दो दिन पहले संसद में पीयूष गोयल ने राजद सांसद मनोज झा के बोलते वक्त एक टिप्पणी की और वह अचानक मसला बन गया- बिहार की अस्मिता, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का! उन्होंने कहा, ‘ये लोग पूरे देश को बिहारी बना देना चाहते हैं।’ उस वक्त झाजी किस मसले पर बोल रहे थे या पीयूष गोयल ने यह अभिधा, लक्षणा या व्यंजना किस रूप में प्रयुक्त किया, यह स्पष्ट नहीं है लेकिन इस बयान पर बवाल होने के बाद उन्हें इसे वापस लेना पड़ गया।
मनोज झा ने गोयल के बयान को तुरंत राज्य की गरिमा से जोड़ते हुए मुद्दा बनाया और गाँधी जी की मूर्ति के आगे प्रदर्शन भी कर दिया। इसमें उनका साथ जद-यू और वामदलों के सांसदों के साथ शिवसेना ने भी दिया। जी हाँ, वही शिवसेना जो मुंबई में बिहारियों की कभी कायदे से पिटाई करने के लिए कुख्यात है।
पीयूष गोयल की निंदा करते हुए तू-तड़ाक वाली भाषा में तेजस्वी यादव ने जो जवाब दिया, वह भी देखने लायक है। तेजस्वी फिलहाल बिहार के उप-मुख्यमंत्री हैं। कुछ दिन पहले पटना के एक तीन सितारा होटल में बैठकर वह बिहार को विकसित बनाने का अपना एजेंडा साझा कर रहे थे। उनके एजेंडे में सबसे चमकदार बात यह थी कि बिहार में (यानी पटना में) जल्द ही तीन पांच सितारा होटल बनेंगे। पूरी दुनिया जहां आइटी और सर्विस सेक्टर की बदौलत छलांग लगा रही है, बिहार में अब भी कृषि की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। यह राज्य अभी पहले पायदान पर ही है क्योंकि पूरा देश तो कृषि और इंडस्ट्री से गुजरकर अब सर्विस सेक्टर की बात कर रहा है, लेकिन बिहार इसी बात पर खुश है कि उसके यहां मखाना, लीची और आम की बेहतर पैदाइश की संभावनाएं हैं।
बिहार की इस दुर्दशा की वजह क्या है? पिछले सप्ताह यह लेखक बिहार के एक वरिष्ठ नौकरशाह के साथ बैठा हुआ था तो इसी सवाल को कुछ इस तरह से पूछा, ‘बिहार के इस तरह बिल्कुल मृतप्राय होने का कारण क्या है, यहां आते ही इस तरह का भाव क्यों प्रबल हो जाता है कि यहां का कुछ नहीं हो सकता है? आखिर, यूपी भी आपका सहोदर ही था बल्कि है ही- जातिवाद, भ्रष्टाचार, नौकरशाही की सुस्त गति आदि के मामले में, तो भी यूपी में संभावनाएं क्यों दिखती हैं, सांस लेने की जगह क्यों लगती है और बिहार जैसे सभ्यता का आखिरी द्वार?’
उन नौकरशाह महोदय ने इसका बहुत ही मजेदार जवाब दिया और उस पर हम दोनों की सहमति थी। हम दोनों की बातचीत हालांकि कई परतों में चली। उसी के कुछ टुकड़े यहां यह लेखक साझा कर रहा है।
बात शुरू की जाए नेताओं की बिरादरी से। उसके बाद नौकरशाही और फिर आखिर में पब्लिक यानी जनता की बात करेंगे। आप देखिए, यहां आपके नेताओं के पास विज़न नहीं है, बस उनको पता है कि वोट का जुगाड़ कैसे करना है। आप पटना के फ्लाइओवर देख लीजिए, गंगा पर बना पुल देख लीजिए। जो नया वाला जेपी पुल है, वह भी सिकुड़ा-सहमा सा लगता है। ग्रैंडनेस नहीं है। ओवरब्रिज पर आखिर में फव्वारा या गोल चक्कर कौन लगाता है भाई, लेकिन बिहार के इंजीनियर्स लगाते हैं।
आप यूपी की बात अगर देखें तो अखिलेश हों या मायावती, सबने एक एक्सप्रेसवे प्लान किया। मायावती ने जो आंबेडकर पार्क बनाया, उसकी ग्रैंडनेस, उसकी विशालता, भव्यता देखिए। हाथियों की ही मूर्ति लगाई, पत्थर ही लगाए, तो ऐसे लगाए कि आज कई हिंदी फिल्मों की वहां शूटिंग हो चुकी है, हो रही है। बिहार में बताइए, ऐसा भव्य निर्माण अगर कुछ हुआ हो, पिछले 30-35 वर्षों के भीतर? हां, जो पहले की चीजें हैं, उसे ध्वस्त करने का पूरा प्रबंध कर दिया गया है।
एक एक्सप्रेसवे बिहार में नहीं है। जो इस राज्य की सीमा से सटता है, वहां कदम रखते ही पता चल जाता है कि आप बिहार में आ चुके हैं। धूल, ऊबड़-खाबड़ टीले और ऊंघते सिपाहियों के बीच एक बोर्ड आपका स्वागत करता है, जिसके अक्षर धुंधले और बासी पड़ चुके हैं- ‘यहां शराबबंदी है।’
बिहार पिछले तीन दशक से सामाजिक न्याय के कर्णधारों के हाथ में रहा है। इसमें लगभग आधा समय नीतीश कुमार की डोली को कांधा भगवा पार्टी ने भी दिया है। लालू प्रसाद के राज पर काफी कुछ कहा जा चुका है, जिस पर पटना हाइकोर्ट ने ही सनद लगा दी थी। नीतीश कुमार ने जो उम्मीदें जगाई थीं, उसका उन्होंने बेदर्दी से खात्मा कर दिया। यूपी बचा रह गया नेताओं की बेदर्द लूट-खसोट से क्योंकि उसके पास एनसीआर के दो जिले नोएडा और गाजियाबाद थे। यूपी का पश्चिमी हिस्सा संस्कृति और अर्थ के मामले में पूर्वी हिस्से के बिल्कुल उलट था। इसके साथ ही, हिंदुओं के बहुतेरे बड़े और जाने-माने तीर्थस्थल यूपी में हैं। आज की बात छोड़ दीजिए, फिर भी बनारस, मथुरा, अयोध्या और बाकी जगहों से यूपी को राजस्व की प्राप्ति होती ही थी।
बिहार से जब झारखंड अलग हुआ, तो वह तगड़ा धक्का था बिहार के लिए। राजस्व की जो हानि हुई, उसको भरने के लिए ले-देकर एक ही रास्ता था- आबकारी यानी शराब के राजस्व का। जो लोग थोड़ा अपनी स्मृति पर जोर डालेंगे, उनको याद आएगा कि शराबबंदी से ठीक पहले वाले दो वर्षों में यही नीतीश कुमार थे जिन्होंने शराब की पहुँच गांवों तक और शहर में कदम-कदम पर करवा दी थी। जिस राज्य के पास उद्योग नहीं, सर्विस सेक्टर नहीं, खेती डूबी हुई हो, आधे राज्य में बाढ़, आधे में सूखा हो, ठेकेदारी पर बाहुबलियों का वर्चस्व हो, वहां नीतीश के पास इसके अलावा विकल्प भी नहीं थे। इस घर-घर शराब वाला मामला तब बिगड़ा, जब लालू के आदमियों ने शराब के ठेकों में एकाधिकार कायम करना शुरू किया। फिर आया शराबबंदी का तुरुप पत्ता। अब यह शराबबंदी कितनी और कैसी सफल है, पिछले ही हफ्ते सारण में मरे 100 से अधिक लोगों की लाशें बता रही हैं, जिनकी राख अभी ठीक से ठंडी भी नहीं हुई है।
शराबबंदी एकमात्र अजीब विचार नहीं था नीतीश कुमार का। आप पटना के बहुचर्चित-बहुप्रचारित नए संग्रहालय में गए हैं? वह न केवल डिजाइन के स्तर पर भौंडा है, बल्कि उसमें जिस तरह से एक खास विचार को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गई है वह भी बारीक नजर से बच न पाएगा। जिस राज्य में आधी से अधिक जनता कुपोषण और बीमारियों का शिकार है, जहां सरकारी स्कूल बदहवाली और बदहवासी का बायस हों, जहां सबसे बड़े अस्पताल (पीएमसीएच) में कुत्ते और चूहे घूमते हों, जहां थोड़ी बारिश होने पर ही नालंदा मेडिकल अस्पताल के बेड पानी में तैरने लगें, वहां इस तरह का संग्रहालय बनवाना अगर अश्लीलता नहीं तो और क्या है?
बिहार की घुटी हुई चीख वाया ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकी’
खासकर, तब जब एक भव्य और पुरातन संग्रहालय दो किलोमीटर दूर ही मौजूद है, जिसे एक बटा बीस खर्चे में ही चमकाया जा सकता था। मजे की खबर तो यह है कि अब सरकार दोनों संग्रहालयों को जोड़ने के लिए एक भूमिगत रास्ता बनवाने का सोच रही है।
बात यहीं नहीं रुकती। पटना का मरीन ड्राइव जाकर देख लीजिए। किसी भी दिन गंगा माई अपने पर आईं, तो पूरा ही लील जाएंगी, गंगाजल को गया तक ले जाने का विचार देख लीजिए। आपको लगेगा ही नहीं कि ये उस राज्य के मुखिया की कारस्तानी है, जो इतना गरीब है कि देश में सबसे निचले पायदान पर है। बात फिर विज़न की आ जाती है।
बिहार में प्राचीनकाल के मंदिर और इमारतें भी मौजूद हैं, जलप्रपात भी हैं, लेकिन उनका विकास हो, तब तो बात बने। शेरशाह के मकबरे का हाल देखकर आप सिर धुन लें। दरभंगा राज का किला अपनी भव्यता में किसी दिन दिल्ली के लालकिले को भी चुनौती देने वाला था, लेकिन वह एक पीढ़ी के देखते-देखते जमींदोज होने को है। उसकी इंच-इंच जमीन पर भू-माफिया ने कब्जा कर ऊबड़-खाबड़ इमारतें बना दीं, जो आँखों को चुभती हैं। उसकी दीवारें कभी भी गिरकर भारी दुर्घटना का कारण बन सकती हैं। बलिराजगढ़ का किला भी दरभंगा से बहुत दूर नहीं, लेकिन आज उस पर गोइठा थापा जाता है, बच्चे सुबह वहां निपटते हैं। जो आर्केलॉजिकल सर्वे की तरफ से चौकीदार है, उसे महीनों पैसा नहीं मिलता। उस किले के ऐतिहासिक महत्व को इतिहास के विद्यार्थी ही समझ सकते हैं।
नालंदा और उससे जुड़े आसपास के जिलों में खेतों से जब-तब मौर्यकालीन या उससे भी पुरानी मूर्तियां निकलती हैं, लेकिन वह किसी कस्बे के घर में या छोटे से मंदिर में ग्रिल के पीछे कैद हो जाती हैं और उनको सिंदूर औऱ तेल से पोतकर विद्रूप कर दिया जाता है। अगर कोई अध्ययन के लिए उन मूर्तियों को ले जाना चाहे तो गाँववालों से झगड़ा मोल लेना होगा। कई बार झगड़ा हुआ भी है, जैसा बौद्धकाल पर विस्तृत अध्ययन करनेवाले जेएनयू के प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार मिश्र बताते भी हैं। बात मूलतः और मुख्यतः विजन यानी दृष्टि की है। बिहार की नेता-बिरादरी को चूंकि पता है कि जनता अपने मसायल में व्यस्त है, इसलिए उसे फिलहाल कोई चुनौती मिलने वाली नहीं है। यही वजह है उसकी शॉर्ट-साइटेडनेस (छोटी सोच की) और बिहार के बिहार बने रहने की।