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| रामजी यादव | 
दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है और पूरा फेसबुक प्रगति मैदान बना हुआ है। लोकार्पण की तस्वीरों ने चारों ओर कब्ज़ा कर लिया है। पांचेक साल पहले भी एक समय था जब लोकार्पण उसी का दिखता था जिसके पास कैमरा होता था। अब सबके पास स्मार्टफोन है, तो किताब के बगैर भी लोकार्पण हो जा रहा है। ऐसे में रामजी यादव की यह कविता बहुत तेज़ याद आ रही है। पढि़ए और गुनिए।    
लोकार्पणिए
यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है
और किताब की मौत की पहली दस्तक 
यह रोशनी का वृत्त दरअसल उनके भीतर छिपे 
अँधेरों को उजास में बदलने का भ्रम रच रहा है 
और वे एक दूसरे की मुस्कान भाँपते हुये सोच रहे हैं पैंतरे 
क्योंकि कोई भी पढ़कर नहीं आया है लोकार्पित होनेवाली पुस्तक 
फिर भी वे अनुभवी खटिक की तरह बना देंगे 
किताब को अच्छी सब्जी !
चलो अच्छा हुआ 
कि मौलिकता से भरे हुये रचनाकार 
विश्वास नहीं रखते लोकार्पित होने में 
लोकार्पण एक घंटा है इस शहर के सांस्कृतिक जीवन में 
जिसे बजाकर आयोजक आवृत्तियों में बता देते हैं कि 
सिर्फ चाय है या कि समोसा है 
साथ में बासी गुलाबजामुन और गंधेले चिप्स से भरा 
अग्रवाल या नत्थू स्वीट्स का चमकता डिब्बा 
या कि बाद में कॉकटेल है 
यह सब समीक्षाओं और कवरेज के लिए एक जरूरी विधान है 
जैसे पचास पार वाली यह बदहवास कवयित्री-कथाकार स्त्रीवादी
रिरियाती फिर रही है एक कॉलम तीन सेंटीमीटर की खबर हेतु 
उसके सेंटिमेंट्स उभर आए हैं पत्तों के बीच फूलगोभी की तरह 
आधी उत्तेजित आधी रुआंसी है सचमुच 
यादकर उन छोटे शहरों के दौरे 
जहां फोटो सहित छपे हैं उसके बयान 
दिल्ली की बेदर्दी पर दुखी है इस कदर कि बस 
छोड़ नहीं सकती दिल्ली कि यहीं है साहित्य का मठ 
यहीं वह सोचती है कि प्रकाशक उसे याद करें रॉयल्टी का विवरण दें 
यहीं वह चलाती है मुहिम कि एक मूर्ख और लद्धड़ संपादक ने 
उसके संकलन कि समीक्षा में बुरी तरह कलम मारी 
कि यह गलत है गलत है गलत है 
यहीं वह सौ प्रतिशत हो सकती है संवेदनहीन 
और यहीं उम्मीद करती है कि शहर को संवेदनशील होना चाहिए 
लोकार्पण समारोह सादतपुर से साकेत के मंगल मिलन का मौका है 
इसी जगह दिलशाद गार्डन से द्वारका मिलता है लपककर 
मयूर विहार गले से लगा लेता है मंगोलपुरी को 
और पीठ ठोंकता है देर तक 
दूर-दराज से आए उत्साही और फटीचर फ्रीलान्सर 
यहीं से निशाना साधते हैं दिल्ली पर 
साहित्य की माफियाई, पत्रिकाओं की बेहयाई और 
बूढ़ों की जगहँसाई पर साथ-साथ प्रतिक्रिया देते हैं वसंतकुंज 
और विवेक विहार 
पालम से पटपड़गंज और पीतमपुरा से पुष्प विहार 
नंदनगरी से नारायणा और रोहिणी से रैगरपुरा तक 
अच्छा प्रतिनिधित्व है 
और भी है बहुत कुछ 
पकी हुई बूढ़ी स्त्रियों की संध्यागाह 
नए-नए प्रकाशकों का चरागाह 
और श्रमजीवी लेखकों की क़त्लगाह है यहाँ 
तो दस-पाँच समोसा-भकोसुओं की पनाहगाह भी 
दांत निपोरते हुये उंगली से माइक ठोंक रहा संचालक 
झुक-झुक कर बता रहा है आज के हमारे मुख्य अतिथि 
कवि-आलोचक आदरणीय नवाचारी जी 
कि जिन्होंने व्यभिचार को प्रेम की तरह प्रतिष्ठित किया साहित्य में 
लेकिन यह पंक्ति कहे बिना कहा संचालक ने 
आज के अध्यक्ष महान आलोचक फादरणीय विचलन जी 
बार-बार जिनकी जीभ फिसलती रही है यहाँ-वहाँ 
इसे भी बिना कहे उसने कहा 
आज के मुख्य वक्ता श्रद्धेय प्रो॰ खरबूजादास जी 
जिन्होने नागार्जुन से सीखी थी बतकही 
बार-बार अविश्वसनीयता के महल से खींच लाते हैं आलोचना को 
विश्वसनीयता की झोंपड़ी में 
मैं स्वागत करता हूँ आप सभी का तहेदिल से 
और मुस्कराकर देखा उनसभी को 
चढ़ बैठा था उनकी गरदनों पर दंभ 
अब हालात हैं ऐसे कि क्या कहूं तुमसे 
अगर खाना है समोसा तो रुख करो उधर का 
चाहिए अच्छी किताबें तो चलो शहर भर घूमते हैं पैदल 
देखते हैं ज़िन्दगी और सीखते हैं लिखना !
लोकार्पण के लिए नहीं 
संवाद और संघर्ष के लिए 
समाज और ज़िन्दगी के अर्थ के लिए !!
 
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