‘अमरत्व का स्थान प्राप्त करने में लता को कितनी ठोकरें खानी पड़ीं यह सब था इन अंखियन आगे…’


लता मंगेशकर पर लिखा मोती बी.ए. का यह दुर्लभ संस्‍मरण वरिष्‍ठ पत्रकार श्री आनंद स्‍वरूप वर्मा ने जनपथ को उपलब्‍ध करवाया है। यह संस्‍मरण डॉ. रामदेव शुक्ल द्वारा संपादित और नमन प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा नौ खण्डों में प्रकाशित मोती बी.ए. ग्रंथावली के खंड-5 से लिया गया है। मोती बी.ए. 1952 से 1959 तक श्री आनंद स्‍वरूप वर्मा के अत्यंत प्रिय अध्यापक रहे।

भोजपुरी और हिंदी के कवि मोती बी.ए. ने पहली बार 1940 के दशक में हिंदी फिल्मों में भोजपुरी गीतों की रचना की। 1944 से लेकर 1951 तक उन्होंने पंचोली आर्ट्स पिक्चर्स, लाहौर; फिल्मिस्तान लिमिटेड, बंबई; प्रकाश पिक्चर्स, बंबई के गीतकार के रूप में ‘नदिया के पार’ (पुरानी, दिलीप कुमार-कामिनी कौशल), ‘कैसे कहूं’ , ‘साजन’, ‘सिंदूर’, ‘रिमझिम’, ‘सुभद्रा’ इत्यादि अनेक फिल्मों में गीत लिखे। फिल्म ‘साजन’ का प्रसिद्ध गीत ‘हम को तुम्हारा ही आसरा, तुम हमारे हो न हो’ तथा ‘नदिया के पार’ के सभी गीतों का भोजपुरी में सर्वप्रथम लेखन- ‘कठवा के नइया बनइहे मलहवा’, ‘मोरे राजा हो, ले चल नदिया के पार’ इत्यादि।

फिल्मी दुनिया से मन ऊब जाने के बाद वह वापस देवरिया जिले के बरहज कस्बे में आ गये और 1952 से 1980 तक श्रीकृष्ण इंटर कालेज बरहज में प्रवक्ता के रूप में काम किया।

संपादक

…फिल्म ‘कैसे कहूं’ के लिए मेरा पहला गीत जो स्वीकृत हुआ वह था- ‘हम आज चले’। जिस तरन्नुम से हम यह गीत सुनाते थे वह बड़ा प्रभावोत्पादक, ओजपूर्ण एवं मनमोहक था। जो भी इसे मेरे मुंह से सुनता था, झूम उठता था। यह गीत मैंने ‘कैसे कहूं’ के संवाद लेखक अख्तर हुसैन रायपुरी को सुनाया, श्री मोती बी. गिडवानी के कहने पर। इसकी आगे की पंक्तियां इस प्रकार थीं- ‘यह जिंदगी हमारे लिए खास बात है/हर रात हमारे लिए एक नयी रात है/चाहे न जले एक भी दिया आसमां तले/ हम आज चले, आज चले, आज चले।‘

रायपुरी साहब ने तुरत ऐतराज पेश किया कि यह ‘खास-बात’ कुछ समझ में नहीं आयी। मैंने उन्हें बतलाया कि इसका अर्थ यह है कि यह जिंदगी बहुत ही मूल्यवान है और हम इसे किसी महान उद्देश्य का निमित्त समझते हैं। रायपुरी साहब हमारी इस व्याख्या से संतुष्ट नहीं हुए। वह जहां से बोल रहे थे वह स्पष्ट हो गया। यदि ऐसे ही लोगों की हमेशा चलती रही तो नयी प्रतिभा को कहीं भी ठहरने को स्थान नहीं मिलेगा। उनके ऐतराज के बावजूद यह गीत सेठ जी (सेठ दलसुख एम पंचोली) ने कैंसिल नहीं किया। इस गीत को कोरस में गवाना था। अतएव बंबई से शमशाद बेगम बुलायी गयीं जिनके नाम का सिक्का इस समय पूरे हिंदुस्तान में जमा हुआ था। जोहरा बाई और शमशाद बेगम ने यह गीत गाया। इस गाने के लिए एक सिख लड़की सुरेंद्र कौर भी बुलायी गयी थी। उसकी आवाज बहुत आकर्षक थी मगर दुर्भाग्य से सेठ जी ने उसे चांस नहीं दिया।

सुरेंद्र कौर ने निराश होकर अपनी कोशिश नहीं छोड़ी। बंबई के फिल्मी मार्केट में वह अंततः चमकी जब एक दिन फिल्मिस्तान लिमिटेड की फिल्म ‘शहीद’ में उसका गाया हुआ यह गीत सबकी जुबान पर चढ़ गया- ‘बदनाम न हो जाये मुहब्बत का फसाना/ऐ दर्द भरे आंसुवों आंखों में न आना।’

गुलाम हैदर ने इस फिल्म का संगीत निर्देशन किया था। दूसरा गीत सुरेंद्र कौर का जो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ वह भोजपुरी का था जिसे फिल्म ‘नदिया के पार’ के लिए मैंने लिखा था और जिसकी तर्ज सी. रामचंद्र ने बनायी थी- ‘अंखिया मिलाके अंखिया/रोवे दिन रतिया/न भूले बतिया/भूले ना सुरतिया हो तोहार।’

कैसे कहूँ (1945) का पोस्टर, स्रोत IMDB

फिल्म ‘कैसे कहूं’ का दूसरा गीत था- ‘मेरे मन में कोई बोले’।  इसको लाहौर की गायिका जोहरा ने गाया था। धुन बेशक मास्टर अमर नाथ की थी। इसकी तर्ज मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। मगर मेरी पसंद का वहां कोई प्रश्न नहीं उठता था। तीसरा गीत हीरो-हीरोइन का एक डुएट सांग था- ‘गीत बनो मेरी तुम/ओ मेरी गीता/गीत बनो।’

इस गीत में शब्द चयन अच्छा था। स्त्री स्वर जोहरा का और पुरुष स्वर एस. डी. बातिश का। इसकी तर्ज ठंडी थी मगर इस गीत को कुछ खास तरह के लोगों ने बड़ा पसंद किया था। चौथा गीत था- ‘दामन न छोड़ देना’। यह भी नायक और नायिका का युगल गान था। इसमें भी बातिश और जोहरा ने ही स्वर दिये थे। इसकी स्थायी धुन बहुत मधुर एवं मनोमुग्धकारी थी। यह गीत कुछ कुछ पसंद हुआ मगर जब झमड़ा नीचे गिर जाता है तो उसके ऊपर लदी लौकी भी धराशायी हो जाती है। जब फिल्म ही पिट गयी तो इस गीत का रोना कौन रोये।

आगे चलकर दो ही तीन वर्ष के भीतर फेमस पिक्चर्स की एक फिल्म में पंडित हुस्नलाल भगतराम ने एक बेहद प्यारे गीत की तर्ज बनायी जिसकी स्थायी पंक्ति थी- ‘ओ दूर जाने वाले, वादा न भूल जाना।’ इसकी तर्ज ठीक वही थी जो ‘दामन न छोड़ देना’ की थी। भाई की चीज पर भाई का स्वाभाविक और सहज अधिकार होता है। ओ दूर जाने वाले गीत की लोकप्रियता में ‘दामन न छोड़ देना’ की खुशबू का मजा पा जाया करता था। पछताने की, शिकायत करने की तो कोई बात ही नहीं थी। इस फिल्म का पांचवां गीत था- ‘मन से चिंता की घटा, दूर हो जा।’ पहले गीत की तरह यह भी तांगे में ही आउटडोर लोकेशन में गाये जाने के लिए था। यह कोरस सांग था। बातिश जोहरा और शमशाद बेगम ने इसमें प्ले बैक दिया था।

…..पंचोली आर्ट पिक्चर्स लाहौर में अब मेरे संघर्ष के दिन शुरू हो गये। नौबत यहां तक पहुंच गयी कि ‘कैसे कहूं’ फिल्म से मेरे ये पांचों गीत कटने जा रहे थे और इनके स्थान पर दूसरे गीतों के भरने की व्यवस्था होने लगी थी। मगर सेठ दलसुख एम पंचोली की उदारता के फलस्वरूप ये गीत कटने नहीं पाये। फिल्म को तो असफल होना ही था। दो चार सप्ताह यह फिल्म चली भी तो मेरे ही गीतों की बदौलत। इन परिस्थितियों से ऊबकर मैं लाहौर से अब बंबई की ओर रवाना हुआ।

…लाहौर की सारी पीड़ा बंबई में गीत बनकर फिर चहकने लगी। एक बार फिर नये सिरे से मैंने एक विराट फिल्म संसार में प्रवेश किया जहां अनेक दलसुख एम. पंचोली सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए क्यू में खड़े थे… लाहौर के मेरे परिचित जवाहर लाल शर्मा इम्पीरियल सिनेमा हाउस के सामने सनराइज पिक्चर्स आफिस के सामने रहते थे। वहीं हम भी उनके साथ रहने लग गये। यहीं भारत के सर्वश्रेष्ठ निर्माता निर्देशक राजकमल कला मंदिर के अधिष्ठाता, वी शांताराम से मिलने की योजना बनी।

वी. शांताराम से मिलने के पूर्व उनके भाई काशीनाथ की स्वीकृति आवश्यक थी। वी. काशीनाथ ने हम लोगों को बताया कि इस समय वे इतने व्यस्त हैं कि उनसे मिलना संभव नहीं है। रही काम की बात, आप गीत लिखने का चांस चाहते हैं तो आप मास्टर विनायक राव से मिलिए। वे प्रफुल्ल पिक्चर्स के मालिक हैं। इस समय वे एक बड़ी कास्ट्यूम पिक्चर, स्टार कॉस्ट, लेकर प्रोड्यूस करने जा रहे हैं। मैं उनको पत्र लिख देता हूं। उनसे आप मिलें। यदि कोई गीत आपका पसंद आ गया उनको तो आगे चलकर इसी के आधार पर आप शांताराम से मिल सकते हैं।

मास्टर विनायक राव भी इंपीरियल सिनेमा हाउस के पास ही ‘कुमुद विला’ नामक एक बिल्डिंग में रहते थे। यह सनराइज पिक्चर्स के मालिक बी. एम. व्यास का मकान था जिसमें मास्टर विनायक राव किराये पर रहते थे। वह कोल्हापुर के निवासी थे। वे किसी उच्च विद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता थे मगर कला के प्रति अनन्य प्रेम के कारण अभिनेता के रूप में वे फिल्मी कलाकार हो गये। ‘ब्रांडी की बोतल’ में उनका सराहनीय अभिनय था। वे अब प्रोड्यूसर थे।

विनायक राव ने अपने आसन से उठकर हमारा और शर्माजी का अभिवादन किया। उनकी नयी फिल्म की, जिसका निर्माण होने जा रहा था, बात चली। मास्टर विनायक राव ने मुझसे अपनी कोई कविता सुनाने का आग्रह किया। मैंने उनको अपनी वही कविता सुनाई- ‘रूप भार से लदी तू चली’। इस कविता की उन्होंने बड़ी प्रशंसा की और निर्माणाधीन पिक्चर का पूरा संवाद और गीत लेखन का काम उन्होंने मुझे देना चाहा। मैंने विवशता प्रकट की, केवल गीत लिखने का उत्तरदायित्व ही स्वीकार किया। इस फिल्म का नाम था ‘सुभद्रा’ जिसमें शांता आप्टे नायिका थीं। मास्टर बसंत देसाई इसके संगीत निर्देशक थे। पंडित सुदर्शन इसके संवाद और गीत लिख रहे थे किंतु विनायक राव उनके संवाद और गीत से संतुष्ट नहीं थे। दो तीन गीतों की परिस्थितियां उन्होंने मुझे बतलाईं जिन्हें मैंने नोट कर लिया और दो दिन का समय उनसे मांगा।

मास्टर विनायक राव, स्रोत Cinestaan

दो दिनों में तीनो गीत मैंने लिख लिये। मास्टर विनायक राव को तीनों ही गीत बहुत पसंद आये। फिर उन्होंने दो गीत और लिखने के लिए मुझसे कहा। उन्हें ये गीत भी बहुत अच्छे लगे। उनकी स्थायी पंक्तियां इस प्रकार थीं – ‘गोकुल के कृष्ण कैसे इतने बदल गये’, ‘मेरे मन जा उन्हें संदेश सुना’, ‘मैं खिली खिली फुलवारी’, ‘मेरे नयनों में जल भर आये, वे नहीं आये’, और ‘चारो ओर अंधेरा’।

मैं अपने सभी गीतों को संगीत की धुन में नहीं बल्कि एक खास तरन्नुमी अंदाज में पेश करता था जो एक नये ढंग का असर डालता था। मास्टर विनायक राव पर भी मेरे गीतों का जादू चल गया… ‘सुभद्रा’ अर्जुन की प्रतीक्षा में कब से व्याकुल है किंतु अर्जुन उसके पास पहुंच नहीं पा रहे हैं। इस अवसर के लिए जो गीत मुझसे मास्टर विनायक राव ने लिखवाया था उसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं- ‘मेरे नयनों में जल भर आये, वे नहीं आये/मन की कलियों से माला बनायी/जिनमें अपनी हंसी थी बसाई/हाय हाथों में फूल कुम्हलाये, वे नहीं आये।’

मेरे गाने का अंदाज निराला था। ‘वे नहीं आये’ एक बार कहकर दूसरी बार केवल सितार की झंकार से ही इसे व्यक्त करने पर यह गीत और भी मधुर हो उठता था। संभवतः इसी से प्रसन्न होकर मास्टर विनायक राव ने अपनी एक पालित कन्या को बुलवाया जो संगीत की शिक्षा ग्रहण कर रही थी। उस समय उसकी आवाज में विलक्षण माधुर्य था। एक दिव्य अनोखापन था। वह लड़की 15 वर्ष की रही होगी। फ्रॉक, चड्ढी और चुन्नी में औसत कद की दुबली पतली सांवली सी एक सलोनी बालिका उनके बुलाने पर आयी। विनायक राव जी ने उससे मेरा वह गीत अपने स्वर में सुनाने को कहा। उस बालिका ने वहां पर रखा हुआ हारमोनियम अपने सामने रख लिया और उसके पर्दों पर अपनी ऊंगलियां फेरने लगी। विनायक राव जी ने मुझसे वह गीत अपने तर्ज में प्रस्तुत करने को कहा। मैंने तत्काल इस आदेश का पालन किया। उस लड़की ने बड़े गौर से मेरा गीत सुना। दो एक बार उसने अपनी उंगलियों को इधर उधर घुमाया और हारमोनियम को खिसकाकर एक ओर करके वह खिलखिलाकर हंसती हुई वहां से चली गयी। हम दोनों भौचक्के से उसे देखते रह गये। अभी बच्ची है। मारे लाज के वह चली गयी होगी।

लता मंगेशकर

थोड़ी देर बाद मैं वहां से चला आया। नीचे के कमरे में, जो ड्राइंग रूम जैसा था, मैंने देखा कि एक किनारे रखे रेडियो से फिल्म ‘पहले आप’ का एक गीत मधोक का लिखा, नौशाद का धुन तैयार किया हुआ प्रसारित हो रहा था। गीत था- ‘आजा कहीं दूर चलें/ दुनिया की आंखों से हाय रे हाय/ छिप छिप प्यार करें’। इस गीत की धुन वाकई बहुत प्यारी थी। इस गीत को मैं भी पसंद करता था। कमरे में देखा कि वह लड़की इस गीत पर ताली पीटकर झूम झूम कर मगन मस्ती में नाच रही थी। जैसे ही मैं कमरे में दाखिल हुआ वह पुनः खिलखिलाकर हंस पड़ी और नाखून होठ से लगाकर चुप हो गयी। मैं कुछ प्यार से, उपालंभ के स्वर में यह कहता हुआ बाहर आ गया कि ऊपर तो तुम लजाकर भाग गयी थी। कहने पर भी वह गीत नहीं तुमने सुनाया और यहां गा भी रही हो, नाच भी रही हो। वह लड़की वहां से भी खिलखिलाकर हंसती हुई दूसरी तरफ निकल गयी।

यह लड़की और कोई नहीं, यह कीट्स की नाइटेंगल और शेली की स्काईलार्क, भारत की आत्मा की आवाज का मूर्तिमान स्वरूप लता मंगेशकर थी। उस समय सिवा विनायक राव के इसे कोई नहीं जानता था। उसकी बहनें आशा और उषा बहुत नन्हीं सी थीं मगर लता ने अपने साथ-साथ आशा भोसले और उषा मंगेशकर को भी अमर कर दिया। अमरत्व का यह स्थान प्राप्त करने में लता को कितनी ठोकरें खानी पड़ीं और कितना संघर्ष करना पड़ा यह सब था इन अंखियन आगे।


(स्रोत ग्रंथ)

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