पुरुषों में ऐसे हालात का आंकड़ा मात्र 34 फीसद ही रहा। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आइ.एल.ओ.) ने भी तालाबंदी के दौरान 15-20 वर्ष के युवाओं में अवसाद और मानसिक परेशानियों के बढ़ने की पुष्टि की है। इस अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर उक्त आयुवर्ग का हर दूसरा व्यक्ति अवसाद में रहा। डब्लूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट में माना है कि तालाबंदी और कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान बड़ी संख्या में लोग आशंका और दहशत में जीते रहे। भारत में अवसाद यानि ‘‘डिप्रेशन’’ को लेकर एक आम ‘गूगल ट्रेन्ड्स रिपोर्ट’ में कहा गया है कि जून 2020 में गूगल पर जिन विषयों की ज्यादा खोज की गई उनमें अवसाद, चिंता एवं इससे जुड़े अन्य विषय हैं। सर्च लिस्ट से साफ जाहिर है कि अवसाद की जांच पड़ताल या अवसाद सम्बन्धी जानकारी खंगालने में व्यक्तियों की इतनी ज्यादा दिलचस्पी क्यों बढ़ी।

इसी बीच ‘‘वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट 2021’’ भी आ गयी है। इस रिपोर्ट का निचोड़ है कि जिन लोगों में सामाजिक और संस्थागत विश्वास का स्तर ऊंचा होता है वे अपेक्षाकृत ज्यादा खुशहाल जीवन जीते हैं। वहीं दूसरी ओर अविश्वास से भरे माहौल में जीने वाले लोग परेशान रहते हैं। सार्वजनिक रूप से पारस्परिक विश्वास से भरपूर माहौल मुहैया कराने वाले देशों में मृत्यु दर कम होती जाती है। रिपोर्ट के अनुसार एशिया और अफ्रीका के दूसरे विकासशील देशों की तरह भारत ने अपनी जनसंख्या की जीवन प्रत्याशा बढ़ाने में कुछ सफलता तो हासिल की लेकिन अपनी आबादी का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने में सफल नहीं हो पाया। इस रिपोर्ट से इतर विश्व बैंक की भी एक रिपोर्ट आयी है जिसके अनुसार अगले दस वर्षों में दुनिया किसी अन्य बीमारी की अपेक्षा अवसाद और मानसिक बीमारियों से ज्यादा तबाह होगी। वर्ष 2015 में निर्धारित ‘‘सतत विकास लक्ष्य-2030’’ के एजेन्डा के अनुसार मानसिक रोगों के उपचार पर खर्च 2 फीसद से बढ़ाने का सुझाव है लेकिन जहां कुल स्वास्थ्य बजट का एक फीसद से भी कम मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च होता हो वहां जल्द किसी क्रान्तिकारी बदलाव की उम्मीद मुझे बेमानी लगती है। भारत पिछले कई वर्षों से दुनिया के सबसे ज्यादा अवसादग्रत देशों में शामिल है इसलिए यहां एक विशेष पहल लेने की जरूरत है।

मैं जन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता होने के नाते सरकार एवं गैर-सरकारी संस्थाओं से अपील करता हूं कि मानसिक खुशहाली के लिए देश में अमन, शांति, सद्भाव आदि का माहौल बनाकर मानसिक अवसाद से लोगों को राहत दिलाया जाए तभी हम किसी भी प्रकार का विकास कर सकते हैं।

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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