बद्री को अकादमी: दूसरे के द्वैत को देखने वाले स्वयं का द्वैत देखने में अक्षम हैं!


हिन्दी वालों के बीच अकादमी पुरस्कारों को लेकर हर बार कुछ न कुछ विवाद होता है! इस बार यह पुरस्कार हिन्दी भाषा के लिए कवि बद्रीनारायण को उनके कविता-गंथ ‘तुमड़ी के शब्द’ के लिए दिया गया है। परिपाटी के अनुसार विवाद भी होना ही था।

बद्रीनारायण को तब से जानता हूं जब वह इण्टर के छात्र थे और आरा के उन नौजवान-किशोरों की सोहबत में थे जिन्हें लोग नक्सली कहते थे। आरा भोजपुर जनपद का मुख्यालय था, जो अपने क्रांतिकारी आवेग से उन दिनों भरा होता था। वहां युवा क्रांतिजीवियों की एक पुख्ता जमात थी। यह अलग बात है कि इनमें शहीद होने वाला कोई नहीं निकला। जीवन की आपाधापी में सबने अपनी दुनिया का ठीक-ठाक जुगाड़ बना लिया।

बद्री इलाहाबाद गए और पढ़-लिख कर मुख्य रूप से इतिहासकार और कवि बन गए। उनकी कविता ‘प्रेम-पत्र’ पर जब युवा कवि को दिया जाने वाला भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला, तब वह पर्याप्त चर्चित हुए। उनकी कविताएं गहरे संकोच के साथ अपनी पीढ़ी की आकांक्षाओं-उम्मीदों को अभिव्यक्त करती रही हैं। धूमिल या गोरख पांडेय की कविताओं की तरह पाठक को वे उत्तेजित नहीं करतीं, अपितु आत्मावलोकन के भाव से भरने की कोशिश करती हैं।

जैसे ‘प्रेमपत्र’ शीर्षक कविता की आखिरी पंक्ति में किसी क्रांतिकारी आवेग की जगह एक हताशा है कि मैं कैसे बचा पाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र। इन शब्दों में उस ज़माने के युवकों का नैराश्य भी सिमटा हुआ है। बड़बोलेपन की जगह एक खांटी यथार्थ बद्री की पूँजी होती है। उनकी कविताओं में उनके जनपद की बोलियों के शब्द प्रचुरता से वैसे ही मिलते हैं, जैसे फणीश्वरनाथ रेणु के गद्य में। इसलिए उनकी कविताएं निरंतर भाषा के नए गवाक्ष उद्घाटित करती होती हैं। इन्ही कारणों से मुझे उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुना जाना उपयुक्त अनुभव हुआ।

लेकिन इन सबके बीच ही जानकारी मिली कि उन्हें पुरस्कार मिलने को लेकर विवाद भी है। बहुत चीजों से मैं अनजान भी रहता हूं इसलिए मुझे यह जानकारी नहीं थी कि इस पुरस्कार के पीछे उनका ‘परिवर्तित’ राजनीतिक रुझान भी है। पहले तो यह समझने में असमर्थ हूं कि बद्री नारायण की कोई राजनीतिक प्रतिबद्धता भी थी क्या! यदि थी तो उसका उनकी कविताओं से कितना और कैसा संबंध है? राजनीतिक या वैचारिक प्रतिबद्धता क्या कविता या साहित्य के आवश्यक अवयव हैं? या इसकी उपस्थिति कविता को कमजोर करती है?

दुनिया भर के साहित्य में अनेक उदाहरण हैं कि कोई लेखक कर कुछ रहा है, लिख कुछ दूसरा रहा है। कामिल खोसे सेला अपने मुल्क स्पेन की फासिस्ट सरकार में शामिल थे और उस राजनीति से भी जुड़े हुए थे, लेकिन अपने साहित्य में वह फासीवाद का विरोध करते हैं। फ्रांसीसी ज्यां जेने अपराधी प्रवृति के थे। जेल उनके लिए उपयुक्त जगह थी जहां वे साहित्य रचते थे। सार्त्र ने उनकी जीवनी लिखी है ‘सेन्ट जेने’ शीर्षक से। हमारे देश और जुबान में अनेक ऐसे लेखक हैं जो क्रांतिकारी फलसफों से युक्त साहित्य रचते हैं, लेकिन अपने जीवन में उसके विपरीत हैं। हम जब लेखक का समग्र मूल्यांकन करेंगे, तब निश्चित रूप से इस द्वैत को देखेंगे। उनकी रचनाओं पर इस द्वैत के प्रभाव को भी देखेंगे, लेकिन अकादमी के पास संभवतः कोई ऐसी अनिवार्यता नहीं है कि वह एक ख़ास तबियत के लोगों को ख़ारिज कर दे या रचनाकार के साहित्य और व्यक्तित्व के द्वैत को देखते हुए उसके साहित्य को नजरअंदाज कर दे।

जो लोग अपनी वैचारिकता-प्रतिबद्धता को लेकर आत्ममुग्ध हैं उन्हें तो प्रसन्न होना चाहिए कि उन्हें इस भगवा सरकार के पुरस्कार से वंचित करके उनके सम्मान की रक्षा की गई, लेकिन अफ़सोस कि वे लोग इस भगवा दौर में क्रांतिकारियों को पुरस्कृत होने की उम्मीद बांधे बैठे थे। दूसरे के द्वैत को देखने वाले स्वयं का द्वैत देखने में अक्षम हैं!

अकादमी पुरस्कारों की असली समस्या पर किसी की नजर नहीं जाती। 1955 से यह पुरस्कार मिल रहा है। आरम्भ में यह पुरस्कार माखनलाल चतुर्वेदी जी को उनके काव्य के लिए दिया गया था। बाद में यह राहुल जी और नरेन्द्रदेव को क्रमशः उनके इतिहास और दर्शनशास्त्र विषयक लेखन के लिए दिया गया। दिनकर जी को उनके संस्कृति विमर्श के लिए दिया गया। यह सब नेहरू के जमाने में होता था। 1970 के बाद से इसका ऐसा संकुचन हुआ कि मुख्य रूप से यह कविता-पुरस्कार हो कर रह गया। कभी-कभार ही उपन्यास, कहानी, नाटक, आलोचना को दिया गया। विज्ञान, व्यापार, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र अथवा वैचारिक लेखन के लिए यह पुरस्कार कभी नहीं दिया गया। दिया गया होता तो लोहिया, किशन पटनायक, मधु लिमये, जयंत विष्णु नार्लीकर जैसे लोगों को यह पुरस्कार मिल सकता था।

अकादमी की ऐसी नीति रही कि रेणु, राजेंद्र यादव, धर्मवीर भारती जैसे अनेक महत्वपूर्ण लेखकों को यह पुरस्कार नहीं दिया गया। धर्मवीर भारती को मरणोपरांत मिलना था, लेकिन वह वामी नहीं थे इसलिए कुटिलतापूर्वक उन्हें ख़ारिज किया गया। कुछ समय पूर्व मैंने किसी अख़बार में पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की जाति का ब्यौरा भी देखा था। इतना अश्लील था कि उसकी चर्चा भी गुनाह है। यह सब साहित्य के एक खास दौर में हुआ था। उससे हर लोग वाकिफ हैं।

विचार हो तो समग्रता से हो मित्रो! आधे-अधूरे नहीं!

हमारी हिन्दी की हालत आज कैसी है इसका एक उदाहरण आज के एक अंग्रेजी अख़बार में देख रहा हूं। मेरे यहां अंग्रेजी अखबार ‘हिन्दू’ आता है। उसके पेज 10 पर अकादमी अवार्ड की खबर है। तीन कॉलम के तीन पंक्तियों के शीर्षक वाले समाचार के साथ लेखक (आप पढ़ें लेखिका) अनुराधा राय की तस्वीर भी है जिन्हें अंग्रेजी भाषा का यह पुरस्कार मिला है। समाचार के इस लंबे-चौड़े विस्तार में हिन्दी के लिए पुरस्कार की कोई जानकारी नहीं है। शेष सभी भाषाओं की सूचना के साथ हिन्दी के बारे में कोई सूचना का नहीं होना संभव है भूल हो। मैं तो इसी मुगालते में रहना चाहता हूं, लेकिन यदि यह जान-बूझ कर हुआ है तो भयावह है। यह कैसी नफरत है! हम हिन्दी वालों को सोचना चाहिए।


लेखक के फ़ेसबुक से साभार


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