शिक्षाविद् और सामाजिक आंदोलनों के गुरु अनिल चौधरी को इस दुनिया से गए पांच महीने हो रहे हैं। इस बीच उनकी श्रद्धांजलि स्वरूप दिल्ली से लेकर लखनऊ, रांची, जौनपुर इत्यादि कई जगहों पर सभाएं हुईं, लेकिन बीते महीने की बीस तारीख को बनारस में हुई सभा इस मायने में विशिष्ट रही कि जिन वंचितों, मजलूमों और उत्पीड़ितों को संबल देने में उन्होंने अपना जीवन लगा दिया था उनकी इस सभा में न सिर्फ उपस्थिति रही बल्कि उनकी मर्मभेदी गवाहियों ने इस बात का अहसास करवाया कि अनिल चौधरी का शुरू किया काम उनकी अनुपस्थिति में रुकेगा नहीं, चलता रहेगा।
इस कार्यक्रम की जीवंतता और उसकी परिकल्पना की विश्वसनीयता का गवाह बना एक दृश्य ऐसा है, जो दिल्ली जैसे महानगरों में देखने को कभी नहीं मिल सकता। सोनभद्र से आए एक यातना पीड़ित बुजुर्ग जटई अपनी गवाही के बाद फफक-फफक कर रोने लगे। आयोजन के सूत्रधार रहे डॉ. लेनिन ने उन्हें चुप करवाते हुए गले लगाया और सम्मानित करते हुए कहा, ‘’रोवत काहे हउवा? डेराये क कौनो बात नाही। मस्त रहा।‘’ यह अनिल चौधरी की जमीनी परंपरा जमीन की भाषा में एक वंचित और कमजोर आदमी से बोल रही थी, ताकि वह मजबूत बन सके।


अनिल चौधरी के जीवन और कर्म की प्रेरणा यह थी कि वे अच्छे लोगों को ताकतवर बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने जैसे सैकड़ों लोग इस प्रक्रिया में पैदा किए। सामाजिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे संगठनों को उन्होंने एक बहुमूल्य नारा दिया था, ‘’जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई।‘’ अगर लड़ने वाला अंतिम आदमी ही गुरु की श्रद्धांजलि से नदारद हो, तो वह कैसा तर्पण?
दिल्ली की दो सभाओं में (एक अप्रैल और दूसरी जून) यह बात बहुत से लोगों को अखरी थी कि अनिल चौधरी को उनकी विशिष्ट परंपरा के हिसाब से श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकी। स्वाभाविक है, दिल्ली में ऐसा संभव भी नहीं था। इसीलिए अनिल चौधरी को चाहने वाले बहुत से लोग काशी की धरती पर उनके तर्पण की प्रतीक्षा कर रहे थे, हालांकि बहुत से लोगों को यह बात वहां भी हजम नहीं हुई कि श्रद्धांजलि सभा में आखिर यातना पीड़ितों का क्या काम? लेकिन यही वह नुक्ता था, जिसने एक व्यक्ति की श्रद्धांजलि को एक सामाजिक कर्म में तब्दील कर दिया और वंचित-पीड़ित समुदायों के सशक्तीकरण का बायस बना डाला।
आयोजन का शीर्षक बिलकुल इसी भावना से मेल खाता था, ‘’समुदायों का निर्माण, आशा का निर्माण’’। किसी भी किस्म के सामुदायिक काम के मूल में आशा का होना जरूरी है। आशा ही वह रेशा है जो अंतिम आदमी को परिवर्तन के खयाल से बांधे रखती है। अनिल चौधरी ने अपने जीते जी जनता के मुद्दों और विचारों के इर्द-गिर्द जितने विविध किस्म के समुदाय निर्मित किए, वह अपने आप में एक शोध का विषय है। बनारस में उनकी याद में हुए जुटान ने दिखा दिया कि उनके बनाए परिवर्तनकारी समुदाय अब भी सक्रिय हैं और आज भी वे पहचान की बीमारी से बचे हुए हैं, जिससे अनिल चौधरी हमेशा सतर्क करते थे।
यह उनकी बहुलतावादी परंपरा ही रही, कि पराड़कर भवन में मंच पर पत्रकार विजय विनीत (नवदलित सम्मान), कवि व्योमेश शुक्ल, कमलेंद्र कुमार सिंह, अधिवक्ता चे ग्वारा रघुवंशी और मानवाधिकार कार्यकर्ता पिंटू गुप्ता (सभी जनमित्र सम्मान) को एक साथ सम्मानित किया गया जबकि कार्यक्रम की अध्यक्षता इतिहासकार डॉ. मोहम्मद आरिफ ने की। सम्मान समारोह के चयन से लेकर यातना पीड़ित समुदाय की भागीदारी तक, यह श्रद्धांजलि सभा काशी की बहुलतावादी, बहुसांस्कृतिक सह-अस्तित्व की सनातन संस्कृति का गवाह रही। इतना ही नहीं, जब मंचस्थ अतिथियों ने सोनभद्र के ग्रामीणों सोनू, नंदलाल, दिनेश और शिवशंकर को शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया, तो यह बात बिना कहे अपने आप स्थापित हो गई कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता, समुदाय और उसके सशक्तीकरण का विचार अहम होता है।
आयोजन के इस अनूठे तत्व को रेखांकित करते हुए अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. आरिफ ने बहुत खूब बात कही, “पीड़ितों का इलाज चौधरी साहब इस तरह करते थे कि अपने आखिरी दिनों तक भी जख्मों पर मरहम लगा कर सामने वाले को राहत का अहसास करवाते थे। चौधरी साहब तीन बातों के लिए जाने जाएंगे संसार में: एक था सांप्रदायिकता का विनाश करो। दूसरा था लोकतंत्र की रक्षा में खड़े हो। तीसरा था भूमंडलीकरण का प्रतिरोध करो। इन तीन मंत्रों पर काम करने वाले भारत भर में उनके कई कमांडर मौजूद हैं!”
काशी के डॉ. लेनिन उन्हीं कमांडरों में से एक हैं, जिनकी संस्था जनमित्र न्यास और पीवीसीएचआर ने महीनों की अथक तैयारी से इस आयोजन का ताना-बाना बुना था। यह आयोजन बेशक और पहले हो सकता था, लेकिन अनिल चौधरी जैसी शख्सियत को रस्मी श्रद्धांजलि देने का कोई मतलब नहीं था जब तक कि उनके मूल विचार और राजनीति की झलक न मिले। इसीलिए, बनारस की श्रद्धांजलि सभा चार महीने बाद भी खास और चर्चित बन गई क्योंकि चालीस साल के दौरान हजारों लोगों को अनिल चौधरी की सिखाई अनुभव-आधारित सहभागितापूर्ण सामुदायिक प्रैक्टिस यहां जमीन पर चरितार्थ होती साफ-साफ दिखाई दी।


जनमित्र न्यास, PVCHR के साथ IRCT, GHPF, JUSTER और संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNVFVT का भी इस आयोजन में हाथ रहा। खास बात यह भी रही कि यह सभा PVCHR के वार्षिक सम्मेलन का बायस बनी। यानी संस्था ने अपना वार्षिक सम्मेलन अनिल चौधरी को समर्पित कर दिया। साथ ही डॉ. लेनिन ने अनिल चौधरी की संस्था PEACE के कार्यकर्ताओं को भविष्य में द्विवार्षिक वजीफा और नवदलित सम्मान देने की घोषणा की।
कार्यक्रम में दिल्ली से PEACE के कार्यकारी निदेशक श्री जितेंद्र चाहर भी पहुंचे थे, जिन्होंने अपने विशिष्ट संबोधन में बहुत विस्तार से अनिल चौधरी की वैचारिक दृष्टि को रेखांकित किया और उनकी एक केंद्रीय शिक्षा की याद सबको दिलाई, ‘’सामाजिक परिवर्तन कोई प्रोजेक्ट नहीं है, निरंतर चलने वाली एक सामाजिक प्रक्रिया है।” इसी सामाजिक प्रक्रिया को चलाए रखने के लिए अनिल चौधरी के कुछ गुरुमंत्र दिल्ली से ही आए पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने गिनवाए।
यातना पीड़ितों की गवाही और सम्मान कार्यक्रम के अलावा आयोजन का तीसरा मुख्य पहलू रहा किताबों का लोकार्पण। एक किताब अनिल चौधरी के ऊपर लिखे श्रद्धांजलि लेखों का संकलन है जिसे पीस ने छापा है। दूसरी किताब डॉ. लेनिन की दलितों पर लिखी है, जिसे फ्रंटपेज प्रकाशन, लंदन ने छापा है। प्रकाशन के प्रमुख श्री अभिजीत मजूमदार भी कार्यक्रम में मौजूद थे। उनका अंग्रेजी में संक्षिप्त संबोधन हुआ।
Book :Dalit in Independent IndiaPosted by Lenin Raghuvanshi on Saturday, August 9, 2025
अनिल चौधरी के बहुत से चाहने वाले और जानने वाले सभा में दूर-दूर से आए थे। सभा में बनारस के वरिष्ठ संपादक श्री एके लारी और शिव दास तो मौजूद थे ही, सामाजिक कार्यकर्ता श्री अरविंद मूर्ति भी मऊ से आए थे। आज़मगढ़ से किसान नेता राजीव यादव पहुंचे थे; पश्चिमी चम्पारण से पत्रकार अजय कुमार आए थे; चित्रकूट से कवि और सामाजिक कार्यकर्ता नित्यानंद आए थे; तो लखनऊ से सामाजिक कार्यकर्ता आशीष अवस्थी और ज्ञान जी आए थे। ये तमाम लोग अनिल चौधरी के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे थे।
PVCHR की प्रमुख श्रुति नागवंशी ने जब सभा में आए लोगों का धन्यवाद ज्ञापन किया, तो उन्होंने बहुत मार्के की बात कही। अनिल चौधरी के संदर्भ में सभा संचालक डॉ. शम्मी सिंह द्वारा प्रयुक्त ‘स्वर्गवास’ को उन्होंने दुरुस्त करते हुए कहा कि अनिल चौधरी ऐसे शब्द पसंद नहीं करते थे। इतनी बारीक सी बात को धन्यवाद ज्ञापन में प्रकाशित करना यह दिखाता है कि बनारस में हुई श्रद्धांजलि सभा अनिल चौधरी के जीवन दर्शन से किस कदर अनुप्राणित थी, सामाजिक रूप से क्यों अहम थी और राजनीतिक रूप से कितनी मुक्तिदायी थी।
काशी की धरती और लोगों ने देर से सही, लेकिन अपने प्रिय गुरु दिवंगत अनिल चौधरी का सुव्यवस्थित, सुचिंतित और भव्य तर्पण किया। संयोग से, इस साल का पितृपक्ष कल से शुरू होने जा रहा है। इस मौके पर काशी और अनिल चौधरी को याद करने का केवल यह मंतव्य है कि उनकी आत्मा अब मुक्त होकर हजारों देहों के माध्यम से आने वाले समय में मुक्ति के सपनों को अपना स्वर दे।
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