तन मन जन: साल दर साल विकास लक्ष्यों का शतरंजी खेल और खोखले वादे


‘विकास’ की जो गत भारत में है लगभग वही दुनिया में भी है। बीते कई दशकों का तजुर्बा यही कह रहा है कि ‘विकास’ केवल थोथी घोषणाओं के लिए होता है। हकीकत से उसका कोई वास्ता नहीं होता! ‘विकास’ नामक इस एक छोटे से शब्द ने न जाने कितने ऐरों गैरों को बड़ा बना दिया कि दुनिया भी भौचक है।

अर्थशास्त्र में विकास के कई स्तर हैं। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व वैश्विक विकास। छोटे से बड़े विकास तक जब ज़मीन पर नहीं टिक पाये, तो अर्थशास्त्रियों ने विकास के कुछ नये शब्द गढ़े, मसलन सहस्राब्दि (मिलेनियम) विकास। यह भी धराशायी हो गया तो एक और नया शब्द गढ़ा गया- टिकाऊ (सस्टेनेबल) विकास। विकास दरअसल एक वादा है। जैसे कसम, प्यार, वफ़ा। ये सब वादे हैं। वादों का क्या? इसलिए ज्यादा टेंशन न लें। फिर भी मानवता और देशहित में यह जानना जरूरी है कि वादा था क्या और अब है क्या?

वादा था मलेरिया, टीबी, कालाज़ार जैसे घातक रोगों को जड़ से उखाड़ फेंकना मगर ये सभी रोग आज भी दुनिया में लोगों पर कहर बरपा रहे हैं। वादा था ‘सबको स्वास्थ्य सबको शिक्षा’ का, लेकिन आज भी दुनिया में बीमारों और अशिक्षितों की भरमार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का वादा था- सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य, लेकिन स्थिति नहीं बदली। फिर सहस्राब्दि (मिलेनियम) विकास लक्ष्य 2015 तय हुआ। वह भी हवा-हवाई हो गया। अब टिकाऊ (सस्टेनेबल) विकास लक्ष्य 2030 तय हुआ है। समझा जा सकता है कि “जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा”। आइए, थोड़ा विस्तार से समझते हैं कि पहला संकल्प पूरा होने न होने के बावजूद अगला नया संकल्प घोषित करने का क्या औचित्य है।  

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बीस साल पहले यानी सन् 2000 में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य तय किया गया, तो पूरी दुनिया ने इसका स्वागत किया। कहा गया था कि बुनियादी समस्याओं के समाधान की राह में अहम कदम उठा लिया गया है। तकरीबन डेढ़ सौ देशों की सहभागिता वाले इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दुनिया के स्तर पर काफी पैसे भी जुटाये गये। तय हुआ कि ये आठ लक्ष्य 2015 तक पूरे कर लिए जाएंगे मगर ऐसा नहीं हुआ।

लक्ष्यों को पाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं होने के लिए विकासशील देशों के रवैये के साथ-साथ विकसित देशों की वादाखिलाफी को भी जिम्मेदार माना जा रहा है। दरअसल, जितना धन विकसित देशों को मुहैया कराना था उतना धन वे मुहैया नहीं करा सके। विकसित देशों की तरफ से हो रही वादाखिलाफी को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुत्रेस भी समझते हैं। यही वजह है कि बीते दिनों उन्होंने कहा कि अमीर देशों को आर्थिक मंदी के नाम से विकासशील देशों को दी जाने वाली सहायता राशि को रोका या कम नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि गरीबी और गरीबों का हक मारकर हमें अपने बजट को संतुलित करने का काम नहीं करना चाहिए।

बहरहाल, अभी तक सहस्राब्दी विकास लक्ष्य तो फ्लाप हो गया। भारत के संदर्भ में हालत और भी खराब है। ऐसे में भारतीय संदर्भ में सभी लक्ष्यों पर अब तक हुई प्रगति का जायजा लेना बेहद जरूरी हो जाता है। सहस्त्राब्दी का पहला विकास लक्ष्य 2015 तक गरीबी और भुखमरी को आधा करना था। न तो वैश्विक स्तर पर ही इन दोनों समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई खास प्रगति हुई है और न ही भारत में। कई देशों ने इसके लिए आर्थिक मंदी को जिम्मेदार ठहराया क्योंकि उनका कहना था कि मंदी की वजह से वे गरीबी उन्मूलन के लिए चलायी जा रही योजनाओं पर धन नहीं खर्च कर पा रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र के ही आंकड़ों पर यकीन करें तो पूरी दुनिया में अब भी तकरीबन 85.2 करोड़ लोग भुखमरी की समस्या से दो-चार हो रहे हैं। भारत में 22.1 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा है। ऐसे में पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत के लिए भुखमरी की समस्या को मिटाना संभव नहीं लगता। गरीबी मिटाने के मामले में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। गरीबी को लेकर भारत में कोई सर्वमान्य आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

अलग-अलग समितियां गरीबों की संख्या को अलग-अलग बताती हैं। अर्जुन सेनगुप्ता समिति कहती है कि देश के 77 फीसद लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं जबकि एनसी सक्सेना समिति का अनुमान 50 फीसद का है। वहीं विश्व बैंक के मुताबिक भारत के 41.6 फीसद लोग गरीब हैं जबकि सुरेश तेंदुलकर आयोग का मानना था कि भारत के 37.2 फीसद लोग गरीब हैं। जब 2000 में इन लक्ष्यों को तय किया गया था तो उस वक्त के भारत के नुमाइंदों ने यह वादा किया था कि 2015 तक गरीबी को 25 फीसद पर ले आया जाएगा, पर हुआ ढाक के तीन पात।

दूसरा लक्ष्य था 2015 तक सभी लड़कों और लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करवाया जाएगा। इस लक्ष्य को पाने के बारे में खुद संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रपट में कहा था कि इस मोर्चे पर कुछ प्रगति तो हुई है, लेकिन इसकी रफ्तार भी धीमी रही। भारत में तो हालात और भी बुरे हैं। अब भी देश में वैसे बच्चों की बड़ी संख्या है जिन्होंने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे बच्चों की संख्या तकरीबन 4.4 करोड़ है। भारत की शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी समस्या है ड्रॉपआउट रेट यानी बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की दर। पहली कक्षा से लेकर सातवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते आधे विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं। एक रपट के मुताबिक भारत में हर साल बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या तकरीबन 27 लाख है। प्राथमिक शिक्षा में भारत में बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर 39 फीसद है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बांग्लादेश में यह दर 33 फीसद है।

तीसरा विकास लक्ष्य था कि शिक्षा के क्षेत्र में लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव को खत्म किया जाए, लेकिन अब तक हुई प्रगति पर निगाह डालने पर ऐसा लगता है कि इस लक्ष्य को अगले दस वर्ष में भी पाना बेहद मुश्किल है। दरअसल इस लक्ष्य को पाने की दिशा में तब तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकती जब तक कि महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर हो रहा भेदभाव खत्म न हो जाए। अभी तक सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हुई प्रगति को न तो उत्साहजनक कहा जा सकता है और न ही संतोषजनक। भारत के संदर्भ में हालत और भी खराब हैं।

आज पूरी दुनिया महिला सशक्तीकरण का राग अलाप रही है लेकिन जमीनी हालत कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं। भारत में लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 1991 की तुलना में घटी है। 1991 में एक हजार पुरुषों पर 933 महिलाएं थीं जबकि अभी यह संख्या 927 है। ऐसे समय में भी महिलाओं के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया गया था जब भारत की राष्ट्रपति, सत्ताधारी गठबंधन की अध्यक्ष और लोकसभा अध्यक्ष महिला थीं।

लिंग के आधार पर भारत में हो रहे भेदभाव की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच की एक सूची से भी होती है। इस सूची में भारत को लैंगिक समानता के मामले में दुनिया में 112वां स्थान दिया गया था। निरक्षर महिलाओं की संख्या के मामले में भारत सबसे आगे है। देश में ऐसी महिलाओं की संख्या 24.5 करोड़ है। आमतौर पर एक भारतीय महिला औसतन 1.2 साल स्कूल में गुजारती है जबकि एक भारतीय पुरुष औसतन 3.5 साल स्कूल में पढ़ाई करता है।

चौथा विकास लक्ष्य था कि 1990 की तुलना में 2015 तक पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को दो-तिहाई कम कर लिया जाएगा, पर संयुक्त राष्ट्र को इस लक्ष्य में भी निराशा ही मिली। यही वजह है कि उसने अपनी रपट में कहा है कि जिन 67 देशों में शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है उसमें से भारत का हाल बुरा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर एक हजार नवजात बच्चों में से 67 की मौत पांच साल की उम्र पूरा करने से पहले ही हो जाती है। यूनीसेफ की एक रपट के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के 18.3 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए शिशु मृत्यु दर में 4.4 फीसद की दर से कमी लाने की जरूरत संयुक्त राष्ट्र ने बतायी थी पर इसमें 2.3 फीसद की दर से ही कमी आ पायी। भारत में तो यह दर और भी कम यानी 2.25 फीसद है। अगर भारत को इस लक्ष्य को हासिल करना है तो 6.28 फीसद की दर से शिशु मृत्यु दर में कमी लाना होगा। मालूम हो कि शिशु मृत्यु दर के मामले में बांग्लादेश और श्रीलंका की हालत भारत से अच्छी है। बांग्लादेश में हजार बच्चों में से 61 बच्चे पांच साल की उम्र नहीं पूरा कर पाते तो श्रीलंका में यह संख्या 21 पर है।

पांचवां विकास लक्ष्य यह था कि 2015 तक गर्भवती महिलाओं की सेहत को दुरुस्त करने के बंदोबस्त किये जाएंगे और मातृत्व मृत्यु दर में तीन चौथाई कमी लायी जाएगी। मातृत्व मृत्यु से तात्पर्य उन मौतों से है जिनमें बच्चे को जन्म देने के 42 दिनों के भीतर किसी महिला की जान चली जाती है या फिर गर्भधारण के दौरान ही मौत हो जाती है। ऐसा अनुमान है कि दुनिया भर में हर साल तकरीबन पांच लाख महिलाओं की मौत इसी तरह से होती है। इस लक्ष्य को पाने के लिए मातृत्व मृत्यु दर में 5.5 फीसद कमी लाने की योजना बनायी गयी थी, लेकिन खुद संयुक्त राष्ट्र ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस दर से प्रगति नहीं हो पायी है।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में हर साल ऐसी 5.29 लाख मौतें होती हैं। इसमें से 25.7 फीसद यानी 1.36 लाख अकेले भारत में होती हैं। इन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 2030 तक भी भारत द्वारा इस लक्ष्य को पाना काफी मुश्किल है। पांचवां लक्ष्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इससे चौथे लक्ष्य के भी तार जुड़े हुए हैं। मातृत्व मृत्यु दर में अगर कमी आएगी तो निश्चित तौर पर शिशु मृत्यु दर में भी कमी आएगी। कई अध्ययनों ने इस बात को साबित किया है कि जिन नवजातों की मां मर जाती है उनके खुद मरने की आशंका बढ़ जाती है।

छठा सहस्राब्दी विकास लक्ष्य था 2015 तक एचआइवी/एड्स, मलेरिया और दूसरी बीमारियों से लड़ने के तरीके विकसित करना, पर एचआइवी/एड्स के खतरे से निपटने की दिशा में बेहद धीमी प्रगति की बात संयुक्त राष्‍ट्र ने भी मानी है। इसकी रपट के मुताबिक संक्रमण का खतरा और बढ़ा है और इससे संक्रमित लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में एचआइवी संक्रमित लोगों की संख्या तकरीबन 3.8 करोड़ है। भारत का हाल भी बुरा है। भारत में एचआइवी संक्रमित लोगों की संख्या तकरीबन 23 लाख है। एचआइवी संक्रमित लोगों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है। इसमें से 39 फीसद महिलाएं हैं और 3.5 फीसद बच्चे हैं। सरकार का दावा है कि भारत में एचआइवी संक्रमित लोगों की संख्या घट रही है जबकि गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक इसमें बढ़ोतरी हो रही है।

जहां तक मलेरिया से निपटने की बात है तो इस मोर्चे पर भी भारत में कोई खास प्रगति नहीं हुई। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2018 में भारत में मलेरिया के तकरीबन 5 लाख मामले सामने आये थे और इसमें 77 लोगों की मौत हुई थी। गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक 2018 में मलेरिया से मरने वालों की संख्या तकरीबन चालीस हजार रही। इस साल भी देश के कई हिस्सों से मलेरिया के प्रकोप की खबरें आ रही हैं। जानकारों का मानना है कि भारत मलेरिया से इसलिए निपटने में सक्षम नहीं हो पा रहा है कि यहां मलेरिया के मामले प्रकाश में नहीं आते हैं। दूर-दराज के इलाकों में मलेरिया से होने वाली मौत बमुश्किल ही सरकारी एजेंसियों के ध्यान में आ पाती है।

सातवें सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के तहत पर्यावरण की हालत को बेहतर बनाना तय किया गया था, पर इस दिशा में भी बेहद सकारात्मक प्रगति नहीं हुई है। खुद संयुक्त राष्ट्र ने इस बात पर चिंता जतायी है कि कुछ देशों में बेहद तेजी से वन भूमि को खेतों में तब्दील किया जा रहा है और इनका इस्तेमाल कई तरह के दूसरे कामों में किया जा रहा है। इस रपट के मुताबिक दुनिया भर में हर साल 1.3 करोड़ हेक्टेयर के जंगलों की कटाई हो रही है। यह बेहद चिंताजनक है।

दरअसल, पर्यावरण के मसले पर पूरी दुनिया और खासतौर पर अमीर देश राजनीति अधिक कर रहे हैं और काम कम। कोपेनहेगन में दुनिया भर के नेता पर्यावरण के मसले पर रणनीति बनाने के लिए एकत्रित हुए थे लेकिन वहां क्या हुआ इससे हर कोई वाकिफ़ है। हर देश अलग-अलग राग अलापने में लगा रहा और कोई समझौता नहीं हो पाया। सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला अमेरिका पर्यावरण पर सबसे ज्यादा राजनीति करता हुआ दिखता है। कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। 1994 में भारत 1.2 अरब टन कार्बन उत्सर्जन करता था जो 2007 में बढ़कर 1.9 अरब टन पर पहुंच गया था। पूरी दुनिया को यह याद रखना होगा कि अगर इन लक्ष्यों से यों ही मजाक किया जाता रहा तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे क्योंकि पर्यावरण की सेहत बिगड़ने का मतलब है प्राकृतिक आपदाओं को दावत देना और इस साल भी दुनिया के कई हिस्से में प्राकृतिक आपदाओं ने तबाही मचायी है।

आठवां और आखिरी लक्ष्य था विकास के लिए वैश्विक साझीदारी बढ़ाना। संयुक्त राष्ट्र इस लक्ष्य पर हुई प्रगति को लेकर प्रसन्न नहीं है। इसलिए यूएन ने अपनी रपट में इस लक्ष्य पर प्रगति नहीं हो पाने के लिए विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि इन देशों ने विकासशील और गरीब देशों के जो वादे किए थे, वे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। विकसित देश अपने वादों को नहीं पूरा कर पाने के लिए आर्थिक मंदी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की रपट के मुताबिक विकसित देशों को अपने सकल राष्ट्रीय आय का 0.7 फीसद विकासशील और गरीब देशों को देना था। इस लक्ष्य को पाने में सिर्फ पांच देश ही सफल रहे हैं। ये हैं- डेनमार्क, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड्स, नार्वे और स्वीडन। अगर विकसित देशों ने अपने वादों को नहीं पूरा किया तो विकास लक्ष्यों को पूरा कर पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा क्योंकि पैसे के बिना इन लक्ष्यों को पाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकती।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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