क्या भारत का जनतंत्र फ़ेसबुक-ग्रस्त हो चुका है?

एक विशालकाय कम्पनी की सक्रियताओं को जानने के लिए जांच जरूरी ही है, लेकिन हमें लिबरल जनतंत्र के भविष्य के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए, जिसकी तरफ प्रोफेसर डीबर्ट ने इशारा किया है।

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नफरत बेचो, मुनाफ़ा कमाओ: फेसबुक की इंडिया स्‍टोरी और उससे आगे

दुनिया भर में फेसबुक की जितनी आलोचना हो रही है, उससे यह मुमकिन भी है कि वह अपने अन्दर के दक्षिणपंथी तत्वों पर लगाम लगाने का प्रयास करे, लेकिन यह मान लेना बेवकूफी की इन्तहा होगी कि कहानी का यही अन्त है।

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घेरेबन्दी में पड़े देश और खेल के नये नियमों के बीच हम क्‍या कर सकते हैं?

भारत में हम, स्‍मृति और स्‍मृतिलोप के बीच लम्बे समय से लटके हुए हैं। फिलवक्त कोई बमबारी नहीं चल रही है, न हम अपने सामने मासूमों का बहता खून देख रहे हैं जो ‘इतिहास की गलतियों’ को ठीक करने के नाम पर बहाया जा रहा है, न ही सड़कों पर हथियारबन्द दस्ते मौजूद हैं जो ‘अधर्मियों’ और ‘अन्यों’ को ढूंढ रहे हैं।

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आज़ाद जनतंत्र में सत्तर साल बाद भी वेल्लोर से विरमगाम तक श्मशान भूमि से वंचित हैं दलित

जब दलितों ने सार्वजनिक तालाब से पानी का उपयोग शुरू किया, ऊंची जाति के लोगों ने रफ्ता-रफ्ता इसके प्रयोग को बन्द किया क्योंकि उनका कहना था कि अब पानी अशुद्ध हो गया है। मामला वहीं तक नहीं रुका।

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बिहार चुनाव आते ही प्रतिबंधित रणवीर सेना को एक बार फिर कौन हवा दे रहा है?

ऐसा कोई भी शख्स जिसने इस संगठन की यात्रा पर गौर किया होगा और उत्तर भारत की वर्चस्वशाली जाति के साथ उसके नाभिनालबद्ध रिश्ते को देखा होगा, वह जानता होगा कि आज भी सत्ताधारी हलकों में उसका कितना रसूख है।

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बलात्कार पीड़िता पर ही दोषारोपण करने के मामले में जज को हटानी पड़ी आपत्तिजनक टिप्पणी

कुछ दिन पहले 22 जून को कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस कृष्णा दीक्षित ने बलात्कार के एक मामले में संदिग्ध को जमानत दी थी। दरअसल, राकेश बी. बनाम कर्नाटक राज्य के इस मुकदमे में न्यायाधीश महोदय ने बलात्कार के अभियुक्त को गिरफ्तारी पूर्व जमानत देते हुए कहा था कि शिकायतकर्ता उस कथित अपराध के बाद सो गयी थी ‘‘जो एक स्त्री के लिए अशोभनीय है; यह वह तरीका नहीं है जैसी कि हमारी महिलाएं व्यवहार करती हैं जब उन्हें प्रताडित किया जाता है।’’

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वसंत राव और रजब अली: चौहत्तर बरस में गुमनाम हो गयी सेवा दल के जिगरी दोस्तों की साझा शहादत

विडम्बना ही है कि स्वाधीनता संग्राम के दो महान क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान की दोस्ती एवं शहादत को याद दिलाती इस युवा जोड़ी की स्मृतियों को लेकर कोई खास सरगर्मी शेष मुल्क में नहीं दिख रही है। इसकी वजहें साफ हैं।

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मनु को इतिहास तक सीमित करने का सवाल बनाम मनुस्मृति को ‘सैनिटाइज़’ करने के षडयंत्र

मनु को इतिहास तक सीमित करने का सवाल निश्चित ही व्यापक उत्पीड़ित समुदायों के लिए ही नहीं बल्कि अमन और इन्साफ के हर हिमायती के लिए बेहद जरूरी और मौजूं सवाल लग सकता है, लेकिन जिस तरह यह समाज ‘राजनीतिक बुराइयों से कम और स्वतःदंडित, स्वतःस्वीकृत या स्वतःनिर्मित और टाले जाने योग्य बुराइयों से कहीं अधिक परेशान रहता है उसे देखते हुए इस लक्ष्य की तरफ बढ़ने के लिए हमें कैसे दुर्धर्ष संघर्षों के रास्ते से गुजरना पड़ेगा, इसके लिए आज से तैयारी जरूरी है।

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औपनिवेशिक लूट के साझा अतीत बावजूद अश्वेतों के प्रति हमारा व्यवहार अहंकारपूर्ण क्यों है?

उपनिवेशवाद की विरासत ने दोयम दर्जे के भारतीयों की एक ऐसी राष्ट्रीय पहचान को मजबूती प्रदान की जो आज भी श्वेत रंग को अश्वेत रंग से ऊंचा मानने के जरिये अभिव्यक्त होती है

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