क्या भारत का जनतंत्र फ़ेसबुक-ग्रस्त हो चुका है?


एवगेनी मोरोजोव (जन्म 1984), बेलारूस में जन्‍मे अमेरिकी लेखक, क्या यह नाम परिचित दिखता है? शायद नहीं! यह विद्वान, जो टेक्नोलॉजी के राजनीतिक और सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करते हैं वह उन शुरुआती साइबर सन्देहवादियों में शुमार किये जाते हैं, जिन्होंने तानाशाहियों को चुनौती देने की वेब की क्षमता पर पहले ही गंभीर सवाल खड़े किये थे।

दरअसल, जब अरब बसंत अपने उरूज पर था और हजारों की तादाद में अरब अवाम अपने यहां के तानाशाहों को, निरकुंश शासकों को चुनौती देती हुई सड़कों पर उतरी थी- जिसमें सोशल मीडिया उसकी सहायता में काफी सक्रिय था- यह शख्स लोगों को बता रहा था कि किस तरह इंटरनेट तानाशाहियों की मदद करता है। यह एक ऐसा कदम था जिसे उस वक्त़ कुफ्र समझा गया था।

अपनी चर्चित किताब ‘द नेट डिल्यूज़न: द डार्क साइड ऑफ इंटरनेट फ्रीडम’ (प्रकाशन वर्ष 2011) जिसकी काफी चर्चा भी हुई, उसमें वह दो भ्रमों पर अपने आप को केन्द्रित करते हैं। एक, जिसे वह साइबर काल्पनिकतावाद (cyber utopianism) के नाम से संबोधित करते हैं, जिसकी निहित समझदारी यही होती है कि इंटरनेट की संस्कृति बुनियादी तौर पर मुक्तिकामी होती है; दूसरे, ‘‘इंटरनेट केन्द्रीयता’’, यह विश्वास कि आधुनिक समाज और राजनीति के बारे में हर अहम प्रश्न को इंटरनेट के सन्दर्भ में प्रस्तुत कर सकते हैं।

In conversation with Evgeny Morozov, International Journalism Festival

इस बात में फिर कोई आश्चर्य जान नहीं पड़ता कि जिन दिनों नेट को लेकर महिमामंडन अधिक हो रहा था तब मोरोजोव जैसे लोग ‘विक्षिप्त’ ही समझे जाते थे। दरअसल, नेट को लेकर उत्साह एवं उमंग का वातावरण चौतरफा था, जिसका प्रतिबिम्बन प्रतिष्ठित मैसेच्युएट्स इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की पत्रिका ‘एमआइटी रिव्यू’ में भी देखने को मिला था (2013) जिसका फोकस था कि ‘‘बिग डेटा विल सेव पॉलिटिक्स’- जहां यह बताया गया था कि यह नयी टेक्नोलॉजी किस तरह तानाशाहों के लिए ‘‘ख़तरनाक’’ साबित हो सकती है।

निश्चित ही वह वक्त़ अब गुजर गया है। कम से कम अनुभूति/संवेदन के स्तर पर चीजें बदलती दिख रही हैं।

आज की तारीख में ऐसे विद्वान और कार्यकर्ताओं की तादाद बढ़ती दिख रही है, जिन्होंने नेट पर और सोशल मीडिया की प्रभावोत्पादकता पर सवाल खड़े किये हैं और जो ‘‘साइबर काल्पनिकतावाद/यूटोपियनिज्‍़म’’ को चुनौती देते दिख रहे हैं- जिसके प्रभाव में नीति-निर्माता ही नहीं बल्कि साधारण जनता भी आती दिख रही है- और यह बात दावे के साथ कह रहे हैं कि सोशल मीडिया किस तरह अधिनायकवाद और असमावेशी राजनीति को बढ़ावा दे रहा है और किस तरह वह दुनिया भर में अतिदक्षिणपंथ को मजबूत कर रहा है।

दरअसल, तटस्थ प्रेक्षक उनके सामने घटित उस प्रसंग से लगभग अचम्भित थे जब ब्राजील के चुनावों में डेढ़ साल पहले दक्षिणपंथी सियासतदां बोलसोनारो की राष्ट्रपति के पद पर जीत हुई थी और उनके अपने समर्थकों का एक हिस्सा विजय सभाओं में उनकी इस जीत के लिए- फेसबुक और व्हाट्सएप- को श्रेय देता दिख रहा था।

A woman holds a sign with an image of presidential candidate Jair Bolsonaro that reads “He lies in WhatsApp,” during a protest against Bolsonaro in Sao Paulo, Brazil, October 20, 2018 | Reuters/Nacho Doce

यह स्पष्ट था कि वह चुनाव जिसमें एक दक्षिणपंथी बिजनेस समूह ने संगठित रूप में विपक्ष को निशाना बनाते हुए जबरदस्त दुष्प्रचार की मुहिम चलायी थी, फेक न्यूज़ का प्रचार किया था, जिसने बोलसोनारो के पक्ष में जनमत को पहले ही अनुकूलित कर लिया था।

प्रोफेसर रोनाल्ड डीबर्ट, जो टोरोन्टो विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं, वह ऐसे आलोचकों की कतार में अग्रणी हैं जिन्होंने साफ कहा था कि ‘नवफासीवाद के गर्त में जाती दुनिया के लिए सोशल मीडिया को भी एक हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।’’

एक जमाने में नेट/सोशल मीडिया के प्रभाव को लेकर उत्साहित रहने वाले प्रोफेसर डीबर्ट ने अपने एक लम्बे आलेख में सोशल मीडिया पर अपनी बढ़ती बेचैनी को साझा किया था। जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी नामक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपे उनके आलेख का शीर्षक था: ‘डिजिटल गुलामी की ओरः सोशल मीडिया को लेकर तीन पीड़ादायक सच्चाइयां’:

सबसे पहली पीड़ादायी सच्चाई यह है कि सोशल मीडिया बिजनेस वह निजी डेटा की निगरानी के इर्द-गिर्द केन्द्रित हैं, जिसके उत्पाद अंततः इसी दिशा में बढ़ते हैं कि हम पर वह जासूसी करे और हमारी दिशा में खास किस्म के विज्ञापनों को बढ़ाये। दूसरी कड़वी सच्चाई यह है कि हम लोगों ने इसके प्रति अपनी सहमति दी है, लेकिन सभी बिल्कुल सचेतन तौर पर नहीं। दरअसल, सोशल मीडिया को नशा के मशीनों के तौर पर डिजाइन किया जाता है, जो हमारी भावनाओं का दोहन करने के लिए प्रोग्राम्ड होती है। तीसरी कड़वी सच्चाई यह है कि सोशल मीडिया में निहित ध्यानाकर्षण वाले अल्गॉरिथम  (algorithm) ऐसे अधिनायकवादी व्यवहारों को भी बढ़ावा देते हैं जो विभ्रम फैलाने, अज्ञान, पूर्वाग्रह और अराजकता को सुगम बनाने में सहायता करते हैं और इस तरह उसकी जवाबदेही को कमजोर करते हैं तथा उसके साथ खिलवाड़ को आसान बनाते हैं। इसके अलावा, आर्थिक वजहों से यह कंपनियां जो बारीक निगरानी रखती हैं, वह अधिनायकवादी नियंत्रण का भी रास्ता आसान कर देती हैं।

द रोड टु डिजिटल अनफ्रीडम- थ्री पेनफुल ट्रुथ्‍स अबाउट सोशल मीडिया’ । रोनाल्ड डीबर्ट; जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी, जनवरी 2019, खंड 30, अंक 1

आज की तारीख में सोशल मीडिया के इर्द-गिर्द बहस इस वजह से भी तेज हो रही है क्योंकि फेसबुक की भारत की सत्ताधारी पार्टी के साथ कथित सांठगांठ को लेकर पश्चिमी मीडिया में काफी स्टोरी आयी हैं और अधिकाधिक ऐसे विवरण भी सामने आ रहे हैं कि किस तरह यह सोशल मीडिया कम्पनी ‘भाजपा के हक़ में पक्षपाती कार्रवाइयों में मुब्तिला थी और किस तरह सरकार के साथ उसके व्यापक सम्बन्ध सामने आ रहे हैं।’ न केवल सिविल सोसायटी जमातों की तरफ से बल्कि विपक्षी पार्टियों की तरफ से भी यह मांग उठ रही है कि फेसबुक की जांच हो।

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इस सन्दर्भ में प्रोफेसर डीबर्ट द्वारा साझा की गयी तीन पीड़ादायी सच्चाइयां मौजूं हो उठी हैं। कितनी आसानी से हम लोगों ने निजी डेटा निगरानी की प्रणाली को लगभग स्वेच्छा से कायम होने दिया, किस तरह हम ‘नशे की उस मशीन’ का शिकार हो रहे हैं जो हमारी भावनाओं से खिलवाड़ करती है और किस तरह जनतांत्रिक रास्तों से हम बहुसंख्यकवादी निज़ाम में पहुंच गये हैं और किस तरह पूर्वाग्रह, अज्ञान आदि के इर्द-गिर्द खड़ी ‘‘हम’’ और ‘‘वे’’ की राजनीति ने जनता के अच्छे-खासे हिस्से के कल्पनाजगत पर कब्जा किया है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भारत में फेसबुक के 35 करोड़ से अधिक सबस्क्राइबर्स हैं और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। व्हाट्सएप के सबस्क्राइबर्स की संख्या भी 20 करोड़ से अधिक है।

सवाल यह उठता है कि हमारे सामने जो समस्या खड़ी है उसकी गहराई को हम क्या देख पा रहे हैं और क्या हम इस स्थिति में हैं कि इस दलदल से कैसे निकला जाए? इसके बारे में हम कुछ सोच पाएं, जबकि यह हम सभी के सामने है कि भारत की मुखर कही जा सकने वाली जनता के अच्छे-खासे हिस्से का सूचनाओं का एकमात्रा स्रोत अब यही सोशल मीडिया बन चुका है?

प्रधानमंत्री मोदी के साथ हाथ मिलाते हुए फेसबुक की नीति निदेशक आँखी दस और साथ में कंपनी की सीओओ शेरिल सैंडबर्ग

इस व्यापक चुनौती से रूबरू होने के पहले यह जानना जरूरी है कि क्या हम विकसित होते इस परिदृश्‍य को लेकर गाफिल थे कि अमेरिका में बसी एक विदेशी कम्पनी- जिसके ट्रम्‍प प्रशासन के साथ नजदीकी ताल्लुकात हैं- को हमारे मुल्क के मामलों में दखल देने का मौका दिया जा रहा है? क्या हमें इस बात का आभास था कि किस तरह एक सोशल मीडिया कम्पनी असमावेशी राजनीति के लिए अनुकूल किस्म के विमर्श को ही हवा दे रही है और कम से कम वस्तुनिष्ठ तौर पर सत्ताधारी जमात की मदद करती दिख रही है?

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यह मुमकिन है कि जिस तरह फेसबुक ने मोदी की चुनावी यात्रा में- जैसा कि वॉल स्ट्रीट जर्नल का लेख दावा करता है- मदद पहुंचायी, वह बात हमारे ध्यान में नहीं आयी हो या किस तरह फेसबुक की ‘ग्लोबल गवर्मेन्ट एण्ड पॉलिसी यूनिट’- जिसकी अगुआई केटी हरबाथ कर रही थी, उस पर हम लोगों ने गौर नहीं किया हो। याद रहे, ब्लूमबर्ग ने फेसबुक की कार्यप्रणाली को लेकर एक तीखा आलेख लिखा था और बताया था कि उसके चलते डिजिटल प्रचार को किस तरह अंजाम दिया जा रहा है। इतनी बात जरूर कही जा सकती है कि सोशल मीडिया के माध्यम से फेक न्यूज़ का जाल किस तरह बिछाया जा रहा है, किस तरह लोगों को गलत ढंग से प्रभावित किया जा रहा है, वह बखूबी लोगों के सामने था।

हम व्हाट्सएप द्वारा ही प्रायोजित रिपोर्ट को देख सकते हैं जिसे क्वीन्स मेरी युनिवर्सिटी के सहयोग से तैयार किया गया था और जिसके अंश एक अग्रणी ओपन स्पेस जर्नल ‘द कानवर्सेशन’ में प्रकाशित हुए थे, जिसमें बताया गया था कि 2019 के भारत के चुनावों को ‘व्हाट्सएप इलेक्शन’ कहा जा रहा है। इंटरनेट कनेक्टिविटी के बढ़ते विस्तार और स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल तथा व्हाट्सएप की बढ़ती लोकप्रियता के सहारे किस तरह फेक न्यूज़ का आलम बढ़ता जा रहा है, किस तरह हिंसक घटनाएं बढ़ रही हैं, और यह सभी किस तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा बन रहा है, यह सारी बातें उसमें लिखी गयी थीं।

फरवरी 2019 में सम्पन्न दूसरे एक सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आयी थी कि दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत में फेक न्यूज़ का प्रचार ज्यादा है। इतना ही नहीं, ‘‘भारत में हिन्दू राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार के बाद तमाम भारतीयों को यह लगने लगा है कि अपने पास आ रही सूचनाओं को आगे फॉरवर्ड करना उनका देशभक्तिपूर्ण कार्य है।’’ 

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आज यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि फेसबुक के अपने दावों और उसके व्यवहार में अंतराल है, किस तरह अहम मौकों पर उसके कम्युनिटी स्टैण्डर्ड अनुपस्थित जान पड़ते हैं, किस तरह फेसबुक के मुखिया मार्क जुकरबर्ग को अमेरिकी सीनेट के सामने माफी मांगनी पड़ी क्योंकि म्‍यांमा में नफरत भरे वक्तव्यों को प्रसारित करने में फेसबुक की विवादास्पद भूमिका प्रश्नांकित हुई थी जिसकी परिणति वहां नस्लीय संहार में हुई थी। इतना ही नहीं, खुद संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने यह आरोप लगाया था कि किस तरह नफरत भरे वक्तव्यों को साझा करने में फेसबुक ने भूमिका अदा की। इस समूची पृष्ठभूमि में हम सभी को अत्यधिक सतर्क रहने की जरूरत है।

आज जब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि किस तरह कम्पनी ‘‘राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ सक्रिय रूप से काम करती है- जो प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल विपक्ष की आवाज़ को कुचलने के लिए करते हैं कभी-कभी ट्रोल आर्मी के सहारे दुष्प्रचार करके और अतिवादी विचारों को बढ़ावा देकर’’- ऐसे समय में हमारे सामने क्या रास्ता बचता है?

निश्चित ही, जैसा कि विपक्षी पार्टियों ने मांग की है इस मामले की उच्चस्तरीय जांच होना जरूरी है। एक विदेशी कम्पनी जितने धड़ल्ले से देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रही है, यह चिन्ता का विषय है। यही वह स्थितियां हैं जिसने ‘भारत के जनतंत्र और सामाजिक सद्भाव पर जबरदस्त हमला किया है।’’

सबसे अच्छा तरीका होगा कि एक संयुक्त संसदीय कमेटी का गठन किया जाए जो इस मामले की निष्पक्षता से जांच करे ताकि पूरी सच्चाई सामने आ सके। निश्चित ही वे सभी पार्टियां जो राष्ट्रीय सम्प्रभुता में यकीन रखती हैं, उन्हें इस मामले में कोई गुरेज़ नहीं होगा।

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एक क्षेपक के तौर पर बता दें कि पिछले दिनों दिल्ली विधायिका द्वारा गठित पीस एण्ड हार्मनी कमेटी ने भी फेसबुक के खिलाफ़ लगे आरोपों की जांच के लिए एक सुनवाई का आयोजन किया था जिसमें पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं ने हिस्सेदारी की। कमेटी की तरफ फेसबुक नुमाइन्दों को भी अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया है।

यह जानते हुए कि ऐसी जांच की सिफारिशों का प्रतीकात्मक महत्व ही होता है, लेकिन देश के जनसंगठनों एवं विपक्ष द्वारा शासित राज्यों को चाहिए कि वह भी ऐसे आयोजन अपने यहां करें। एक विशालकाय कम्पनी की सक्रियताओं को जानने के लिए जांच जरूरी ही है, लेकिन हमें लिबरल जनतंत्र के भविष्य के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए, जिसकी तरफ प्रोफेसर डीबर्ट ने इशारा किया है।

उनके मुताबिक:

एक लम्बे दौर के सुधार की रणनीति की आवश्यकता है, जिसका विस्तार निजी से राजनीतिक तक हो, स्थानीय से ग्लोबल तक हो। हमें चाहिए कि हम अपने सूचना वातावरण के साथ उसी तरह से पेश आएं जैसे कि हम अपने प्राकृतिक वातावरण को लेकर रहते हैं- एक ऐसी स्थिति जिस पर हम अपना नेतृत्व रखते हैं और जिसकी ओर हम सावधानी एवं संयम से पेश आते हैं। अगर ऊर्जा का संरक्षण जरूरी है तो डेटा उपभोग के संरक्षण की भी आवश्यकता है।

द रोड टु डिजिटल अनफ्रीडम- थ्री पेनफुल ट्रुथ्‍स अबाउट सोशल मीडिया’ । रोनाल्ड डीबर्ट; जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी, जनवरी 2019, खंड 30, अंक 1

शायद वक्‍त आ गया है कि हम इन रणनीतिक दिशाओं में सोचना शुरू करें। 


सुभाष गाताड़े वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक हैं

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