खुल जाए शहर का ताला: अहमदाबाद और सूरत में प्रवासी मजदूरों पर आजीविका ब्यूरो का अध्ययन


कोविड-19 महामारी और इसकी वजह से घोषित लॉकडाउन के कारण घर लौटने को बेताब बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर शहर छोड़कर भागने लगे। इनमें से कुछ ही अपने घर तक वापस लौट पाए। बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों को सीमाओं पर रोक लिया गया । सीमाओं पर उन्हें पुलिस की बर्बरता का सामना करना पड़ा, उन पर कीटाणु नाशक छिड़का गया । उनसे स्वस्थ होने के प्रमाण पत्र माँगा गया जिसे प्राप्त करने का उनके पास कोई साधन नहीं था और फिर उन्हें रास्ते में बने आश्रय घरों में डाल दिया गया। दूसरी तरफ बहुत से प्रवासी मजदूर शहरों और कस्बों में फंसे हुए हैं, जहाँ उन्हें उनके काम का वेतन नहीं मिला है । कई मजदूरों को अवैतनिक छुट्टी लेने के लिए मजबूर किया गया, या फिर उन्हें नौकरी से ही निकाल दिया गया है। घबराहट व हताशा से भरे मजदूर राशन माँगने, अटकी मजदूरी पाने अथवा घर वापस जाने की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबरों पर संपर्क करने की कोशिश रहे हैं, पर अधिकांश पर कॉल करने पर उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है । 

लॉकडाउन लागू करने को लेकर न तो पहले कोई चेतावनी दी गई और न ही देश के शहरी क्षेत्रों में रह रहे प्रवासी मजदूरों के लिए कोई योजना बनाई गई । भारत में अनुमानतः 10 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं, अर्थात प्रत्येक 10 भारतीयों में 1 प्रवासी मजदूर है। प्रवासी मजदूरों की वर्तमान मुश्किलों के सन्दर्भ में यह समझना जरूरी है कि उनकी यह हालत महामारी की वजह से नहीं हुई, बल्कि मौजूदा ढ़ांचे में लंबे समय से चली आ रही कमजोरियों ने उनकी स्थिति को और ज्यादा बिगाड़ दिया। भारत का शहरों पर केन्द्रित आर्थिक विकास मॉडल ग्रामीण-शहरी प्रवासियों पर निर्भर है। इन मजदूरों को अक्सर लम्बे काम के घंटो और खतरनाक शारीरिक श्रम करने के बदले न्यूनतम से भी कम मजदूरी दी जाती है। ये लोग न तो राष्ट्रीय सांख्यिकी आंकड़ों में आते हैं और न ही इन पर शहर के प्रशासन का ध्यान जाता है। यही  वजह है कि ये सब अवैध बस्तियों में रहने को मजबूर हैं।इन बस्तियों में वे राज्य की पानी व सफाई व्यवस्था, भोजन, ईंधन व स्वास्थ्य सेवा के दायरे से बाहर हो जाते हैं।

महामारी के कारण आजीविका के पूरी तरह नष्ट हो जाने से मजदूरों की स्थिति काफ़ी ख़राब हो गई है। उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे पैसे चुकाकर अपने लिए जरुरी सेवाएँ प्राप्त कर सके । उनको राज्य की ओर से भी कोई सुविधा नहीं दी जा रही है। प्रवासी मजदूरों के पास ऐसा कोई सुरक्षित ठिकाना नहीं बचा है जहां वे महामारी के समय में एक-दूसरे से शारीरिक दूरी बनाकर रह सकें । इनके वर्तमान आश्रय स्थलों में बुनियादी साफ-सफाई, पीने योग्य पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं और पोषक भोजन का भी संकट है।

आजीविका ब्यूरो की यह रिपोर्ट प्रवासी मजदूरों को  शहरी सेवाओं से वंचित रखने की प्रवृति, उसकी सीमाओं, तीव्रता और उसके कारणों का अध्ययन व विवेचना करती है। साथ ही यह रिपोर्ट इन वंचनाओं की प्रवृति को ठीक करने के लिए नीतिगत सिफारिशें सुझाती है। यह अध्ययन दो प्रमुख भारतीय शहरों अहमदाबाद और सूरत में कोविड के महामारी का रूप  लेने से पहले किया गया। यह रिपोर्ट अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य कर रहे श्रमिकों के साथ किए गए सर्वेक्षण व फोकस समूह चर्चाओं पर आधारित है । जिसमें पावरलूम, भवन निर्माण, लघु उद्योग, होटल- रेस्तरां, हमाली और घरेलू कार्य आदि क्षेत्रों से मजदूरों को शामिल किया गया है । व्यावसायिक अंतर के बावजूद एक बात जो इनमें समान है वह है उनके पास ऐसे दस्तावेजों की कमी जो उनके निवास को प्रमाणित कर सके। इस वजह से ये लोग अधिकांश सरकारी कल्याण योजनाओं की पात्रता से बाहर हो जाते हैं। इस प्रकार की वंचनाओं के मूल्यांकन के लिए शहरी स्व-शासन संस्थाओं व राज्य व केन्द्र सरकार की योजनाओं व मिशन से जुड़े सरकारी अधिकारियों से बातचीत की गई है। कोविड के बाद के समय में इन प्रवासी मजदूरों के लिए जीवन को दुबारा पटरी पर लाने के लिए बहुत कुछ करना होगा। यह समय प्रवासी मजदूरों को अपात्र और वंचित रखने की लगातार चली आ रही लंबी श्रृंखला को तोड़ने का अनूठा अवसर दे रहा है। उन्हें अब उपलब्ध सरकारी सेवाओं और शहरी प्रशासन के दायरे में अंततः लाया जा सकता है।

अस्थायी मौसमी (सर्कुलर) प्रवासी मजदूर कौन हैं ?

  • अस्थायी मौसमी प्रवास कम समय अथवा अधिक समय के लिए हो सकता है । प्रवास आस-पास के इलाके अथवा बहुत दूर का हो सकता है । इसमें पुरुष, महिला और बच्चे या तो अलग-अलग या फिर परिवार के साथ समूह में जाते हैं। मजदूर कार्य-स्थलों पर साल  में 3 से 11 महीने तक के लिए रहते हैं, लेकिन लौट कर हमेशा अपने मूल गाँवों में आते हैं।
  • अहमदाबाद में अनुमानित 13 लाख  प्रवासी मजदूर हैं, जो इस शहर की आबादी का छठा हिस्सा है। यहाँ उत्तरी गुजरात, दक्षिण राजस्थान और पश्चिम मध्य प्रदेश से लगे आदिवासी इलाकों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के दूर-दराज के इलाकों से मजदूर आते हैं। इस अध्ययन के अंतर्गत अहमदाबाद में अलग-अलग क्षेत्रों जैसे निर्माण कार्य, छोटी उत्पादन इकाइयों, होटल-रेस्तरां,पल्लेदारी अथवा घरेलू नौकर की तरह काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के 285 सर्वेक्षण किए गए हैं ।
  • देश में सूरत ऐसा शहर है जहां प्रवासियों और स्थानीय लोगों के बीच अनुपात सबसे अधिक है।

प्रवासी यहां की कुल आबादी का 58% हैं और इसके वेतन पाने वाले कामगारों का 70% हैं । शहर के तेजी से बढ़ते कपड़ा उद्योग के सबसे निचले पायदान पर स्थित पावरलूम इकाइयां ओडिशा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के प्रवासी मजदूरों को काम देती हैं। इस उद्योग में लगभग 8,00,000 प्रवासी ओडिशा के गंजाम जिले से आते हैं । ये मुख्यत: ओबीसी और दलित समुदायों से हैं। सूरत के अध्ययन में पावरलूम इकाइयों में कार्यरत प्रवासी मजदूरों  के 150 सर्वेक्षण किए गए ।

  • अस्थायी व मौसमी प्रवासी सामाजिक रूप से सब से अधिक हाशिये पर और आर्थिक रूप से सबसे अधिक बदहाल लोगों में शामिल हैं। हालांकि इनमें से कुछ मजदूर समय के साथ धीरे-धीरे शहरों में बस गए हैं । लेकिन उसी सेक्टर में कार्यरत दलित और आदिवासी मजदूर, न तो यहाँ बस पाते हैं और न ही बेहतर भुगतान वाली नौकरियों में जा पाते हैं।

शहरी प्रशासन और शहरी निवास तक पहुंच नहीं

  • सर्वेक्षण में शामिल 98 प्रतिशत प्रवासी श्रमिकों ने शहरों में कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता या स्थानीय प्रशासनिक निकायों के किसी अधिकारी के साथ बातचीत नहीं की है।
  • प्रवासी श्रमिक उन स्थानों पर रहते हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन की मान्यता प्राप्त  नहीं है। उनके पास शहरी निवास-आधारित पहचान दस्तावेजों को प्राप्त करने के लिए ज़रूरी कोई औपचारिक या लिखित किरायेनामे नहीं हैं। इससे वे शहरी शासन की योजनाओं और सेवाओं को प्राप्त करने के पात्र नहीं है क्योंकि यह उन्हीं को उपलब्ध है जिनके पास शहर के निवासी होने के प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध है ।
  • यहां तक कि सेक्टर आधारित कल्याण योजनाएं भी प्रवासी मजदूरों नहीं पहुंच पाई हैं। अहमदाबाद में निर्माण क्षेत्र में बड़ी संख्या में कार्यरत प्रवासी मजदूरों में से बहुत कम मजदूर भवन और अन्य निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड के तहत पंजीकृत हैं।

अनिश्चित और अपर्याप्त आवास , पानी और साफसफाई व्यवस्था

प्रवासी मजदूर अलग-अलग तरह के आवास में रहते हैं।  अहमदाबाद में ये काम की जगह पर, खुली बस्तियों और किराये की अनौपचारिक जगहों  पर रहते हैं। सूरत में ये लोग किराये के कमरे और मेस रूम में रहते हैं। रहने के ये सभी स्थान स्थानीय प्रशासन की निगरानी के दायरे से बाहर हैं, इसलिए बदहाल हैं और इनमें सुविधाएँ अपर्याप्त हैं। इनसे संबंधित कुछ सामान्य मुद्दे इस प्रकार हैं :

  • चूंकि ये अनियंत्रित हैं, इसलिए ये शहरी स्थानीय निकायों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) या आंगनवाड़ियों में शामिल नहीं किए जाते। सर्वेक्षण में शामिल परिवारों में लगभग 85 प्रतिशत बच्चों ने कभी भी अपने इलाके के आंगनवाड़ी की सेवाओं का उपयोग नहीं किया।
  • लगभग 83 प्रतिशत लोग जन-शौचालयों का सामुहिक उपयोग करते हैं। इन में उपयोग करने वालों की संख्या की कोई सीमा नहीं है। महिला प्रवासी पर इन साझा जन शौचालयों की सफाई की जिम्मेदारी भी आ जाती है। पानी की कमी या आपूर्ति नहीं होना सामान्य बात है । इसकी कोई गारंटी नहीं है कि पानी उपलब्ध होगा। खुले में शौच को आस-पास के निवासियों  ने आपराधिक बना दिया है, जिससे पैसे देकर इस्तेमाल किए जानेवाले शौचालयों की सेवाएँ महँगी हो गई हैं।

कार्य स्थल पर ‘घर’

  • प्रवासी मजदूर निर्माणाधीन इमारतों में आधी बनी हुई इमारतों में या साइट पर फेंके हुये सामानों से बनाई अस्थायी झोपड़ियों में रहते हैं। छोटी उत्पादन इकाइयों में दुकान के फर्श पर, मशीनों और बॉयलरों के बीच, कारखाने के बाहर खुली जगह या होटल और रेस्तरा में में रहते है। सामान लादने वाले मजदूर गोदामों, खचाखच भरे दफ्तरों या खुले स्थानों  या फिर मालिक के घरों में घरेलू नौकर की तरह रहते है ।
  • मजदूरों के लिए बनाए गए कानून इनकी आवास की जरूरतों को पर्याप्त रूप में शामिल नहीं करते।
  • काम के स्थान पर सुविधाएं देने के बदले में कम मजदूरी, मजदूरी में मनमानी कटौती या मजदूरों पर ज्यादा देर तक और अनियमित घंटों तक काम करने के लिए दबाव बनाना और ओवरटाइम का पैसा नहीं देना आम है। हर दिन एक व्यक्ति के लिए 50 लीटर तक पानी ही मिल पाता है, जबकि एक स्वस्थ जिंदगी के लिए 100 लीटर पानी की जरूरत होती है। सभी प्रवासी महिला श्रमिक जो कारखानों  में रहती हैं उन्हें खुले में ही शौच जाना पड़ता है।

खुले में रिहायशी बस्तियाँ (ओपन स्पेस सेटलमेंट्स)

  • ऐसे प्रवासी आदिवासी परिवार जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं और निर्माण कार्यों के बाजार (नाका) में काम ढ़ूंढते हैं, वे खुली जगहों जैसे फुटपाथों पर, फ्लाईओवर के नीचे,  रेलवे पटरियों के पास, किसी सार्वजनिक या निजी जमीन पर अस्थायी घर बनाकर रहते हैं। उन्हें लगातार पुलिस और शहर प्रशासन से उन स्थानों से बेदखल करने की कार्रवाई का सामना करना पड़ता है।
  • उन्हें अपनी मासिक आय का दसवाँ हिस्सा शौच सुविधाओं पर खर्च करना पड़ता है । उन्हें पे एंड यूज ( पैसा दो – उपयोग करो) शौचालय के एक बार उपयोग पर प्रति सदस्य प्रतिदिन ₹15 से ₹25 देना पड़ता है। महिलाओं को माहवारी या गर्भावस्था के दौरान ज़्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यहाँ  प्रतिदिन 39-60 लीटर पानी ही प्रति व्यक्ति उपलब्ध होता है।

किराए के तंग कमरे

  • अहमदाबाद में 10×10 वर्ग फुट के पक्के कमरे का औसत मासिक किराया ₹3022 है । इनमें केवल ऊँचीं जाति और कुशल प्रवासी कारीगरों की ही पहुँच है। एक कमरे में प्रति व्यक्ति 20-30 वर्ग फुट के हिसाब से 4 लोग रहते हैं। अकुशल आदिवासी मजदूर, जो कि मूलतः एकल पुरुष प्रवासी होते हैं, प्रति व्यक्ति 7 वर्ग फुट के हिसाब से संकरे और ठसाठस भरे किराये के कमरों में रहते हैं। इनमें प्रत्येक मजदूर को एक कच्चे-पक्के कमरे के लिये ₹500 के अलावा अन्य सुविधाओं के इस्तेमाल के लिए अलग से शुल्क मकान मालिक को देना पड़ता है।
  • अहमदाबाद के बाहरी इलाके को खतरनाक उद्योगों के डंपिंग ग्राउंड के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वहां 8×8 वर्ग फुट के एक कमरे का किराया ₹1,000 है। इनमें सामान्यतः 4 मजदूर एक साथ रहते हैं। किराए के इन कमरों में प्रत्येक मजदूर को प्रतिदिन 80 लीटर पानी मिलता है।
  • सूरत में 70-100 वर्ग फुट के कमरों का किराया ₹2,500-4000 है । प्रत्येक कमरे में रहने वाले मजदूरों की संख्या 2 से लेकर 10 हैं। कई मामलों में उनसे किराए के अलावा बिजली बिल/शुल्क और ₹5,000 रुपये तक का डिपोजिट पेमेंट [ एडवांस] भी लिया जाता है । जिसकी वजह से ये कमरे बहुत महँगे होने के कारण मजदूरों की पहुँच के बाहर हो जाते हैं। 
  • परिवार के साथ रहने वाले प्रवासियों के मामले में इस तरह के कमरे रहने के अलावा महिलाओं के लिए कार्यस्थल भी बन जाते हैं। महिलाओं को यहाँ   औद्योगिक कार्य के अलावा मुफ़्त में खाना पकाना, सफाई और बच्चे की देखभाल जैसे घर के काम करने होते हैं। एक मज़दूर के रूप में महिला के  कोई अधिकार नहीं होते और उन्हें न्यूनतम दर से भी कम मजदूरी दी जाती है। काम और रहने के एक ही जगह होने के मामलों में अक्सर परिवार के बच्चों का अवैतनिक श्रम भी शामिल होता है।

मेस रूम

सूरत में पुराने कारखानों को मजदूरों के रहने के लिए 600 से 1000 वर्ग फुट के मेस रूम में बदल दिया जाता है। इनमें लगभग 100 मजदूर दो पालियों (सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक और शाम 7 बजे से सुबह 7 बजे तक) में रहते /सोते हैं। मेस रूम में प्रत्येक मजदूर को 6×3 फीट जगह के लिए बिजली के बिल सहित ₹400 से ₹600 मासिक किराया देना पड़ता है। इसके साथ ही मेस रूम में  उनको ₹1800 से ₹2200 में महीने भर का भोजन भी मिल जाता है। इन जगहों पर रहने वाले श्रमिकों की संख्या की कोई ऊपरी सीमा तय नहीं है । उन कमरों की क्षमता से कहीं ज्यादा लोग वहां रहते हैं। मेस रूम काफी गर्म होते हैं और उनके रखरखाव का कोई सही इन्तजाम नहीं होता है।

भोजन और ईंधन का अत्यधिक खर्च

  • दोनों शहरों में प्रवासी मजदूर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की पहुँच से बाहर हैं क्योंकि जहां वे रहते हैं उनके पास उन क्षेत्रों के राशन कार्ड नहीं हैं।
  • अहमदाबाद में प्रवासी मजदूर अपनी मूलभूत जरूरतों में कटौती करके कम किराए वाली जगह पर रहकर जो बचत करते हैं वह उनको अपने भोजन और ईंधन पर खर्च करना पड़ता है, जो अमूमन उनकी मासिक आय का 50% तक होता है। 
  • रखने की जगह नहीं होने और कम मजदूरी के कारण ये कम मात्रा में रोजाना राशन खरीदने के लिए विवश हैं |  इस वजह से उन्हें राशनअधिक महंगा पड़ता है। मजदूरों को राशन उन खास दुकानों से ही खरीदना पड़ता है जिनके मालिक उन्हें मदद करते हैं या शहर के अन्य मामलों में भी उनको सहायता देते हैं । कई मामलों में वे अपने मकान मालिकों की दुकानों से ही ये सामान ख़रीदते हैं। प्रायः इन दोनों ही स्थितियों में उन्हें इसके लिए अधिक क़ीमत चुकानी पड़ती है। इस प्रकार, अधिक पैसा देने के बावजूद भोजन की पोषण गुणवत्ता संदिग्ध होती है और मजदूर केवल अति आवश्यक जरूरतों पर ही खर्च कर पाते हैं।
  • हालाँकि सूरत में मेस रूम में भोजन की व्यवस्था होती है लेकिन ये स्थान  मजदूरों के बेहिसाब शोषण का जरिया है । मेस रूम  मेस-मालिकों द्वारा तय की गई शर्तो पर चलते हैं। मेस मालिक मजदूरों को अपनी दुकानों से ही बुनियादी व जरूरी सामान खरीदने के लिए मजबूर करते हैं। उन्हें ₹900 से ₹1,200 देकर ब्लैक में  एलपीजी सिलेंडर खरीदने पड़ते हैं।

स्वास्थ्य व्यवस्था से वंचित

  • दोनों शहरों के 90% से अधिक प्रवासी मजदूरों ने बताया कि वे निजी स्वास्थ क्लीनिक को प्राथमिकता देते हैं । इनमें नीम-हकीम और दवाईयों की दुकान चलाने वाले शामिल हैं। यहां वे शहरी स्वास्थ्य केंद्रों या सार्वजनिक अस्पतालों कि तुलना में बहुत अधिक पैसा खर्च करते हैं।
  • यदि वे सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का उपयोग करने का प्रयास करते हैं, तो उनसे  स्थानीय निवासी होने का प्रमाणपत्र माँगा जाता है । कई बार भाषा नहीं समझ पाने से वे इन सेवाओं से नहीं जुड़ पाते । अस्पताल के खुलने  समय और वहां  लगने वाला समय मजदूरों के लिए उनके लंबे काम के घंटों के साथ तालमेल नहीं खाता। मजदूरों के रहने के इलाके मान्यता प्राप्त या आवासीय क्षेत्रों में नहीं  होते इस वजह से उनकी बस्तियों में आशा अथवा एएनएम कार्यकर्ताओं की पहुंच भी अनिश्चित और अनियमित है ।

शहरी नीतियों और योजनाओं में सम्मिलित न करना  

शहरों में मूलभूत सुविधाओं और सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय और मानव संसाधनों का आकलन शहरी अधिकारी राष्ट्रीय जनगणना के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। प्रवासी मजदूरों को राष्ट्रीय आंकड़ों जैसे जनगणना और एनएसएसओ [NSSO] से बाहर रखा गया है|  प्रवासी बस्तियों को  शहर में की गई गणना में शामिल नहीं किया जाता। इस प्रकार वे शहरी नीतियों और योजनाओं की निर्णय प्रक्रियाओं के बाहर रह जाते हैं।

  • शहरी नीति के डिजाइन और क्रियान्वयन में स्थायी आवास का पूर्वाग्रह : पीडीएस, पानी और स्वच्छता सुविधाएं, राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन द्वारा किफायती आवास योजनाओं के विकल्प मौसमी अस्थायी प्रवासियों के लिए उपलब्ध नहीं हैं। साल का बड़ा हिस्सा प्रमुख शहरों में गुजारने के बावजूद ये मजदूर शहरों में स्थायी निवास का दावा नहीं कर सकते हैं। शहरी स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के तहत कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए शहर में रहने के प्रमाण की जरूरत होती है। हालांकि महिलाएं और बच्चे ममता कार्ड के हकदार हैं जिसमें टीकाकरण का ब्यौरा होता है । लेकिन वे स्थायी रिहाइश के दस्तावेज के बिना कल्याणकारी प्रावधानों जैसे  सशर्त कैश ट्रान्सफर का लाभ नहीं प्राप्त कर सकते। शहरी आवास के लिए योजनाएं भी मान्यता प्राप्त झुग्गी बस्तियों तक ही सीमित हैं, जिनमें रहना मौसमी प्रवासियों के लिए बहुत महंगे होने के कारण संभव नहीं है।
  • विकास योजनाओं की स्थिर प्रकृति : ये योजनाएँ हर 10 वर्ष के अंतराल पर शहरों में प्रवास की स्थितियों में आनेवाले बदलावों और प्रवास की व्यापकता पर बिना ध्यान दिए बनाई जाती हैं। जनसंख्या के जिन अनुमानों पर योजनाएं बनती हैं उनमें प्रवास को नजरअंदाज कर दिया जाता है| यह उन स्थानों/शहरों में भी होता जो प्रवासी मजदूरों के गढ़ (हॉटस्पॉट) हैं।
  • टैक्स देने वाले नागरिक तक ही सीमित परिकल्पना : यह शहरी स्थानीय निकायों की उस बेतुकी पूर्वाग्रही मानसिकता को दर्शाता है, जिसमे मजदूरों को शहर के वैध नागरिक मानने से इनकार किया जाता है। प्रवासी मजदूरों की देखरेख को उद्योगों की जिम्मेदारी माना जाता है । इसको लागु करवाने का दायित्व श्रम विभाग का है जो कम संसाधन, कम कर्मचारियों वाला विभाग है । श्रम विभाग इस अनौपचारिक कार्य समूह [workforce] के लिए बने नियमों को लागू करवाने में असमर्थ है।
  • नस्ल और जाति आधारित लांछन व उत्पीड़न : प्रवासी मजदूरों को नस्ल, जाति और वर्ग के आधार पर भी व्यापक रूप से उत्पीड़ित किया जाता है। उन पर पुलिस अधिकारी जो आरोप लगाते हैं उनमें से कुछ इस तरह से हैं :  “ये लोग सूरत को अपना शहर नहीं मानते हैं”, “ये शहर को गंदा करते हैं”। पुलिसकर्मियों का कहना था कि प्रवासी मजदूर ‘दिमागी तौर पर मरे हुए’, ‘आपराधिक’ और ‘हमेशा नशीले पदार्थों के प्रभाव में रहने वाले’ और ‘सुरक्षा के लिए खतरा’ हैं।
  • सेवाएँ देने में प्रोत्साहनों [Incentives ]की दिशाहीनता : लक्षित समूह तक सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने और उसका सरकारी कार्यक्रमों से जुडाव बनाये रखने के लिए सरकारी नीतियों में कई तरह के प्रोत्साहन दिए जाने की व्यवस्था है। उदाहरण के लिए एएनएम और आशा कार्यकर्ता, जो एएमसी का हिस्सा हैं, को हर गर्भवती महिला और बच्चों को लगातार टीका लगाते रहने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। माना जाता है कि इससे नई बस्तियों को जोड़ने, उसमें नये पात्रों की पहचान उन तक लगातार सेवा पहुंचाने की जिम्मेदारी को बढ़ावा मिलेगा। हालाँकि इरादा सेवा पहुंचाने की गुणवत्ता और निरंतरता सुनिश्चित करना है, लेकिन प्रवासी समुदायों के लगातार स्थान बदलते रहने, अस्थाई कामकाज व रहन-सहन के तरीकों से इन प्रोत्साहनों का तारतम्य नहीं बैठता और यह वर्ग  इन सेवाओं से वंचित ही रह जाता हैं।
  • मांगों को राजनीतिक समर्थन का अभाव : शहरों में मतदान के अधिकार के अभाव में प्रवासी सरकारी सेवाओं में हिस्सेदारी के अपने उचित दावों और उन्हें इनमें शामिल करते हुए सुधार की माँग करने जैसी किसी भी तरह की राजनीतिक पहल से वंचित हो जाते हैं। शहरों की योजना प्रक्रिया, पानी के कनेक्शन, आंगनवाड़ियों की स्थापना आदि सभी काम वार्ड काउंसलरों या पार्षदों के जरिए होते हैं जो केवल वोट देने वाले लोगों की सुनते हैं।

कोविड-19 और उसके बाद के दौर में समावेशी शहरों का निर्माण

इस रिपोर्ट के प्रकाशन के समय शुरुआती 21 दिवसीय लॉकडाउन 18 दिनों के लिए और बढ़ा दिया गया। अभी भी प्रवासी मजदूरों तक पहुँचने के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं बनाई गई है। ये कई हफ्तों से बुनियादी जरूरतों से वंचित रहे हैं और इससे इन समुदायों में घबराहट और बेचैनी है। प्रवासी श्रमिकों को सरकारी सेवाओं और औपचारिक रोजगार व्यवस्थाओं में शामिल  करने के लिए किए गए त्वरित प्रयास, महामारी के बाद के दौर में समावेशी शहरों के निर्माण में प्रभावी व मददगार साबित हो सकते हैं।

  • सार्वजनिक व्यवस्थाओं के लिए प्रवास के गढ़ों [ हॉटस्पॉट ] की पहचान और इन्हें सूचीबद्ध करना : स्थानीय अधिकारियों को मजदूर समूहों के मंचों और स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से शहरों में प्रवासियों के इलाकों तक पहुंचना चाहिए। स्थानीय स्तर पर मजदूरों को सूचिबद्ध करना चाहिए। इन क्षेत्रों में सरकारी सुविधाओं की व्यवस्था जल्द से जल्द सुनिश्चित करनी चाहिए।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सार्वभौमीकरण : शहरी इलाकों में रहने वाले सभी व्यक्तियों को प्राथमिकता के आधार पर पर्याप्त राशन प्रदान किया जाना चाहिए। स्थानीय निवास के प्रमाण से संबंधित सभी बाधाओं को खत्म किया जाना चाहिए। यह विशेष रूप से दूर-दराज के शहरी इलाकों में स्थित प्रवासी बस्तियों के लिए आवश्यक है जो शहरी स्थानीय निकायों के कार्य-क्षेत्र से बाहर हो सकते हैं।
  • पर्याप्त और सुरक्षित आवास की व्यवस्थाएँ : कई प्रवासी मजदूरों को उनके कार्यस्थलों से हटाया जा रहा है। वे जिन अस्वच्छ, खचाखच भरे किराए के कमरों में रहते हैं जो लॉकडाउन के दौरान जिंदा बचे रहने के लिए भी अनुपयुक्त हैं। इन मजदूरों को रहने के लिए सुरक्षित स्थान दिया जाना चाहिए। जिसमें परिवार के लिए कमरें, महिलाओं के लिए अलग शौचालय, साथ ही साथ एकल महिला प्रवासियों के लिए सुरक्षा के प्रावधान हों । प्रवासी समूहों को अपने समुदायों के साथ रहने की अनुमति होनी चाहिए। भोजन और स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुँच सुनिश्चित हो। सरकार और नागरिक समाज के प्रतिनिधि इन स्थलों की नियमित रूप से निगरानी करें।
  • शहरी स्वास्थ्य सेवाओं  तक पहुंच : शहरी स्वास्थ्य केंद्रों को प्रवासी समुदायों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए । उनके  खुलने का समय लचीला होना चाहिए । उनमें विभिन्न भाषाई समूहों की बात को समझने और उनकी जरूरतें पूरी करने की क्षमता होनी चाहिए । प्रवासी समुदायों से दस्तावेजीकरण के हर प्रकार के बोझ को दूर करना चाहिए। प्रवासी समुदायों में स्वास्थ्य जांच के लिए आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं की पहुंच सुनिश्चित करना सेवाओं से वंचित प्रवासी समूह को मौजूदा व्यवस्थाओं में शामिल करने के लिए आवश्यक कदम हैं।
  • लैंगिक न्याय के लिए कदम : लॉकडाउन के परिणामस्वरूप उत्पीड़न और घरेलू हिंसा में हुई बढ़ोतरी की पहचान करने और उस पर कार्यवाही करने के लिए पुलिस से सहयोग की मांग की जानी चाहिए। पुलिस को इस उद्देश्य से अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली प्रवासी महिलाओं तक पहुंचना चाहिए व हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहना चाहिए। शहरी स्वशासन अधिकारियों को इस समय संकट में फंसी प्रवासी महिलाओं के लिए मदद की ढाल बनाना चाहिए, जिसे बाद में महिला संसाधन केंद्रों में बदला जा सकता है।
  • बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए नियोक्ताओं और मकान मालिकों पर कानूनी प्रावधान : प्रवासी अपने निवास-स्थल में बुनियादी सुविधाओं को पाने के लिए नियोक्ताओं और मकान मालिकों पर काफी हद तक निर्भर रहते हैं। इन सुविधाओं की उपलब्धता, उनकी पर्याप्तता और गुणवत्ता के लिए मानक स्तर कार्यकारी आदेशों द्वारा निर्धारित किए जाने चाहिए। यही आगे चलकर इनके कानूनी स्वरूप का आधार बन सकते हैं। अनौपचारिक मकान-मालिकों को अपनी जगह प्रवासी मजदूरों को किराये पर देने के लिए राज्य से सब्सिडी द्वारा प्रोत्साहित किया जा सकता है । इसके  बदले मकान किराए पर देने की प्रक्रिया को औपचारिक बनाया जा सकता है। छोटे और सीमित संसाधनों वाले नियोक्ता जो अपने मजदूरों के आवास की व्यवस्था नहीं कर सकते अथवा जो मजदूर जो पीस-रेट पर काम करते हैं या निवास केन्द्रित  हैं, इन प्रकार के सभी मजदूर समूहों के लिए सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था करनी चाहिए।

अंत में निष्कर्ष यह है कि, यह बहुत आवश्यक है कि शहरी प्लानिंग और नीति की प्रक्रियाएं प्रवासियों को शहरी नागरिकों के एक वैध हिस्से के रूप में पहचाने । यह समझे कि उन्हें भी अति आवश्यक सरकारी सेवाओं की जरूरत है। आज की परिस्थिति में प्रवासी मजदूरों पर आम लोगों की नज़रें टिकी हैं, उन्हें नीति निर्धारकों का ध्यान मिल रहा है। इसका उपयोग नागरिकता और सामाजिक अधिकारों की सार्वभौमिक पहुंच की धारणा की पुनर्कल्पना और पुनर्रचना में किया जा सकता है । इससे प्रवासी श्रमिक एक नई उम्मीद, बराबरी की भावना और गरिमा के साथ हमारे शहरों में हिस्सेदारी का दावा कर सकेंगे।

पूरी रिपोर्ट पढ़ने और डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

View all posts by जनपथ →

5 Comments on “खुल जाए शहर का ताला: अहमदाबाद और सूरत में प्रवासी मजदूरों पर आजीविका ब्यूरो का अध्ययन”

  1. We’re a group of volunteers and starting a new scheme in our community.
    Your website offered us with valuable info to work on. You have done
    a formidable job and our entire community will be thankful to you.

  2. I need to to thank you for this excellent read!! I certainly enjoyed
    every bit of it. I’ve got you bookmarked to look at new things you post…

  3. I’m not sure where you’re getting your info, but good topic.
    I needs to spend some time learning more
    or understanding more. Thanks for great info I was looking for this information for my mission.

  4. Hey I know this is off topic but I was wondering if you knew of any widgets I could add to my blog that automatically tweet
    my newest twitter updates. I’ve been looking for a plug-in like this for quite some
    time and was hoping maybe you would have some experience with
    something like this. Please let me know if you run into anything.
    I truly enjoy reading your blog and I look forward to your new
    updates.

  5. Thank you for the auspicious writeup. It in fact was a amusement account it.
    Look advanced to far added agreeable from you!
    However, how could we communicate?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *