जैंजि़बार के दिन और रातें: चौथी किस्‍त


प्रो. विद्यार्थी चटर्जी 

भारत में हम जब पूर्वी अफ्रीका की बात करते हैं, तो हमारे दिमाग में अनायास तंज़ानिया, केन्‍या और उगांडा की तस्वीर उभर आती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुत पुराने समय से यहां भारतीय समुदाय कम संख्या में ही सही रहते आए हैं। इनमें अधिकतर कारोबारी समुदाय हैं (गुजराती, सिंधी, मारवाड़ी और मुट्ठी भर पारसी भी) लेकिन इनमें कुछ डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और कलाकार भी हैं। ऐसे ही एक कलाकार से फिल्म महोत्सव में आए प्रतिनिधियों को साक्षात्कार का मौका मिला, जिनका नाम था शैलजा पटेल। वे एक केनियाई कलाकार हैं। यहां उन्होंने जो प्रस्तुति की, उसका नाम रखा था ‘‘माइग्रीच्यूड’’। 

वे एकल रंगमंचीय प्रस्तुतियां करती हैं जिसमें नृत्य और संगीत दोनों निबद्ध होते हैं। ‘‘माइग्रीच्यूड’’ नामक प्रस्तुति विरासत, युद्ध, स्वतंत्रता जैसे वैश्विक विषयों को निजी पारिवारिक आख्यानों के माध्यम से सार्वजनिक करती है। साथ ही यह शैलजा के अपने प्रवासी परिवार के अनुभवों के माध्यम से उपनिवेशों में रह रहे व्यक्तियों के वैश्विक अनुभवों को साकार करती है। शैलजा कहती हैं, ‘‘इसमें एक प्रवासी के तौर पर मेरे निजी अनुभवों का सफर हैं: अस्तित्व से आत्माभिव्यक्ति तक, अदृश्यता से सक्रियता तक और अल्पसंख्यक अस्मिता से एक बदलावकारी कलाकार बनने तक का सफर। ‘‘माइग्रीच्यूड’’ अपने आप में दरअसल ‘‘नेग्रीच्यूड’’ (अश्वेत बौद्धिकों द्वारा शुरू किया गया एक साहित्यिक और वैचारिक आंदोलन) और ‘‘एटीच्यूड’’ (प्रवृत्ति) का मिश्रण है जो बाहरी प्रवासी अस्मिता की प्रतिष्ठा को अभिपुष्ट करता है। इस प्रतिष्ठा को पाने के लिए बाहरी या प्रवासी को किसी मूलवासी की तुलना में न सिर्फ भौतिक स्तर पर बल्कि मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक ज़मीन पर भी संघर्ष करना पड़ता है। 


मूल आबादी के बीच प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता की स्थिति को हासिल करना कोई आसान काम नहीं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण गांधीजी रहे हैं। शैलजा की प्रस्तुति इस प्रवासी भाव को बेहद असरकारी ढंग से अभिव्यक्त करती हैं जिसमें सपाटबयानी से कहीं ज्यादा संप्रेषणीय अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता होती है। इस लिहाज से ‘‘माइग्रीच्यूड’’ दरअसल माइग्रेंट यानी प्रवासी, नेग्रीच्यूड और एटीच्यूड का मिश्रण बन कर उभरता है।
शैलजा पटेल 
एक शाम फिल्म महोत्सव के स्थल पर टहलते वक्त मुक्तांगन में एक नृत्य प्रस्तुति को देखने का मुझे मौका मिल गया। उसे देख कर अहसास हुआ गोया मैं भारत में हूं। नृत्य निर्देशिका और नृत्यांगना जयाप्रभा मेनन की अगुवाई में यहां आए मोहिनीअट्टम दल के सदस्यों के दमकते चेहरे, भंगिमाएं और नृत्य ने अफ्रीकी और यूरोपीय दर्शकों के छोटे से समूह को जैसे अपने मोहपाश में बांध लिया हो। बाद में मुझे पता चला कि यह प्रस्तुति भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा प्रायोजित थी और जैंजि़बार के वाणिज्यिक दूतावास के सहयोग से यहां संभव हो पाई थी। उस वक्त यहां के वाणिज्यिक दूत एक मलयाली सज्जन हुआ करते थे। 

जयाप्रभा मेनन 
दर्शकों को मोहिनीअट्टम से परिचित करवाने के लिए महोत्सव के कैटलॉग पर लिखा था, ‘‘मोहिनीअट्टम का शाब्दिक अर्थ है किसी मोहिनी स्त्री का नृत्य; यह दक्षिण-पश्चिमी भारत के केरल की एक प्रतिष्ठित नृत्य शैली है। मोहिनीअट्टम नृत्य के लक्षणों में देह की वृत्ताकार लय चुझिप्पु, धड़ की मधुर दोलनकारी लय अतिभंग और लहर जैसी गतियां यानी आंदोलिका शामिल होती हैं। मोहिनीअट्टम की परंपरा 16वीं सदी के भारत के शास्त्रीय नृत्य शैलियों से निकली है। इसमें देह की लयाकार, विशिष्ट और मौलिक गतियां होती हैं, बोल काव्यात्मक होते हैं, केश शैली आकर्षक होती है और परिधान काफी रंग-बिरंगे होते हैं। महोत्सव के दौरान इस नृत्य की प्रस्तुति में जो संगीत शैली प्रयोग में लाई जाएगी उसका नाम है सोपान संगीतम, जिसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों मृदंगम, मधालम, इडक्का और वीणा पर बजाया जाएगा।’’ सभागार में कुछ लोग प्रस्तुति के बीच-बीच में कैटलॉग को पढ़ते हुए दिखे। ज़ाहिर है उनकी दिलचस्पी इसमें बढ़ चुकी थी क्योंकि उनके लिए यह नृत्य शैली सर्वथा नई और आकर्षक जो थी। (क्रमश:) 

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