अभिषेक श्रीवास्तव 
दुनिया जीने के लायक नहीं बची 
याद नहीं कितनी बार कही होगी हमने यह बात
और फिर जीते चले गए होंगे 
ठीक उसी तरह 
जैसे लिखी जा रही है आज यह कविता 
कई बार लिख चुकने के बावजूद 
कि कविता करने का वक्त अब नहीं रहा 
जीने के लिए भुलाना ज़रूरी है उन अप्रिय बातों को 
जो जीने के आड़े आती हैं 
जैसे, कविता को भूल जाना होता है यह सच 
कि कविता से पेट नहीं भरता  
2014 की इस चढ़ती हुई ठंड में 
जब हवाएं मौत सी सर्द हैं 
और मांएं रो-रो कर ज़र्द हैं  
मुझे डर लग रहा है
डर लग रहा है मुझे   
उस बच्चे को सुनकर 
जो कल ही टीवी पर कह रहा था
”मैं उनकी नस्लों को मिटा दूंगा” 
क्या होगा, अगर याद रही उसे यह बात 
दस साल बाद भी? 
सैंतालीस, चौरासी, बानवे या 2002 
सिर्फ अंक नहीं हैं 
निशानदेही हैं इस सच की 
कि भूल जाना ही सबसे कारगर तरीका है 
जीने का, और जीने देने का
सोचो, अगर याद रखी जातीं ये तारीखें 
तो क्या सूरत होती इस मुल्क की?  
मुझे गलत मत समझना मेरे दोस्त 
जिस दुनिया में मार दिए जाते हों बच्चे 
वहां भूलने और कायर होने में फ़र्क होता है 
और चारा भी क्या है हमारे पास 
सिवाय इसके कि हत्यारे से कह सकें डट कर  
हमने तो भुला दिया 
अब तुम भी बंद करो हत्याएं   
जीने दो लोगों को चैन से 
बच्चों को मत दो 
अपने पुरखों के किए की सज़ा
क्योंकि अगर तुम याद रखोगे
गांठ बांधोगे तो 
वे भी याद दिलाएंगे 
गोडसे की मूर्तियां लगवाएंगे 
मस्जिदों पर मंदिर बनवाएंगे 
फ़तवे पढ़वाएंगे 
संस्कृत चलवाएंगे 
लोटा पकड़ा कर 
घर वापसी करवाएंगे 
कायर मत बनो
उनके जाल में मत फंसो  
मत करो बहस इतिहास पर 
कि पहले कौन मरा 
और पहले किसने मारा 
मरे हुओं पर बहस बंद होनी चाहिए 
अभी और इसी वक्त 
जो जिंदा हैं 
उन्हें जीने का हक है इस बची-खुची दुनिया में 
उनके वास्ते भुला दो सारा इतिहास
भुला दो जंग और हत्याओं की सारी गलीज़ तारीखें
भुला दो पंजाब, दिल्ली, नेल्ली, अयोध्या और गुजरात 
उस बच्चे के वास्ते भुला दो 16 दिसंबर 2014 का पेशावर 
जो अस्पताल में पड़े-पड़े वहां खा रहा था कसमें 
नस्लों को खत्म करने की 
बचा लो इंसानी नस्लों को 
और बचा लो उस बच्चे को 
क्योंकि उस तक पहुंचने वाली 
साम्राज्य की सबसे पुरानी सड़क 
बंगाल से चलकर 
बनारस से गुज़रती है
जहां से अभी-अभी चुनकर आया है
एक और तालिबान।  
Read more 

 
                     
                    