भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता की जड़ें औपनिवेशिक काल के अभिजन मुसलमानों तक जाती हैं


जिस तरह से हिन्दू साम्प्रदायिकता का अपना अलग आधार है उसी तरह से मुस्लिम साम्प्रदायिकता का। दोनों एक दूसरे के सहारे पली पुसी हैं यह इस समस्या एक पहलू भर है। यह बात आज के सन्दर्भ में नही कह रहा। आजादी पूर्व के सन्दर्भ में है। आजादी के बाद साम्प्रदायिकता का रूप स्वरूप बदला है।

साम्प्रदायिकता की जड़ में पांच चीजें आपस में गुंथी हुई हैं जिससे यह एक स्वतंत्र राजनीतिक विचारधारा बनी हैः

1. आधुनिक राजनीति का दबाव जिसमें जनता से भरोसा स्वीकृति पाना जरूरी है।
2. भौतिक हितों का संघर्ष। इसे class analysis कह सकते हैं।
3. सांस्कृतिक समझ जिसमें धर्म से जुड़ी बातें हैं।
4. इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या
5. औपनिवेशिक जनता का आत्मविश्वासहीन होकर अतीतजीवी हो जाना।

इन सब बातों ने मिलकर एक संश्लिष्ट जटिल राजनीतिक विचारधारा का निर्माण किया।

साम्प्रदायिकता की खास बात ये है कि कोई भी साम्प्रदायिक दल या व्यक्ति ये नहीं स्वीकार करता कि वो साम्प्रदायिक है। आप किसी भी साम्प्रदायिक व्यक्ति से बात करें तो वो यह बताएगा कि उसका धर्म साम्प्रदायिक हो ही नहीं सकता। वो अपने धर्म ग्रंथों में संकलित तमाम उद्धरणों का हवाला देगा जो आपसी भाईचारे और बंधुत्व की बात करेंगे। वो एक ही सांस में ये भी बताएगा कि उसके बहुत से निजी मित्र दूसरे धर्म वाले हैं और उसके उनसे पारिवारिक सम्बन्ध हैं लेकिन वो साम्प्रदायिक राजनीति का समर्थन जरूर करेगा। वो ये कहेगा कि क्या करें, मजबूरी में ये सब करना पड़ रहा है क्योंकि उस दूसरे धर्म वाले फलाँ फलाँ गलत काम करते हैं जिससे उसका खुद का धर्म बचाना मुश्किल होता जा रहा है। यानि वो अपने धर्म की रक्षा को आतुर नजर आएगा और मानेगा कि अपने धर्म संस्कृति की ‘रक्षा’ करना उसका फर्ज है। उसका धर्म कैसे संकट में है, इसका कोई ठोस कारण नहीं बताएगा। वो दूसरे धर्म को मिलने वाली छूटें गिनायेगा, लेकिन अगर पूछिये की दूसरे धर्म को कोई छूट मिलने से उसका खुद का धर्म कहां से संकटग्रस्त हो जाता है तो वो आक्रामक होकर एक प्रतियोगितात्मक विश्लेषण का सहारा लेगा। साम्प्रदायिक तर्क किस तरह लोगों के दिमाग मे जगह बनाते हैं ये बहुत रोचक विषय है जो फिर कभी। अभी बात मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उदय पर।

जब भारत में अंग्रेजी शासन पैर जमाने लगा तो जिन क्षेत्रों में ब्रिटिश सत्ता कायम हुई वहां इन्होंने पुरानी भूमि व्यवस्था को खत्म कर नई भू राजस्व नीतियों का सूत्रपात किया। जमीन का मालिकाना हक उनसे पहले भी जमीदारों के हाथ में था । अंग्रेजों ने बहुत से पुरानी जमींदारों को हटाकर व्यवस्था नए जमींदारों को दी। पैमाना एक ही था- अंग्रेजी सत्ता के प्रति वफादारी। जिन पुराने जमींदारों ने अंग्रेजी सत्ता स्वीकार कर ली उन्हें बनाये रखा गया। बहुत से जमींदार ऐसे नियुक्त हुए जिनका उन गांवों से कोई संबंध नहीं था और उनकी काबिलियत बस किसी भी प्रकार भू राजस्व इकट्ठा कर अंग्रेजों को देनी थी। इस प्रकार से पूरे देश में एक ऐसा प्रभावशाली जमींदार वर्ग तैयार हुआ जो अपने अस्तित्त्व के लिए अंग्रेजों पर ही निर्भर था। ये धनी वर्ग था और तमाम संसाधनों से लैस था। इसे अनुत्पादक सुविधाभोगी उच्च वर्ग कह सकते हैं। इस तरह से अंग्रेजी हुकूमत ने देश भर में रजवाड़ों-जमींदारों का एक मजबूत तंत्र स्थापित किया जिसकी स्वामिभक्ति अंग्रेजी हुकूमत के साथ थी और जो तमाम सुविधाओं, ऐशो आराम, पद प्रतिष्ठा के लिए उन्हीं पर निर्भर थे। इस तंत्र में मुसलमानों का उच्च तबका खूब शामिल रहा क्योंकि अंग्रेज पूर्व भूमि व्यवस्था में भी भारी तादाद में जागीरदार-जमींदार और छोटे रजवाड़े के रूप में मुस्लिम शामिल थे। (हिन्दू भी थे)

1850 तक भारत में अंग्रेजी औपनिवेशिक भू व्यवस्था मजबूती से जम चुकी थी। नए नए तरीकों से अंग्रेजों ने यहां पर भूमियों पर कब्जा बनाया और एक नया स्वामिभक्त जमींदार वर्ग तैयार किया। 1857 के विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया गया और इसके बाद जमींदार वर्ग ने अपनी बेहतरी इसी में समझी कि अंग्रेजी हुकूमत का दामन पकड़े रखा जाए।

1850 के बाद से ही भारत में एक नई राजनीति का सूत्रपात हुआ जिसे आधुनिक राजनीति कह सकते हैं। यह जन प्रतिनिधित्व पर आधारित थी यद्यपि बहुत ही सीमित अर्थों में। इसमें ज्यादातर को बिटिश हुकूमत स्वयं नॉमिनेट करती थी। निश्चित ही जब ब्रिटिश हुकूमत के हाथ में जन प्रतिनिधत्व की पावर थी तो वो उन्हीं लोगों को नॉमिनेट करते जो उनकी सरकार के लिए खतरा न होते बल्कि उसके सिद्धांतों में यकीन भी करते।

ब्रिटिश हुकूमत के कुछ सामान्य सिद्धांत थे जिनके आधार पर वो अपने शासन का औचित्य सिद्ध करते थे। यह केवल बंदूक का शासन भर नहीं रह गया था। 1860 आते आते ब्रिटिश हुकूमत ताकत के दम पर ही स्थापित हुई थी। युद्ध और जन संहार करके। एक बार जब सत्ता जमा ली तब उसे बौद्धिक विजय भी हासिल करनी थी। लोगों के दिल दिमाग पर कब्जा करना आधुनिक समय की राजनीति का प्रमुख अंग है, यह तथ्य दुनिया भर में स्थापित होने लगा था। तो वो कुछ सामान्य बातें ये थींः

1. अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय आपस में लड़ते रहे हैं। अंग्रेजी शासन ने कानून का राज स्थापित किया। Pax Britannica
2. भारतीय समाज मूलतः धर्म आधारित समाज रहा है। प्राचीन काल हिंदुओं के गौरव का काल है। मध्य काल में मुसलमान आये और उन्होंने हिन्दू सभ्यता के स्थान पर मुस्लिम सभ्यता स्थापित की। इस तरह मध्यकाल मुस्लिम काल हुआ। Communalization of History by imperialist historians assisted by British Authorities.
3 अंग्रेजों की बांटो और राज करो की सुव्यवस्थित नीति थी। Divide and Rule

यह जो इतिहास का काल विभाजन था वो साम्प्रदायिकता को दिल तक उतारने में काफी कारगर हुआ।

जो मुस्लिम अभिजन वर्ग नई जमींदारियां आदि पाकर अंग्रेजों के रहमोकरम पर था उसने इस थ्योरी को स्वीकार कर लिया। इससे दो फायदे उसे थे। एक तो उसे अपने खोए हुए आत्मविश्वास को अर्जित करने में मदद मिलती थी। दूसरे, जो कुछ एलीटपन उसे अंग्रेजों की बदौलत मिला था उसे मेन्टेन करना भी आसान था। साथ ही जन प्रतिनिधित्व की नामांकन प्रणाली के कारण यानी आधुनिक राजनीति के कारण तमाम प्रतिस्पर्धाएं भी अन्य धर्म वाले लोगों के साथ तनाव के रूप में सामने आ रही थीं तो उसे साम्प्रदायिकता का मूल तर्क कि ‘हिन्दू मुसलमान अलग अलग कौम हैं और उनके भौतिक हित अलग अलग हैं’ ये एक सच के रूप में महसूस भी होने लगा था।

इस प्रकार से यह एक मुस्लिम अभिजात्य वर्ग तैयार हुआ जो कि भूमि संसाधन, व्यापार, सरकारी संस्था में महत्त्व व भागेदारी, धन संपदा में मजबूत था और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा वाला था।

इसने मुस्लिम साम्प्रदायिकता का एक अखिल भारतीय फ्रेमवर्क तैयार किया। स्वाभाविक ही यह ब्रिटिश हुकूमत के नजदीक था और उनसे सार्थक विरोध में नहीं हो सकता था।

1890 के आसपास तक यह एक ऐसा मजबूत मुस्लिम तबका बना जो साम्प्रदायिकता के कुछ आधारभूत तर्कों को स्वीकार कर चुका था। ये मूल साम्प्रदायिक तर्क थेः

1. हिन्दू और मुसलमान अलग अलग कौमें हैं और उनके भौतिक हित एक समान न होकर आपस में टकराववादी हैं।
2. मुस्लिम संस्कृति पर एक आसन्न खतरा ये आ गया है कि हिंदुओ की तादाद अधिक है और वो मुसलमानों की सभ्यता आदि को दबा देंगे कुचल देंगे।
3. मुसलमानों को चाहिए कि वो अपने धर्म के आधार पर संगठित हों जिससे कि हिंदुओं की ज्यादतियों का मुकाबला कर सकें।
4. मध्यकाल में हमने (मुसलमानों) भारत पर शासन किया ।
5. मुसलमानों का अलग राजनीतिक संगठन होना चाहिए जिससे मुस्लिम हितों की रक्षा की जा सके।

इस तरह से संक्षेप में यह ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता की जमीन थी।

जैसे जैसे जन प्रतिनिधित्व आधारित राजनीति का विस्तार होता गया वैसे वैसे मुस्लिम एकजुटता भी बढ़ती रही। चूंकि केंद्रीय सत्ता यानि ब्रिटिश हुकूमत की मूल नीति divide and rule के ये माफिक था, इसलिए उसने इस मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति को खूब आश्रय प्रतिष्ठा दी और एक तरह से उसे भारत के मुसलमानों की आवाज के रूप में स्थापित कर दिया।
मूलतः यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता कुछ मुट्ठी भर एलीट वर्ग तक सीमित थी लेकिन चूंकि यह आधुनिक राजनीतिक चेतना के रूप में थी इसलिए यह इलीट वर्ग नेतृत्वकारी भूमिका में आकर मध्यवर्गीय मुसलमानों के बड़े हिस्से को भी अपनी ओर मिलाने लगा। आम मुसलमान उस तरह से साम्प्रदायिक राजनीति के चपेट में नही आया लेकिन साम्प्रदायिकता के कुछ तत्व उसमें भी एक सोच के रूप में घुसते रहे।

यह ऐतिहासिक प्रक्रिया यानि मुस्लिम समाज का साम्प्रदायिकरण 1920 तक आते आते पर्याप्त मजबूत हो गयी। याद रखिए कि यह समूचे मुस्लिम समाज का साम्प्रदायिकरण कर सकने में कभी सफल नहीं हुई और बड़ा तबका इस बीमारी से बचा भी रहा या बहुत न्यूनतम ही प्रभावित हुआ।


लेखक इतिहास के अध्येता हैं और यह पोस्ट उनके फेसबुक से साभार प्रकाशित है


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