तन मन जन: स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है, सरकार को बार-बार यह याद क्यों दिलाना पड़ता है?


यदि हम अपने भारतीय संविधान की बात करें तो यह सच है कि इसमें कहीं भी विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में चिह्नित नहीं किया गया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 21 की व्याख्या करते समय यह स्पष्ट किया है कि स्वास्थ्य का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकार में शामिल है। वास्तव में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 ‘‘नागरिकों के जीवन (लाइफ) और ‘‘दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण’’ की बात करता है। व्यापक तौर पर यही स्वास्थ्य का मौलिक अधिकार है।

सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना काल में इलाज के नाम पर लूट और मौत बांटते निजी अस्पतालों की मनमानी तथा राज्य सरकारों की लापरवाही आदि के मद्देनजर फिर से अनुच्छेद 21 का हवाला देकर स्पष्ट किया कि स्वास्थ्य का अधिकार नागरिकों का मौलिक अधिकार और सरकारों की यह संवैधानिक जिम्मेवारी है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अशोक भूषण, आर सुभाष रेड्डी तथा मुकेश कुमार शाह की बेंच ने कोरोना संक्रमण के बढ़ते प्रकोप पर चिंता व्यक्त की और नागरिकों से अपने कर्तव्य के पालन का अनुरोध किया। साथ ही सरकारों को हिदायत दी कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकार (स्वास्थ्य के अधिकार) की अनदेखी न करे।

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर संविधान के अनुच्छेद 21 की इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि में आजादी के 75 वर्षों में भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था पर नजर डालें तो हकीकत बेहद चिंताजनक दिखती है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति आज भी खस्ता ही है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है। विदेशों में हेल्थ की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सेक्टर मिलकर फंड देते हैं जबकि जापान में हेल्थकेयर के लिए कम्पनियों और सरकार के बीच समझौता है। आस्ट्रिया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिये ”ई-कार्ड“ मिला हुआ है।

हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। अभी यहां महज 28.80 करोड लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है, इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी और 14.1 ग्रामीण लोगों के पास हेल्थ इंश्योरेंस है। इसमें शक नही है कि देश में महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगों की एक बड़ी संख्या है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के एक शोध में यह बात सामने आई है कि हर साल देश में कोई 8 करोड़ लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं। यहां की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को इलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते हैं। एम्स का यही अध्ययन बताता है कि बीमारी की वजह से 53.3 प्रतिशत नौकरी वाले लोगों में से आधे से ज्यादा को नौकरी छोड़नी पड़ जाती है।

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबों और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागज़ी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है। नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है।

यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।

कोरोना काल में मानव स्वास्थ्य के ऊपर बढ़े खतरे और बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था ने सरकारों और स्वास्थ्य संस्थाओं की हकीकत सामने ला दी है। दुनिया ने देखा कि स्वास्थ्य को लेकर साल दर साल किये जा रहे सरकारी दावे वास्तव में कितने खोखले हैं। इस कोरोनाकाल में भी सरकार द्वारा स्वास्थ्य और इलाज के नाम पर किये गए इन्तजाम में भयंकर भ्रष्टाचार और अनियमितता के सैंकड़ों मामले पूरी बेशर्मी से खोखली और भ्रष्ट स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत बयान कर रहे थे। नागरिकों ने कोरोना से जान बचाने के लिए निजी अस्पतालों को 10 से 20 लाख रुपये तक प्रति व्यक्ति भुगतान किया। दिल्ली में एक परिवार के चार लोगों के कोरोना संक्रमित होने पर उन्हें एक निजी अस्पताल में 52 लाख रुपये का भुगतान करना पड़ा और इस पर भी वे अपने दो लोगों की जान नहीं बचा पाए। यह परिवार अब कंगाल हो चुका है।

वास्तव में जीवन के अधिकार में मनुष्य के गरिमा के साथ जीने का अधिकार और इससे जुड़े अन्य महत्वपूर्ण चीजें भी शामिल हैं। जैसे जीवन की आवश्यकता, पर्याप्त भोजन, समुचित पोषण, कपड़ा, मकान, पढ़ाई आदि। हालांकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 47 ‘‘पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा जन स्वास्थ्य में सुधार करने के राज्यों के कर्तव्य’’ को रेखांकित करता है। इस अनुच्छेद की आड़ में राज्य में भारतीय शराब सेवन आदि पर सरकारें उदासीन हैं क्योंकि यह संविधान के भाग (अ) का हिस्सा है जिसके अन्तर्गत राज्य के नीति निर्देशक तत्व शामिल हैं। यानि यह बाध्‍यकारी नहीं है। यह अनुच्छेद राज्यों को इस दिशा में प्रयास करने के लिए कहता है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के ‘‘स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार’’ को और स्पष्ट करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कुछ प्रमुख मामले और फैसले पर गौर करें। सबसे पहले विंसेट पनिकुर्लान्गारा बनाम भारत संघ एवं अन्य (1987 एआईआर 940) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य के अधिकार को अनुच्छेद 21 के भीतर तलाशने का एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था और यह देखा था कि उसे सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेवारी है। अदालत ने इस मामले में बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1984, 3 एससीसी 101) का जिक्र भी किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने एक और मुकदमे सीएससी लिमिटेड बनाम सुभाष चन्द्र बोस (1992, एआईआर 573) के मामले में श्रमिकों के स्वास्थ्य के अधिकार को ‘‘अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत किया गया’’ माना और सरकार को चेतावनी दी कि यह न केवल नागरिकों का मौलिक अधिकार है बल्कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त और अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन का हिस्सा है जिस पर भारत ने हस्ताक्षर किये हैं। अभी पिछले वर्ष ही सर्वोच्च न्यायालय ने अश्विनी कुमार बनाम भारत संघ (2019), एससीसी 636 के मामले में जोर देकर कहा था कि, ‘‘राज्य यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि स्वास्थ्य का यह मौलिक अधिकार न केवल संरक्षित है बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान रूप से उपलब्ध है।’’

एक तरफ तो सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर रहा है और नागरिकों के जीवन के अधिकार के तहत स्वास्थ्य के अधिकार की बात कर रहा है, दूसरी तरफ दवा और वैक्सीन बेचने वाली कम्पनियां अपने धंधे के लिए नागरिकों को मोहरा बनाने और इसके लिए सरकार से संरक्षण की मांग कर रही है। अभी बीते दिनों कोरोना वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन बना रहे सीरम इन्स्टच्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अडार पूणावाला ने मोदी सरकार से संरक्षण मांगा है कि यदि वैक्सीन के इस्तेमाल से कोई गम्भीर दुष्परिणाम होते हैं तो सरकार कम्पनी को मुकदमे आदि से बचाए। सम्भवतः हिन्दुस्तान में किसी मुनाफा वाली दवा कम्पनी द्वारा सरकार से अपनी काउन्टर गारन्टी मांगने की यह पहली घटना है। इस घटना से यह समझना आसान है कि संविधान में स्वास्थ्य की गारन्टी के बावजूद देश के आम नागरिकों को स्वास्थ्य प्राप्त करना कितना दूभर है। कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया भर में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की हकीकत को सामने ला दिया है।

हम 2020 के अन्तिम पखवाड़े में है और लोगों में जीवन और सेहत को लेकर अनेक आशंकाएं पल रही हैं। इसी बीच देश में स्वास्थ्य और इलाज को लेकर कुछ और घटनाएं घटी हैं जिसे हर नागरिक को जरूर जानना चाहिए। विगत 12 दिसम्बर को केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 (एनएफएचएस) जारी किया। इसके अनुसार देश में शिशु पोषण के संकेत उत्साहजनक नहीं हैं। देश में बच्चों का शारीरिक विकास ठीक नहीं है। देश में लगभग 13 ऐसे प्रदेश हैं जहां बच्चे और महिलाएं रक्तहीनता (एनिमिया) से पीड़ित हैं। इसी बीच देश में कोरोना वायरस संक्रमण से प्रभावित लोगों का आंकड़ा एक करोड़ को पार कर गया है। अमरीका के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है जहाँ एक करोड़ से ज्यादा कोरोना रोगी हैं। यह विडम्बना ही है कि सरकार की तरफ से तमाम बेवकूफियों के बावजूद देश में बढ़ते कोरोना संक्रमण को लेकर कोई व्यापक रोष नहीं है। जनता कई समूहों में बंटी हुई है। बेहाली और बरबादी के बावजूद लोग सरकार से बेहतर स्वास्थ्य की मांग को लेकर उतने संजीदा नहीं हैं जितना होना चाहिए। नतीजा( सरकार अपनी गति से स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के बजाय इसके निजीकरण का राह आसान कर रही है। देश में निजी अस्पतालों का जाल बढ़ता जा रहा है और सरकारी अस्पताल मुर्दाघर में तब्दील होते जा रहे हैं।

देश में बिगड़ी अर्थव्यवसथा के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय संस्थाएं भी जिम्मेदार हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक नीतियों की सक्रियता सन् 1990 के दशक में बहुत तेज थी। वैसे तो सन् 1978 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अल्मा अता में ‘‘सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’’ की घोषणा की थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी सन् 1974 में अपने एक विशेष अधिवेशन में नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की घोषणा की थी जिसमें उदारीकरण व निजीकरण के प्रस्ताव भी थे। तब से अब तक स्वास्थ्य का पूरा ढांचा और अरबों रुपयों का बजट खर्च हो गया। न लोगों की सेहत सुधारी और न ही सबको स्वास्थ्य सुविधाएं मिलीं।

स्वास्थ्य जैसे विषय पर निजी कम्पनियां और निजी अस्पताल तथा चिकित्सकों का कब्जा हो गया। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था नाममात्र के रह गए। आर्थिक रूप से कंगाल हो चुके या गरीब लोग मजबूरी में सरकारी अस्पतालों में जाकर जो भी इलाज मिलता है उसे ही प्राप्त करते हैं। शहरी मध्य वर्ग एवं सत्ताधारी वर्ग ने अपने इलाज के लिए निजी अस्पतालों की सुविधाएं लेना शुरू कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय सबके स्वास्थ्य की जिम्मेवारी भले ही राज्य पर डाले या संवैधानिक रूप से स्वास्थ्य लोगों का मौलिक अधिकार भले हो मगर यथार्थ तो सबके सामने है।

बहरहाल भारत में जारी मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल देखकर नहीं लगता कि सरकारें संविधान के अनुरूप दिल से कार्य कर रही हैं। निजीकरण ने देश में ‘‘झोंपड़ी और महल’’ के तर्ज पर पांच सितारा अस्पतालों की जो श्रृंखला खड़ी कर दी है उसने सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं को नाकारा बना दिया है। सरकार की नीतियों ने सरकारी डॉक्टरों को महज ‘‘पगार लेने वाले कर्मचारी’’ में तब्दील कर दिया है।

तन मन जन: साल दर साल विकास लक्ष्यों का शतरंजी खेल और खोखले वादे

विगत कुछ वर्षों में तो अस्पतालों का पक्षपातपूर्ण व्यवहार दिल दहला देता है। कोरोनाकाल में सरकार और मीडिया ने साजिशपूर्ण तरीके से जिस तबलीगी जमात को ‘‘कोरोना फैलाने वाले समूह’’ के रूप में चिह्नित कर बदनाम कर दिया था, दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद ही ये तबलीगी जमात के लोग उबर पाए। जाहिर है अपनी जिम्मेवारी से बचने के लिए सरकारें ऐसे ओछे विवाद को जानबूझ कर फैलाती हैं ताकि देश के भोले भाले लोग मूल सवाल से दूर रहें। एक नागरिक के रूप में हम सबका यह कर्तव्य है कि हम अपनी सरकार को संविधान के प्रति जवाबदेह बनाएं वरना देश निजी कम्पनियों का चारागाह बनकर रह जाएगा। चिन्ता की बात यह है कि सरकारी अस्पताल मुर्दागाह बनते जा रहे हैं और निजी अस्पताल मरीजों को लूटने के चारागाह। जान है तो जहान है, चाहे गरीब की हो या अमीर की। जीवन की रक्षा के इस संविधान के अनुच्छेद को याद रखिए। यह आपके जीवन और सेहत की गारंटी है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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