कार्तिक की अंधेरी रात 
दो मोहल्लों के कुत्ते आपस में झगड़ते हैं 
कभी लगता है हमला हुआ है एक दल का 
तो कभी आवाज़ घटती सी जान पड़ती है 
जैसे किसी गाड़ी की बैकलाइट के पीछे दौड़ गया हो एक झुण्ड  
फिर अकेले में रोता है एक कुत्ता 
पंचम स्वर में 
ऊं ऊं ऊं 
और रोते रोते लगता है भूंकने 
जैसे तय न कर पा रहा हो 
बचने की तरकीब ऐन हमले के क्षण में 
इसी बीच लगता है जैसे हो गई है संधि 
थोड़े अंतराल पर रह-रह कर आवाज आती है 
घुर घुर घुर 
फिर सब शांत 
निस्तब्ध 
एक महान व्यभिचार की जैसे आहट 
जिसे छुपाया जा रहा हो 
उनसे जिन्हें आदत है 
देर रात जगने की
जैसे दिया जा रहा हो आभास 
कि अब सब ठीक है 
चलो, सो जाओ 
सो जाओ 
कि खत्म हो चुका है प्रश्नकाल 
मत पूछो 
दिसंबर के पहले पहर 
पंखा क्यों चलता है
मत पूछो 
बाहर दिख रही घनी धुंध में  
बारूद क्यों महकता है
जैसे चलते-चलते किसी पहाड़ी रास्ते पर 
अचानक रुक जाए बाइक 
जले हुए ऊन की अचानक उठी गंध 
बदल जाए एक जीते-जागते बाघ में  
कभी किया है महसूस ऐसा कुछ? 
अंधेरी रात में बाघ को कुत्ता समझ लेना 
हो सकती है जिंदगी की आखिरी भूल
अंधेरे में न दिखता है 
न सूझता है 
हाथ को हाथ 
बाहर जो शांति फैली है 
इस वक्त 
हो सकता है वह मिलीभगत हो 
अनेक नस्लों की 
शायद मेरी खिड़की के नीचे कोई बाघ ही हो 
या कोई भेडि़या
कोई भालू 
एक सियार 
मेरे ठीक पीछे की दीवार पर रेंगती है 
एक छिपकिली चुपचाप 
कुछ लोग गुज़र रहे हैं नीचे से 
सिर्फ इसलिए चुपचाप 
कि वे मानते आए हैं बरसों से 
रात में धीरे बोलना चाहिए 
या कि चुप ही रहना चाहिए 
अजीब बात है 
रात भी है 
अंधेरा भी है 
धुंध भी है 
और सब शांत भी है 
रात को अंधेरे के वश में छोडकर 
धुंध में सो जाना 
किसने सिखाया सबको? 
देर रात 
चलते-चलते मुसाफि़र 
कहीं गड्ढे में गिर गया तो? 
कुत्ते फिर से मुखर हो गए हैं 
मैंने कहां पूछा था तेज़? 
मैं तो बस सोच रहा था मन ही मन 
कि उन्होंने मेरा मन पढ़ लिया 
या कि बुदबुदाते होठों पर पढ़ ली प्रार्थना 
रात के भटके मुसाफि़र के लिए? 
अब तो मैं 
उसे चाहकर भी नहीं बचा पाऊंगा 
घेर लिया जाऊंगा 
कोशिश की आगे बढ़ने की 
तो मारा भी जा सकता हूं 
घुप्प सन्नाटे में 
किसे पुकारूं 
सब सो गए हैं 
ऐन अंधेरी रात 
जब ज़रूरत जगने की है 
सो गए हैं सब 
जब धुंध को चीरकर निकाली जानी है एक राह 
मुकम्मल सी 
सो रहे हैं सब 
जगे हैं तो केवल जानवर 
एक से एक खतरनाक 
जंगली 
पालतू 
प्यारे 
हर नस्ल के 
जानवर 
और महीना कार्तिक का है 
शुरू होने वाला है एक महान व्यभिचार 
इस रात के सन्नाटे में 
रखी जाएगी नींव संकर नस्लों की 
आने वाली पीढि़यों का डीएनए होगा इतना जटिल 
कि चकरा जाएगा विज्ञान 
बताने में 
बाघों और कुत्तों से मिलकर कैसे हुए पैदा 
रंगे सियार 
कि चमगादड़ों ने कैसे दिया जन्म 
भेडि़ए के बच्चों को 
और उल्लुओं के बीच समलैंगिक व्यभिचार से 
कैसे जने गए गधे  
बारह का गजर खड़कने से ऐन पहले 
जबकि नितब्धता बस अभी-अभी उतरी है 
सड़कों पर 
मैं बचा ले जाना चाहता हूं 
प्रकृति के इस विराट कलंक से 
उस मनुष्य को 
जो गिर सकता है 
कभी भी गड्ढे में 
अंधेरी रात में बाघ को कुत्ता समझ लेना 
या गड्ढे को सीढ़ी समझ लेना 
हो सकती है जिंदगी की आखिरी भूल
अंधेरे में न दिखता है 
न सूझता है 
हाथ को हाथ 
मैं नहीं सो सकता 
जानता हूं 
उसे चाहिए मेरा साथ 
पशुओं के साम्राज्य में हो सकता है 
वह आखिरी मनुष्य मेरे सिवा 
वह चाहे जो हो 
उसे बचाया जाना ज़रूरी है। 
सब मुझे घूर रहे हैं 
गौर से 
दीवार से चिपकी छिपकिली भी 
उसका जितना भी बड़ा मुंह है 
वह उतने में ही मुस्कराती है 
मच्छर मौज ले रहे हैं 
जैसे लगा रहे हों ठहाका 
मेरे कान के इर्द-गिर्द 
न्यूनतम समवेत् स्वर में 
कुत्ते भी सहसा करने लगे हैं गों गों 
अचानक हंस गया है एक पक्षी मेरे ठीक पीछे 
बेहद तीखी आवाज़ में 
जैसी सुनी जाती है किसी अकाल के ठीक बीचोबीच 
फटी हुई धरती से सौ फुट ऊपर  
और यहां नीचे 
पशुओं के साम्राज्य में 
अठखेलियां चालू हो चुकी हैं 
यह फोरप्ले नहीं है 
इसे कामक्रियाओं का उद्दीपन 
समझना भूल होगी 
खट खट बजती चौकीदार की लाठी और 
रह-रह कर बजती लंबी सीटी 
बन गई है सूत्रधार 
एक भव्य प्रहसन का 
अभूतपूर्व 
प्रहसन 
जिसके तुरंत बाद शुरू होगा सिलसिला 
व्यभिचारों का 
मूर्ख नस्लों को जनने का 
जिसकी हर अगली पीढ़ी होगी 
पिछली से भी ज्यादा और तीक्ष्ण मूर्ख 
पीढि़यों का यह बोझ सघन होकर 
लील जाए इस धरती को  
उससे पहले 
मैं बचा ले जाना चाहता हूं 
एक शख्स को 
गड्ढे में गिरने से 
और मेरे इस खयाल पर 
हंस रहे हैं सभी प्राणी 
इनकी चुप्पी में भी मिलीभगत थी 
ये हंसते भी हैं एक साथ 
बिना बात की सामूहिक हंसी पैदा करती है आतंक 
मुझे डर लग रहा है 
यह मेरा वहम भी हो सकता है 
लेकिन इतिहास गवाह है 
देर रात जगने वालों को सुबह उठते ही 
मार डाला गया है  
अचानक मुझे लगता है 
कि सब कुछ ठीक नहीं है 
रात के इस धुंधलके में 
सब सो गए तो क्या हुआ 
प्रश्न तो पूछे ही जाने होंगे 
नहीं कर सकता मैं इंतज़ार 
सदन के अगले सत्र का 
मैं नहीं सो सकता 
बेफि़क्र 
जबकि एक शख्स गिर सकता है कभी भी 
गड्ढे में
मन का सारा डर समेट कर 
पूरे साहस के साथ 
मैं चीखता हूं ”नहीं”! 
”यह ठीक नहीं
यह जो हो रहा है ठीक नहीं है  
मुझे डर लग रहा है” 
मेरी इस चीख पर कोई हंस सकता है 
यह मैंने पहली बार जाना 
ऐसी बात पर सब हंस देंगे 
यह भी पहली बार जाना 
अपना डर बताने पर और डराया जाएगा 
यह भी मैंने पहली बार जाना 
मनुष्यता के इतिहास में 2015 से पहले 
ऐसी प्रतिक्रिया 
कब मिली होगी भला? 
मुझे डर लग रहा है 
आप मुझे डरपोक कह सकते हैं, बेशक 
मैं कहता हूं कुछ तो गड़बड़ है 
और आप मुझे असहमत कह सकते हैं 
मैं सवाल पूछूं तो 
आप मुझे बाग़ी कह सकते हैं 
लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि 
मैं चीखता रहूं 
और आप हंसते जाएं 
आतंकित करने की हद तक हंसें 
बना दें मेरे सवाल को एक प्रहसन 
और पलट कर बोलें 
यह डर नकली है
यह विरोध नकली है 
अगर अब है तो 
पहले क्यों नहीं था 
अगर पहले नहीं था तो 
अब क्यों है 
इसका मतलब साफ़ है 
यह आदमी राजनीति कर रहा है 
यह संदिग्ध है 
इसका डर संदिग्ध है 
इसका विरोध संदिग्ध है 
यह आदमी संदिग्ध है 
इसका होना संदिग्ध है 
इसके पीछे बाहरी ताकतों का हाथ है
इसे बाहर भेजो 
यहां भेजो 
वहां भेजो 
लेकिन यहां से चाहे जहां भेजो 
हकाल दिया गया है मुझे सिनेमाहॉल से बीचोबीच 
कि प्रहसन से ऐन पहले 
नहीं खड़ा हुआ मैं राष्ट्र के अश्लील गान में
रंग दी गई है मेरे मुंह पर कालिख। 
लोकतंत्र, आधुनिकता और सद्भाव के मुहाने पर खड़ा 
मैं 
सदमे में हूं 
सुलझाते हुए भाषा की गुत्थी 
शब्दों की खोखल में 
परिचित अर्थों को दोबारा भरने की 
करता हूं कोशिश 
चाहता हूं लिखना 
एक अदद प्रामाणिक कविता 
मुंह अंधेरे 
इस बात से बेखबर 
कि 
मुझ पर हंसते-हंसते
उन्हें लग आई है बेजोड़ भूख 
और वे समझते हैं 
कि इस प्रहसन को बीच में रोकना 
जरूरी है 
बेहद ज़रूरी 
उनकी क्षणिक हार की कीमत पर भी 
ताकि थोड़ा सुस्त हो लें 
कुछ और निशाचर  
हो लें आश्वस्त 
कि आतंक थम गया है 
पाटलिपुत्र में हार गया है चाणक्य 
यह अंधेरे का धोखा है 
ढलती रात के साये में 
धोखे से सिर्फ हत्या की जाती है 
और कुछ नहीं 
उनकी थम चुकी हंसी 
और बाहर फैला मौन 
संकेत है 
किसी आसन्न अनिष्ट का 
शास्त्र सम्मत नहीं होता खाली पेट किया गया व्यभिचार 
सो 
निकल पडे हैं वे 
समस्त भालू/ बाघ/ सियार/ भेडि़ए/ बघीरे/ लकडबग्धे/ चमगादड़ और 
कुत्ते झुटपुटे में 
विश्वासघात के एक ऐतिहासिक क्षण में 
करने को आखेट 
कि अचानक गुरगुराता है मंदिर की छत पर 
उत्तर दिशा में एक भूरा बंदर 
खों खों खों 
और चिहुंकने लगते हैं उसके सारे संगी 
यही है यही है 
गूंज उठता है जंगल 
सही है सही है 
भूखे पेट 
रौंदते जमीनों को 
जंगलों को 
नदियों को 
और चींटियों को 
दौड़ पड़ते हैं 
सहस्र चतुष्पद 
भोर के माथे पर लहराता है एक चाकू 
सनसनाती है एक शमशीर 
मचल उठता है 
दिशाओं को तीन हिस्से में काटता एक त्रिशूल 
और खच्च्च्च्च की विलंबित भैरवी पर  
क्षितिज से हौले-हौले उठता है सूरज 
रामराज का 
गाय जैसी रंभाती हुई सभ्यता को देख 
स्वर्ग में मुस्कराता है गोडसे।
मुसाफिर मारा गया 
मैं उसे नहीं बचा सका 
और यह बात सिर्फ मैं जानता हूं 
या वे 
जो जागते हैं देर रात तक 
देते हैं दखल उनकी काम-क्रीड़ा में 
ताकि बचा रहे डीएनए 
प्रश्नांकन का 
संततियों में। 
कल फिर चलेगी गोली 
फिर मरेगा कोई 
और हर हत्या के साथ 
वे छीन लेंगे मुझसे कुछ शब्द 
वे शब्द 
जिन्होंने मनुष्यता को दिए हैं स्वर 
जिनसे निकलती है कविता 
कविता 
जो बचाती है 
अंत तक 
साहस को 
ईमान को 
जबान को, रात के घुप्प अंधेरे में भी 
अनियंत्रित भौंकते हुए कुत्तों के बीच 
क्योंकि कविता 
मनुष्यता की सबसे बड़ी आस्था है 
मूर्खता के स्वर्णकाल में 
वह विवेक का संदूक है 
विरोध की लाठी है 
भाषा का विज्ञान है 
आधी रात की आशंकाओं में 
किसी हत्या की आसन्नता के बीच 
एक सच ऐसा है जिससे महरूम है 
बर्बर पशुओं का यह साम्राज्य 
वह सच कविता का है 
वह इतिहास का वह सबक है  
कि बीत ही जाता है हर मौसम 
बरपाकर अपना कहर एक रोज़ 
पर 
जब कटती है फसल 
आती है बैसाखी 
तक हरी कोपलों में छुप जाते हैं 
मनुष्यों के 
जत्थे के जत्थे 
घेर लिए जाते हैं भुखमरे गांवों से शहर 
वे चाहे कितने ही स्मार्ट हों 
बिलकुल छापामार शैली में 
तब भागते हैं भेडि़ए संसद की ओर 
कुत्तों को नहीं मिलता कोई ठौर 
अब तक लटकते थे मौज में जो उलटे 
पहली बार लटकाए जाते हैं वे चमगादड़ जबरन 
सीधी कर दी जाती है बंदरों की पूंछ 
नहला-धुला कर चौराहों पर 
खड़े कर दिए जाते हैं सियार 
ठप कर दिए जाते हैं सब व्यभिचार 
तब 
देश का सबसे सहिष्णु कवि 
सबसे संस्कारी फिल्मकार 
सबसे मानवीय वैज्ञानिक 
सबसे उदार इतिहासकार 
सबसे साधारण बुद्धिजीवी  
और सबसे देहाती नागरिक 
अपने-अपने बचे-खुचे शब्दों की 
जलाकर मशाल 
गाता है पहली बार 
असहिष्णुता का एक महान गीत 
महानतम असहिष्णुताओं के खिलाफ़। 
ऐसा हर बार होता है 
लेकिन हर बार 
यह पहली बार होता है 
मनुष्यता ऐसे ही बचती है 
पाशविकता ऐसे ही हारती है
बस 
जिंदा रह जाता है यह सच 
न भुलाए जाने को 
मामूली कविताओं में 
संक्षिप्त नारों में 
बुझ चुकी मशालों में 
घिस चुके पन्नों में 
पेड़ों की छालों में 
दब चुकी घासों में 
बातों में, यादों में 
और औरतों के गर्भ में 
जिन्हें अभी असंख्य यातनाएं झेलनी हैं
जिन्हें अभी असंख्य स्पार्टकस जनने हैं।  
———————————————-
————————————————-
Read more 


 
                     
                    