1 मई, 1886, वही साल था जब लाल झंडा मेहनतकशों की पहचान बन गया। इसके पहले मजदूरों का झंडा सफेद होता था। अमन और शांति का परचम लहराते हुए सरमायेदारों यानी धन्ना सेठों से आठ घंटे काम करने और उसका उचित वेतन− इतनी ही मांग हुआ करती थी जिससे कि मजदूरों को भी इंसान होने का वजूद बना रहे।
न ही उस सामंती व्यवस्था में और न ही आज की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, मशीनों आधारित सामाजिक व्यवस्था में मेहनतकश मजदूरों को मानवीय क्षमता के अनुसार काम दिया जाता है और ना ही उन्हें उनके काम के अनुसार वेतन।
मुनासिब समय तक काम करना और उसके हिसाब से वेतन, बस इतनी सी मांग को लेकर तब के मजदूर लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे थे। मजदूरों के लिए काम करने वाले संगठनों यानी ट्रेड यूनियनों ने 1886 में एक कांफ्रेंस करके यह निर्णय लिया कि 1 मई 1886 को तब के अमेरिका के न्यूयॉर्क में एक बड़ी हड़ताल की जाएगी। बस, मजदूरों के इसी आवाहन पर अमेरिका के लगभग पांच लाख मजदूरों ने काम न कर अपना विरोध दर्ज किया और “8 घंटे काम, 8 घंटे आराम और 8 घंटे अपने मुताबिक जीने की छूट” के नारे का आह्वान किया।
1 मई की हड़ताल सफल हुई, बावजूद इसके लड़ाई जारी रही। 3 मई को एक बार फिर न्यूयॉर्क की एक फैक्ट्री के पास मजदूरों ने इकट्ठा होकर अपनी मांग दोहराई जिसके बाद पुलिस कार्यवाही में कई मजदूर मारे गए। और यहीं से मजदूरों का गुस्सा एक बार फिर से उबल पड़ा। बड़ी संख्या में पैंफलेट छाप कर उन लोगों ने पूरे शहर में यह खबर फैलाई कि अगले दिन यानी 4 मई को शिकागो की भूसा मार्केट (हे मार्केट स्क्वायर) में इकट्ठा होकर मजदूर एकता को दिखाना होगा और इन हिंसक कार्यवाहियों की सख्त मुखालफ़त करनी होगी।
4 मई की शाम शिकागो के भूसा मार्केट में हजारों की संख्या में मजदूर इकट्ठा हो गए। शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट व रैली जारी रही। मजदूरों के नेता लगातार तकरीर करते रहे। इसी दरमियान उस रैली में अचानक बम विस्फोट होता है और पुलिस की तरफ से मजदूरों पर फायरिंग शुरू हो जाती है। उस वक्त हल्की हल्की बारिश भी हो रही थी और उसी दौरान पुलिस की गोलियों से सैकड़ों की संख्या में मजदूर छलनी हो चुके थे। पूरा बाजार मजदूरों के खून व बारिश के पानी से लथपथ हो चुका था। लगभग सबके कपड़े लाल हो चुके थे। शांति और अमन का मजदूरों का परचम अब खून से लाल हो चुका था।
कहा जाता है कि अगले दिन मजदूरों ने अपने खून से लथपथ कपड़ों को अपनी बस्तियों में घरों के आगे व खिड़कियों पर टांग दिया था। इससे पूरी बस्ती लाल झंडे से शराबोर दिखाई देने लगी। और यहीं से पूरी दुनिया में लाल रंग, लाल झंडा और लाल सलाम हिंसक कार्यवाहियों, दमन व शोषण के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गया।
दुनिया भर के पढ़ने लिखने वाले, कविता-कहानी लिखने वालों व कलाकारों ने इन लाल प्रतीकों को अपनी कलाओं में बखूबी अपनाया।
1890 में कार्ल मार्क्स व एंगेल्स ने सेकंड इंटरनेशनल में 1 मई को शहीद मजदूरों की याद में कामगारों के लिए अंतरराष्ट्रीय मई दिवस के रूप में मनाये जाने का प्रस्ताव रखा। पूरी दुनिया के मजदूरों से अपील की गई कि वे इस दिन दुनिया के किसी भी कोने में हों, काम के बेहतर वातावरण, उचित वेतन व मजदूरों के जीने के अधिकार के लिए आवाज़ उठाएं। और यही हुआ भी।
पूरे अमेरिका, यूरोप व लैटिन अमेरिका सहित दुनिया के कई हिस्सों से मजदूरों के हक के लिए आवाजें गूंजीं। दुनिया के कई मुल्कों के मजदूर इकट्ठा होकर अपनी आवाज बुलन्द किये और स्थापित कर दिया कि मजदूर सिर्फ 8 घंटे ही काम करेगा और अगर उस से ज्यादा काम लिया जाता है तो उसे उसी के हिसाब से वेतन भी देना होगा। और आज यह बात अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, यूनाइटेड नेशंस व इसके अलावा दुनिया के लगभग सभी देश न सिर्फ स्वीकार करते हैं बल्कि अपने यहां कानूनों के माध्यम से मजदूरों के हक को संरक्षण भी देते हैं।
विश्व के बहुत से देश 1 मई यानी मई दिवस को राष्ट्रीय हॉलिडे के रूप में मनाते हैं। इस सूची में कैपिटलिस्ट देशों का सरगना अमेरिका और इज़राइल शामिल नहीं है।
आज भारत सहित पूरी दुनिया कोरोना महामारी के संकट से जूझ रही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत के लगभग 40 करोड़ असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति लॉकडाउन या घरबंदी के कारण बहुत दयनीय हो चुकी है। जहां एक तरफ धन्ना सेठों के करोड़ों रुपए तो सरकार माफ कर दे रही है वहीं मजदूरों के लिए यह भाजपा सरकार श्रम कानूनों को लगभग खत्म कर, काम करने के 12 घंटे को पुनः स्थापित करने में लगी हुई है।
सरकार की प्राथमिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत, अमेरिका व चीन के बाद सबसे ज्यादा खर्च सैन्य जरूरतों व हथियारों के लिए करता है जबकि इसकी अपनी मूलभूत जरूरतें जैसे शिक्षा स्वास्थ्य व अन्य सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर पूरी तरह से चरमरा गया है।
आज इस मई दिवस पर एक बेहतर समाज निर्माण के लिए और किसी भी समाज में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एक बहुत बड़े हिस्से यानी मेहनतकश मजदूर व किसान की दुर्दशा के खिलाफ हम अपनी आवाज उठाएं और खुद भी, समाज को और सरकारों को उनकी बेहतरी के लिए मजबूर करें। यही दुनिया के सभी मजदूरों के लिए सबसे बेहतर हम कर सकते हैं।