पंजाब के भूमिहीन दलित परिवारों द्वारा पंचायती भूमि के इस्तेमाल एवं संबंधित हिंसा व गिरफ़्तारियों की घटनाओं की जाँच हेतु, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर), दिल्ली की पाँच-सदस्यीय टीम ने 30 अगस्त से 1 सितंबर 2025 के बीच राज्य के चार ज़िलों में स्थित पाँच गाँवों का दौरा किया।
इस दौरान सीलिंग प्रक्रिया के पश्चात् बची अतिरिक्त और बे-चिराग भूमि के भूमिहीन परिवारों के बीच वितरित न किए जाने का मामला भी टीम के संज्ञान में लाया गया। टीम ने संगरूर ज़िले के अधिकारियों, अतिरिक्त ज़िला आयुक्त (ग्रामीण विकास) एवं उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (संगरूर), से भी मुलाक़ात की।
टीम द्वारा की गई जाँच के निष्कर्ष इस प्रकार हैं :
- पंचायती भूमि के पट्टे पर दिए जाने के क़ानूनी प्रावधान से अधिकतर भूमिहीन दलित परिवार अनभिज्ञ रहते आए हैं। दशकों से पंचायती भूमि को एवजी (प्रॉक्सी) बोली लगाने वालों के माध्यम से गैरक़ानूनी तरीक़े से पट्टे पर वितरित किया जाता रहा है। इसमें प्रशासन की भी मिलीभगत रही है।
- पिछले लगभग डेढ़ दशकों से भूमिहीन दलितों द्वारा क्रांतिकारी पेंडू मज़दूर यूनियन (KPMU), नौजवान भारत सभा (NBS) तथा हाल में भूमि प्राप्ति संघर्ष समिति (ZPSC) जैसे संगठनों के परचम तले, पंचायती भूमि का पट्टा प्राप्त करने की माँग उठाई जा रही है।
- सबसे शुरुआती नीलामियों में से एक, जहाँ दलितों ने शिरकत की, संगरूर ज़िले के बेनरा गाँव में 2008 में संपन्न हुई थी। फलस्वरूप, बेनरा में उन्हें पट्टे पर 9 एकड़ भूमि आवंटित की गई। इस नीलामी में वे पट्टे की दर 3 लाख रुपए से घटाकर 1 लाख रुपए तक लाने में सफल रहे — क़रीब 11,000 हज़ार रुपए प्रति एकड़।
- हाल ही में (वर्ष 2023), पटियाला जिले के मंदौर गाँव में दलितों को पंचायती भूमि का पट्टा प्राप्त हुआ था। हालाँकि, इस साल, ज़मीनदार वर्ग द्वारा दलितों को इस ज़मीन से वंचित रखने हेतु फिर से एवजी बोली लगाने वालों का इस्तेमाल किया गया। दलितों ने यह कहते हुए ज़मीन खाली करने से इनकार कर दिया कि यह नीलामी महज़ एक प्रपंच था। उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप ने दलितों द्वारा नीलामी ख़ारिज किए जाने की माँग को ठुकरा दिया, जिसके चलते गाँव में भारी पुलिस बल भेजा गया और 25 लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इनमें से कईयों को महीना भर जेल में रखा गया। नीलामी में एवजी बोली लगाने वालों की जीत हुई।
- मलेरकोटला ज़िले के टोलेवाल गाँव में दलितों ने सामूहिक रूप से ढाई एकड़ पंचायती भूमि का पट्टा वर्ष 2017 में हासिल किया था। इस ज़मीन पर वे धान और गेहूँ, बिक्री एवं स्व-उपभोग के लिए, उगा रहे हैं। प्रत्येक परिवार को उपज का बराबर हिस्सा मिलता है। हालाँकि, इस परिवर्तन के चलते उन्हें न केवल सामान्य दिहाड़ी मज़दूरी का काम मिलना मुश्किल हो गया है बल्कि NREGA के तहत दिया जाने वाला रोज़गार भी बंद हो गया है।
- वर्ष 1982 में, संगरूर जिले के बतरियाना गाँव में दलितों को पंचायती भूमि का पट्टा दिया गया था, जो ज़्यादा समय तक नहीं टिक सका। इसका कारण पट्टे की दरें ऊँची होना था, जिसके चलते कई बार ज़मीनदार तबका एवजी बोली लगाने वालों का इस्तेमाल किया करता था। वर्ष 2015 के बाद से, ZPSC के हस्तक्षेप के कारण, 28 एकड़ भूमि के लिए पट्टे की दरें घटाकर 25,000 रुपए प्रति एकड़ कर दी गईं। इस भूमि के 18 एकड़ हिस्से पर सामूहिक रूप से खेती की जाती है; और, इसमें उपजी धान की फसल को बाज़ार में बेचा जाता है। बिक्री से प्राप्त राशि को बैंक में रखा जाता है ताकि उस पर ब्याज प्राप्त होता रहे। इस राशि को फिर कृषि मशीनरी खरीदने और आगामी साल की नीलामी में उपयोग में किया जाता है। सर्दियों के मौसम में उगने वाले गेहूँ को स्व-उपभोग के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। प्रति परिवार आधा बीघा ज़मीन पशुपालक परिवारों के लिए चारे की खेती हेतु अलग रखी जाती है।
- वर्ष 2022 में, लुधियाना जिले के सेखा गाँव में पहली बार एवजी बोली लगाने वालों को दरकिनार कर दलितों को 3 साल के लिए 6 एकड़ ज़मीन का पट्टा दिया गया। उन ग्रामीणों, जिनकी आजीविका पशुधन पर निर्भर है, ने इस ज़मीन पर 100 परिवारों के लिए चारा उगाया और अपने पशुधन में वृद्धि की। हालाँकि, इस साल फिर से ज़मीनदारों द्वारा एक एवजी बोली लगाने वाला खड़ा किया गया और दलितों को बोली-घर में प्रवेश करने से रोका गया। इससे गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई है। दलितों द्वारा गैर-दलित ज़मीनदारों को रोकने के लिए विवादित ज़मीन पर लगातार धरना देने की वजह से खेती नहीं हो पा रही है। दलितों को आर्थिक बहिष्कार, NREGA का काम बंद होने और पशुओं के लिए चारे की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है।
- ऊपर वर्णित उल्लंघनों के मामले पंजाब भूमि सुधार अधिनियम, 1972; पंजाब ग्राम साझा भूमि अधिनियम, 1964 और नज़रूल भूमि (हस्तांतरण) नियम, 1956 की मूल भावना के उल्लंघन की ओर इशारा करते हैं।
- दलितों और अन्य भूमिहीन ग्रामीणों को प्राथमिक ऋण समिति की सदस्यता से वंचित रखा जाता है। फलस्वरूप, निजी माइक्रो फाइनैन्स कंपनियों के हाथों उन पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। ग्रामीणों ने बताया कि पंचायती भूमि के अपने हिस्से के लिए सामूहिक रूप से संघर्ष करने पर उनके साथ और भी भेदभाव किया जा रहा है।
- टीम ने पाया कि गाँव के बाहर रोजगार के अवसर कम उपलब्ध थे और मजदूरी बेहद कम थी। गाँवों में भी प्रवासी श्रमिकों की आमद स्वरूप रोजगार के अवसरों एवं मजदूरी में कमी आई है। इस तरह, अपनी आजीविका और सम्मान हेतु, भूमिहीन दलितों के लिए भूमि पर स्वामित्व महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके अतिरिक्त, पंचायती भूमि को पट्टे पर प्राप्त करने के संघर्ष ने भेदभाव को और बढ़ा दिया है। इसलिए भी, भूमि चकबंदी अधिनियम के तहत अतिरिक्त भूमि के वितरण और पंजाब में बे-चिराग भूमि तक पहुँच की माँग ने जोर पकड़ लिया है। लेकिन इसमें सरकार की ओर से कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया दिखाई नहीं देती। बीर-ऐसवान में 927 एकड़ बे-चिराग भूमि के अधिग्रहण के लिए ZPSC द्वारा आंदोलन शुरू किया गया था। उन्होंने 20 मई के दिन इस जमीन पर चिराग लगाने का आह्वान किया था। हालांकि, 17 मई के दिन प्रशासन द्वारा एक बैठक बुलाई गई। उसके बाद तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। संगरूर जिले के विभिन्न हिस्सों से लगभग 850 लोगों को उठाया गया, जिनमें से 400 को कई दिनों तक जेल में रखा गया।
- जिला अधिकारियों ने अपने कदम को उचित ठहराया। फर्ज़ी नीलामी को कानून में निहित खामी का नतीजा समझा जाता है। भले ही इस ख़ामी को दूर करने हेतु आधिकारिक आदेश मौजूद हो, तब भी कानून को आधिकारिक आदेश पर प्राथमिकता दी जाती है। इसलिए, शायद इस संबंध में जायज़ लोगों तक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की गई है।
पीयूडीआर टीम ने राज्य सरकार और जिला प्रशासन को विभिन्न स्तरों पर अपनी अकर्मण्यता और निष्क्रियता के कारण वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार पाया। इसी निष्क्रियता के परिणामस्वरूप, सामाजिक तनाव और हिंसा की घटनाओं में वृद्धि; आजीविका कमाने के अवसरों में गिरावट; तथा, गरीबों के लिए सुरक्षात्मक कानूनों की उपेक्षा के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ हुई हैं।
सचिव
हरीश धवन, परमजीत सिंह द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति