9 अगस्त 2008 को मशहूर फ़लस्तीनी कवि महमूद दरवेश के आकस्मिक देहांत की खबर आयी। इस लेख के लेखक ने उस दौरान अपने आप को भारत के बाहर पाया और एकाध दिन पश्चात, उनकी याद में उनके कविता-पाठ के एक समारोह की खबर मिली जो स्थानीय फलस्तीनियों ने आयोजित की थी।
समारोह खचा-खच भरा था। एक के बाद एक जब उस सभा में एकत्रित आम फ़लस्तीनी उठे और माइक की ओर कविता पढ़ने के लिए गए, तो उनमें से शायद ही कोई होगा जो फूट-फूट कर रो नहीं पड़ा हो।
एक कवि के लिए इतना प्रेम, इतना जज़्बा, इतना आदर, इतना गहरा अपनापन – यह इस लेखक के लिए एक अद्वितीय दृश्य था। महमूद दरवेश का यश, उनका हुनर, उनका मर्म, तब तक विश्व-भर में प्रख्यात था, लेकिन एक गैर-राष्ट्र वाली कौम का एक राष्ट्र-कवि माने जाने वाले व्यक्ति के प्रति इतनी भावपूर्ण और कृतज्ञपूर्ण आवेग देखते ही बनता था।
महमूद दरवेश ने अपनी कविताओं के माध्यम से फ़लस्तीन के हालात, उसके ऐतिहासिक सत्य और अपने निर्वासन और निष्कासन के सिलसिले को बखूबी से चित्रित किया। उन्होंने बेदखल फ़लस्तीनियों के अंतःकरण की पीड़ा को उभार कर दुनिया के सामने रखा। उनकी कविताओं को गीतों समान कई अरब और फलस्तीनी संगीतकारों ने संगीतबद्ध भी किया था, जिनमें मार्सेल ख़लीफ़े अग्रणी थे।
दरवेश की मशहूर कविता ‘पासपोर्ट’ को ख़लीफ़े ने बहुत बखूबी से लयकारी में बाँधा (यूट्यूब पर इसके वीडियो प्रस्तुत मौजूद हैं)। कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से हैं:
दरख्तों से उनके नाम न पूछो
मत पूछो घाटियों से उनकी माँ कौन है
मेरे माथे से रौशनी की खडग उछले
और मेरे हाथों से बहे नदियों का पानी
लोगों के दिल ही हैं मेरी पहचान
ले जाओ मेरा पासपोर्ट
फ़लस्तीनी जनता आज भी अपने वतन के लिए दुनिया भर में और दुनिया भर से संघर्ष कर रही है। दरवेश ने गज़ा पट्टी की स्थिति के सन्दर्भ में भी बहुत करुण पंक्तियाँ रची थीं:
ग़ज़ा अपने रिश्तेदारों से दूर और बैरियों के करीब है, क्योंकि जब भी ग़ज़ा में धमाका होता है, वह एक टापू बन जाता है और उसका विस्फोटन कभी बंद नहीं होता। उसने दुश्मन का चेहरा नोचा, उसके सपने चूर किये और समय पर से उसके संतोष को स्थगित किया…
(साइलेंस फॉर ग़ज़ा)
ग़ज़ा सबसे सुन्दर शहर नहीं है…ग़ज़ा की सुंदरता इसमें है कि हमारी आवाज़ उस तक नहीं पहुँचती। उसे कुछ विचलित नहीं करता, कोई भी परिस्थिति उसकी मुट्ठी दुश्मन के चेहरे से नहीं हटाती।
दरवेश की कई प्रसिद्घ कृतियों में निष्कासन और निराश्रयता की अनवरत भावना, वतन और भूमि के प्रति अतृप्त आस और ज़ैतून के बागानों जैसी यादें समायी हुई हैं। विश्वभर में बिखरे फ़लस्तीनियों के लिए वे उनकी अंदर की आवाज़ थे – और आज भी उनके लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
इस धरती पर हमारे पास सब है जो जीवन सार्थक बनाता है: अप्रैल की हिचक, रोटी की खुशबू
(“ऑन दिस अर्थ” – अनफॉर्चुनेटेली इट वाज़ पैराडाइज़)
सूर्योदय पे एक औरत का मर्दों के प्रति दृष्टिकोण, एस्कैलस की कृतियाँ, शुरुआत
प्रेम की, पाषाण पर घास, बांसुरी की आह पर माँओं का जीवन और आक्रमणकारियों का स्मृतियों से भय…
इस धरती पर
इस धरती पर हमारे पास सब है जो जीवन सार्थक बनाता है: इस धरती पर, धरती-स्वामिनी
सर्व आदि-अंत की मादा। उसे फ़लस्तीन कहा जाता था। उसका नाम
बाद में पड़ा
फ़लस्तीन। मेरी देवी, क्योंकि तुम मेरी देवी हो, मैं जीवन का अधिकार रखता हूँ।