बात बोलेगी: कश्मीर में बैठ के कश्मीर को समझने का अहसास-ए-गुनाह


जीने का सुभीता तलाशने की आदिम और अभिनव प्रवृत्ति के चलते मनुष्य बना और बचा रहता है। स्वाभिमान, सम्मान और इज्ज़त-प्रतिष्ठा सब खाये-अघाये लोगों के शगल हैं। ज़रूरी बात है जीना और जब जिस तरह जीना संभव हो उस तरह जीना और खुद को लंबे समय तक बचाए रखना। यह लंबा समय कितना भी लंबा हो सकता है। आखिर प्रतीक्षा करना भी उतना ही आदिम और अभिनव स्वभाव है।

हमें दूर से देखकर लग सकता है कि आखिर इस तरह लोग कैसे जी सकते हैं। धोखा खाकर भी कैसे मुस्कुरा सकते हैं? इतनी बेइज्जती के बाद भी भविष्य को लेकर कोई योजनाएं कैसे बनायी जा सकती हैं? लेकिन यहां एक मूल सवाल ज़रूर है कि यहां ‘हम’ कौन हैं? और जिनके लिए ‘हम’ यह सब सोच रहे हैं ‘वे’ कौन हैं? यह ‘हम’ और ‘वे’ इतने भिन्न धरातल पर होते हैं कि हम उनके स्थानापन्न होने की एक स्वांत: सुखाय कोशिश कर ज़रूर सकते हैं, लेकिन यह वाकई संभव नहीं है और व्यावहारिक तो कतई नहीं। और धोखा खाकर भी अगर कोई फिर-फिर खड़ा होने की कोशिश करे, अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से बदली हुई परिस्थितियों और निज़ाम के अनुरूप ढालने की कोशिश करे, तो उसे उसकी कमजोरी समझा जाय या बहादुरी? कहना मुश्किल है, क्योंकि यहां कौन किसके लिए कह रहा है इसका निर्धारण करना बहुत ज़रूरी है।

आज के कश्मीर को देखना कोई पांच साल पहले के कश्मीर को देखे जाने से बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं है। वही फौज, वही तलाशी, वही रोक-टोक, कुछ भी नहीं बदला। एक सभ्यता का पहले अन्य राज्यों की तुलना में अधिक स्वायत्त पूर्ण राज्य में बदलना अगर एक राजनैतिक बदलाव रहा होगा, तो इस अधिक स्वायत्त पूर्ण राज्य का केंद्र के अधीन केंद्रशासित प्रदेश में बदला जाना भी एक राजनैतिक बदलाव से ज़्यादा कुछ और है क्या?

लोगों को देखें, उनसे मिलें, बातें करें, उन्हें सुनें और उनके चेहरे के भाव-विन्यास को देखें तो जैसे कश्मीरियों की पेशानी पर पड़ने वाले बलों की संख्या में कुछ गणनात्मक अंतर दिखलायी भी दे लेकिन समग्र रूप से उसका कुल मतलब यही है कि हम पहले ही कौन से सुखी थे। उनकी चिंता में उनके साथ खड़े होने और साथ खड़े होने-सा दिखलायी देने के बीच की बारीक लेकिन फैसलाकुन फांक को उन्होंने अब जाकर पहचाना भी है शायद। इसीलिए जब सरोकारों का आदान-प्रदान (ज़्यादातर मामलों में प्रदान ही) हृदय की गहराइयों में उतरने लगता है तो वे अब एक ऐसे मुकाम पर उसको रोकना सीख गए हैं जहां आपके सरोकारों की बेपनाह इज्ज़त अफजाई के बावजूद उनकी कोई बात, आपकी नज़रों से औचक टकरा गयी, कोई एक सिम्त नज़र यह जायजा तो ले ही लेती है कि आपको वाकई कोई फर्क पड़ा।

5 अगस्त, 2019 को जब देश की संसद में एक लिटिकल इवें हुआ और पहले से गुपचुप चली आ रही तैयारी के साथ उसे तत्काल प्रभाव से लागू कर दिया गया, तो इसमें जो सबसे बड़ी चीज़ गायब थी वह थी- एक लोकतन्त्र में लोकतन्त्र की न्यूनतम मर्यादा। फैसलों में जनभागीदारी की सायास और घनघोर उपेक्षा। इसलिए यह निर्णय, जिसे कश्मीरियों की मुक्ति का मार्ग बतलाया गया, वह उन्हें असीमित समय के लिए बंधक बनाए जाने की हुंकार भरी घोषणा के रूप में देखा गया। चूंकि पूर्वपीठिका इतनी मजबूत थी और नए सिरे से बनते हुए या बनाए जाते हुए राष्ट्र की बड़ी आबादी का अपार जनसमर्थन था, इसलिए इस लोकतन्त्र की न्यूनतम मर्यादा का पालन न किए जाने का असर केवल उन पर हुआ जिनकी इसमें उपेक्षा हुई। बाकी के लिए कश्मीर में प्लॉट खरीदने की एक कुंठाग्रस्त फर्जी महत्वाकांक्षा जैसे संभव होते दिखलायी दी।

जिन पर असर हुआ, उनसे डेढ़ साल बाद मिलना और उनका सामना करना जैसे खुद को गुनहगार के रूप में पेश करने से कम एहसास नहीं है, हालांकि प्यार-मोहब्बत और दुनियावी सरोकारों को लेकर ऊष्मा में अब भी कोई कमी नहीं आयी है। इस बार भी ठीक वही ताप महसूस हुआ जो 5 अगस्त 2019 से पहले होता रहा, लेकिन इंडिया दैट इज़ भारत (राज्यों के संघ) ने अपनी नैतिक ज़मीन खो दी। खुद को उस ज़मीन से जुड़ा पाना जिसकी नैतिक शक्ति किसी नकारात्मक अभियान की भेंट चढ़ चुकी हो, इस ज़मीन पर आपको शर्मिंदगी के एहसास से भर देती है।

राजनीति एक क्रूर शै है। उसका सामना करने के लिए पहली अर्हता है दिल को पत्थर करना और दिमाग को संवेदनाओं से रिक्त किया जाना। इसलिए शुरुआती ग्लानि के बावजूद यह समझने की चेष्टा करना कि लोग सोचते क्या हैं? क्या वो इस नए निज़ाम में खुश हैं, नाराज़ हैं, उदास हैं, हताश हैं या नियति की कोई पालयनवादी भूमिका यहां भी उतनी ही तीव्र है जितना दुनियावी मामलों में लोगों ने सहर्ष अपनायी हुई है?

कश्मीर में लोग इस बात से वाकई खुश हैं कि अब्‍दुल्‍ला और मु्फ्ती परिवारों के साथ यही होना चाहिए था

एक बात तो तय है और ये सभी पर लागू होती है कि वर्षों से अपने महलों में जमे-रमे राजनैतिक ठेकेदारों के प्रति अथाह गुस्से ने इस बलात और निरकुंश निर्णय को संघ की सरकार (संघीय सरकार) के लिए आसान बना दिया। इसे इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि राज  इसलिए चिरस्थायी चीज़ नहीं हो जाता क्योंकि राज करने वाले और राज के अधीन रहने वालों का मज़हब एक है। एक मज़हब होना तभी तक काबिले वरदहस्‍त है जब तक वह अपनी हद में रहे। यह एक भरोसा देता है कि जनता जब अपनी अवनति को भी किसी स्थायी हो चुके राज के नेस्तनाबूद हो जाने की शर्त पर स्वीकार कर ले तो यह भी किसी नए निज़ाम के लिए रास्ते खोलना ही है। कश्मीर में लोग इस बात से वाकई खुश हैं कि अब्‍दुल्‍ला और मु्फ्ती परिवारों के साथ यही होना चाहिए था। ठीक है कि यह उनकी आज़ादी की कीमत पर हुआ, पर सच्चाई तो यह है कि वो इस मुल्क में ऐसी ही जनता बने रहने के लिए अभिशप्त हैं जिसमें आज़ादी का मतलब वह नहीं है जिसका तसव्‍वुर ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ के साथ आँखों में उतरता हो।

वो इतने आज़ाद थे ही कब? इस आज़ादी का एक ख्याल था जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते आया, हालांकि तजुरबा तब भी किसी ने न किया। एक ढीठ निज़ाम जब कोई फैसला लेता और थोपता है तो जनता के पास कई विकल्पों के बाद जो बचता है और अंतत: जिस का अनुसरण जनता करती है वो है उस निज़ाम के निरंकुश फैसले को चुपचाप अंगीकार कर लेना। यह महज कश्मीर के मामले में नहीं हुआ, बल्कि नोटबंदी से लेकर देशव्यापी अविवेकी लॉकडाउन तक हमने देखा। आज जब कश्मीर में किसी जगह बैठकर यह कॉलम लिखा जा रहा है, तो देश के कई राज्यों में बलात् आंशिक या पूर्ण लॉकडाउन की खबरें शाया हो रही हैं। जो अभी लॉकडाउन का अंतत: पालन करने वाली जनता है, उसकी संख्या कश्मीर की कुल आबादी से बेशक कुछ ज़्यादा ही होगी!

आखिर को दिल्ली- जिसे देश की राजनैतिक राजधानी का दर्जा प्राप्त है और जिसके वैभव में कश्मीर से कम सभ्यताओं और शासकों के आवागमन का इतिहास दर्ज है- भी ठीक उसी गति को प्राप्त हुई है जिस गति को कश्मीर? क्या वाकई कोई नागरिक प्रतिरोध दिल्‍ली में देखा गया? याद नहीं पड़ता।

यहां आकर लगता है कि जैसे नलैंड  के संविधान प्रेमियों और जनतंत्र प्रेमियों ने कश्मीरियों के ऊपर ही सहने और लड़ने की ज़िम्मेदारी थोप दी है। उसके बरक्स वे खुद हर उस निर्णय के साथ हो लिए हैं जिनमें जनतंत्र की न्यूनतम मर्यादाओं का पालन नहीं किया गया। धोखा क्या केवल कश्मीरियों ने खाया है? हम नलैंड वालों ने नहीं? कितनी बार? थोड़ा कम, लेकिन इतना भी नहीं कि हम और और धोखे खाने के लिए बाट जोहें? बहरहाल…

यह समय धोखे की राजनीति का है और धोखा हम सबकी नियति बनते जा रहा है। उसके बाद की परिस्थितियों में हम सब एक नाव पर सवार होने को अभिशप्त हैं। सकारात्मक संकेतों में इसे नए तरह के बहनापे और भ्रातृत्व भाव के तौर पर देखने से कुछ राहत बेशक मिलती है। धोखा खाये नागरिकों की एकता भी कुछ नया गढ़ और रच सकती है। बात इंतज़ार की है, जिसके लिए हम संस्कारी आज्ञाकारी नागरिक प्रशिक्षित हैं।


आवरण तस्वीर EPA से साभार


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