बोलना, इतिहास के किस दौर में ऐसी अनिवार्य विवशता बना होगा, इसका ठीक-ठीक आकलन नहीं हुआ है। संभव है लोग बोलने की विवशता को महसूस करते रहे हों और बोलते भी रहे हों, लेकिन उन पर यह दबाव नहीं रहा होगा कि अगर नहीं बोले बल्कि अगर उन्हें किसी ने बोलते हुए नहीं सुना तो कहीं उनकी बौद्धिक क्षमताओं या सक्रिय मौजूदगी को लेकर लोग संदेह न करने लगें। इस तरह देखा जाय तो आज के दौर में बोलने की विवशता का स्थान बोलते हुए दिखने की विवशता ने ले लिया जान पड़ता है।
सूचनाओं की बेतहाशा उपलब्ध्ता इंसान को भी सूचना बना देती है। सब सूचना बने हुए इधर से उधर मँडराते हुए पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक परिवेश में बादलों की तरह आच्छादित हुए जाते हैं। वो अपनी मौजूदगी के लिए बादलों से होड़ लेते हुए प्रतीत होते हैं। क्या होगा अगर किसी ने पूछ लिया कि- क्या लगता है? रूस कहीं का रहेगा? या ये सब जो चल रहा है इसका मध्य एशिया से लेकर दक्षिणी एशियाई देशों की भू-राजनीति पर क्या परिणाम होंगे? कायदे से यह विषय कभी विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परास्नातक कर रहे छात्रों के सालाना इम्तिहान में पूछा गया दीर्घउत्तरीय सवाल हुआ करता था लेकिन आज इस तरह के सवालों का सामना हर उस व्यक्ति को करना पड़ रहा है जो केवल ‘हैप्पी बर्थ डे’ कहने-सुनने और मज़ेदार मीम्स देखने के लिए सोशल मीडिया के सत्याभाषी संसार में शुमार हुआ था।
अब बताइए, ऐसे-ऐसे सवालों का सामना करना पड़ रहा है एक नादान जान को? घर-गृहस्थी के धीर-गंभीर सवालों से उकता कर बेचारा कुछ नयी पद्धति के मनोरंजन के लिए जिस चौराहे पर आया था वहाँ उसका सामना ऐसे-ऐसे सवालों से होने लगा है कि बोले तो ट्रोल हो जाने का खतरा और न बोले तो अज्ञानता के कर्ज़ तले दब जाने का संकट। कुछ ठीकठाक बोल दिया तो आगे के कई झंझट मसलन पैदाइश बताओ, ये साबित करो कि वो मुल्ले की औलाद नहीं हो या इतिहास में भुला दी गयी बातों का जवाब दो- जैसे तब कहाँ थे?
दिक्कत ये है कि ऐसे सवाल केवल सवाल ही करने तक होते हैं। उनके न तो जवाब ही होते हैं और अगर होते भी हों तो सवाल दागने वाले की रुचि जवाब सुनने में है ही नहीं। मान लो किसी ने पूछ ही डाला कि जब महाराणा प्रताप के भाले को दुश्मन ने चुराने की कोशिश की थी तब तुम कहाँ थे? कायदे से इसका सीधा सा जवाब है कि भाई आज मेरी उम्र 40 साल है, ज़ाहिर है तब मैं पैदा नहीं हुआ था लेकिन अतीत के बारे में वर्तमान में पूछा गया यह सवाल इस धराधाम पर आपका भविष्य तय करने वाला सवाल भी हो सकता है। वो पलट कर कह देगा कि- हम जानते हैं तुम जैसे गद्दारों को, अगर तुम तब हुए भी होते तो दुश्मन की तरफ चले गए होते। लो सुना दिया गया एक झन्नाटेदार राष्ट्रवादी फरमान! वो किसी और के पीछे चल दिया, तुम हलकान हुए सब्जी में नमक कम होने की शिकायत करते पाये गए। तुम्हारी बीवी बच्चों को समझाते पाये जा रही है कि पापा को आजकल दफ्तर में बहुत काम है– थोड़ा झुंझलाने लगे हैं। अब तुम्हारी दिक्कत यह है कि पत्नी को भी नहीं बता सकते कि क्यों झन्नाए हुए हो। क्या ही बताओगे कि आज कोई तुम्हारी पैदाइश से लेकर तुम्हारी राष्ट्रभक्ति नाप कर चला गया? तुम वहीं हो जहां इस वार्तालाप से पहले थे लेकिन तुम अब वहाँ भी हो जहां वो तुम्हें धक्का देकर चला गया। चित्त और मानस, बुद्धि और विवेक अब पत्नी से बात करते समय पत्नी के साथ नहीं है- वो किसी और के ज़ेहन का गुलाम हुआ जाता है।
अजीब सी मुश्किल है। न बोलें तो चैन कहाँ और बोले तो बेचैन। चुप्प रहें तो कायरता, जो बोल दिये तो सौ इल्ज़ाम। खामोश रहे तो सौ तोहमतें, कह डाला तो जान और सम्मान को खतरा। न कहा तो अपने होने पर ही शक-शुबहा। अजीब हालात होते जा रहे हैं। भाई, बोलने से पहले कुछ जानना भी तो ज़रूरी है। जान भी लिए चलो कहीं से, तो उसे समझना और समझने के बाद उसे मानना भी तो ज़रूरी है ताकि जब बोलो तो भरोसे से बोलो। उतना ही बोलो जितना जानते, समझते और मानते हो। लेकिन नहीं! आज बोलना एक ऐसी निरापद क्रिया होती जा रही है जिसके लिए कुछ जानने, समझने और मानने का अनिवार्य आधार इस सूचनाग्रस्त और सूचनामस्त समाज ने बलात् खींच लिया है और उसे सोशल मीडिया की ड्योढ़ी पर ऐसे फेंका है जैसे लगभग हर रोज़ देश का मुख्य नेता अपने भाषणों में यत्र तत्र सर्वत्र फेंकता रहता है।
किसी सूचना के पीछे भी कई-कई सूचनाएं होती हैं। सूचना कोई इकहरी शै नहीं होती है। यह भले ही एकवचन हो लेकिन यह अपने चरित्र में अनिवार्यत: बहुवचनीय होती है। ज़्यादा दिन नहीं बीते, यही कोई ढाई तीन हज़ार दिन बीते होंगे जब सूचना के पीछे संदर्भ दिया जाता था। एक-एक शब्द को बरतने का एक सलीका था। यह सलीका हमें ईमानदारी सिखाता था और किसका शब्द है, कहाँ प्रयोग किया गया, पहली दफा कब किया गया, किस किताब में किया गया, वगैरह वगैरह के बिना सूचना को सूचना का दर्जा नसीब न होता था। मुक्ति के इस आभासी दौर और ‘…कुछ भी मुमकिन है’ के शोर में अगर सबसे ज़्यादा नुकसान किसी का हुआ है तो वो है बेचारी सूचना। आज सूचना अपने जैसी हजारों सूचनाओं के रेले में धक्कमपेल का शिकार हुई जाती है। सूचना अब सीटी बन गयी है जो हर किसी मुंह से घनघोर कर्कश ध्वनियां पैदा कर रही है।
कल सूचना आई कि देश के प्रधानमंत्री ने यूक्रेन में हताहत हुए भारतीय छात्र नवीन शेखरप्पा से फोन पर बात की। इसमें कुछ भी मुमकिन होने की शैली की विजय निहित है। यह सूचना पूरे होशो-हवास में लोगों को सूचनाओं से मुक्ति के लिए दी गयी। लोग ऐसे ही तो सूचनाओं से मुक्त होंगे। जिन्हें लगता है कि यह सूचना देते वक़्त किसी न्यूज़ चैनल ने हड़बड़ी में गलत टायपिंग कर दी वो सूचना की ताक़त से महरूम नज़र आते हैं। यह हड़बड़ी ही अब सूचना की नई ताक़त है। यही उसका विराट स्वरूप है। हड़बड़ी न हो तो लोग सूचनाओं से ग्रसित न होंगे और अगर वो ग्रसित न हुए तो सूचना कैसी?
कौन सी सूचना कब, कहां, कैसे और क्यों देना है इसका एक शऊर हुआ करता था। लेकिन इन्हीं क्यों, कैसे और कब ने अपना चोला बदल लिया है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि सूचना कहीं से कहीं विस्थापित हो गयी है बल्कि वह अपनी धुरी पर रहते हुए भी नए शऊर में ढल रही है बल्कि ढाली जा रही है। अब देखा जाए तो ये कोई मौजूं तो नहीं हो सकता कि देश की विदेश राज्यमंत्री को यह पता न हो कि विदेश में चल क्या रहा है लेकिन ऐन इसी वक़्त वो सद्गुरु के चरणों में समर्पित उनसे मिट्टी के स्वास्थ्य पर ज्ञान लेने का उद्यम कर रही हैं। उद्यम करने तक ठीक है। लोग कुछ न करते हुए भी उद्यम में तल्लीन हो सकते हैं लेकिन अपने इस उद्यम को दुनिया को बताना एक सूचना है। ये उद्यम सूचना के नए आवरण में पेश हो जाता है। बातें बनती हैं कि क्या विदेश राज्य मंत्री को ऐसे वक़्त में मिट्टी के स्वास्थ्य पर हो रहे सत्संग में होना चाहिए या विदेश में फंसे देसी बच्चों की खैरख़्वाह लेनी चाहिए। ध्यान से देखें तो इस सूचना का उद्देश्य कुल जमा इतना ही है कि बातें बनें, न केवल बनें बल्कि वे द्रुत गति से चलें। और ऐसी चलें कि विदेश में फंसे देसी बच्चे महज़ बहाने में तब्दील हो जाएं और जिन्हें मुख्य विषय वस्तु होना चाहिए वो सहायक सामग्री में सिमट जाएं। मुख्य बात मंत्री, मिट्टी, सद्गुरू और मिट्टी का स्वास्थ्य हो जाये।
सूचना की सफलता बात के रुख को मोड़ देने में है। इसी को ज्ञानी लोग आजकल पोस्ट-ट्रुथ यानी सत्य के बाद का सत्य कहने के आदी हो चले हैं। वह कहते ज़रूर इसे सत्य के बाद का सत्य हैं लेकिन फँसते इसी के जाल में हैं और अंतत: सत्य के बाद का सत्य ही मूल सत्य हो जाता है और जिस सत्य से पहले के सत्य से हो रहे खिलवाड़ को लेकर वो वाकई चिंतित थे वो सत्य कहीं इन्हीं सूचनाओं के गिर्द चक्काजाम में फंसा नज़र आता है।
तह के भीतर की तह, उथले के बाहर बिखरे पड़े उथले में थपेड़े खाता नज़र आता है। सूचना अपनी क्षणभंगुरता के बावजूद पुनर्नवा होकर हमें चिढ़ाती हुई निकल जाती है और हम मुंह बाए, सर खुजलाते, लेकिन उस पर भी बोलने के लिए अभिशप्त नज़र आते हैं।
कहते हैं सूचनाएं हमें ठग रही हैं। इसलिए क्योंकि हम ठगे जाने के आदी हो चले हैं। नोटबंदी से लेकर, देशबंदी से होते हुए अच्छे दिनों की उम्मीद में हम सभी ठगे गए और यूं ही ठगे जाते रहने के लिए अपनी श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन किए जा रहे हैं। हम रोज़ सुबह उठने से पहले ठगे जा चुके होते हैं। यह प्रक्रिया भर रात चलती रहती है। जब सुबह सोकर उठते हैं और मोबाइल को हाथ लगाते हैं तो हमें ठगे जाने के लिए सूचनाओं की श्वेत और लाल रक्त कणिकाएँ अपने काम पर लग जाती है। हमारी शिराओं में अब खून से ज़्यादा सूचनाओं का प्रसार हो रहा है। हमारा शरीर अब सूचनाओं के प्रवाह से संचालित है। कई सूचनाएं रक्त कणिकाओं और कोशिकाओं की तरह रोज़ हमारे शरीर में मरती हैं और रोज़ हजारों हजारों रक्त कणिकाएं और कोशिकाएं पैदा हो जाती है। अब हमारी एनाटोमी में कोशिकाओं का स्थान सूचनाओं ने ले लिया है। खैर, उक्रेन-रूस युद्ध पर हम बोलें तो क्या बोलें? अगर हमारे देसी बच्चे इस कदर लाचार विदेशों में न फंसे होते तो शायद कुछ सुनना, समझना, सीखना और मानना मुमकिन भी होता लेकिन अब इस नज़रिये से सूचनाओं की धुरी तय हो रही है। हमारे देसी चैनलों पर भी दबाव है कि युद्ध को इतना भीषण दिखाओ कि मुमकिन होने के इस युग में नामुमकिन की भी थोड़ी इज्ज़त बची रह जाए। इस भीषण युद्ध में जितना भी कर लिया जाए उसी को पर्याप्त से ज़्यादा बताए जाने की पृष्ठभूमि रचने के लिए सोचिए कैसी-कैसी सूचनाओं का उत्पादन करना पड़ रहा होगा।
घायल की गति घायल जानता है लेकिन सूचनाओं के निर्माताओं की गति हम नहीं जानते। यह अफसोसनाक है लेकिन क्या किया जाए? हम ग्राहक हैं। गाहक नहीं। हम उपभोक्ता हैं, उत्पादक नहीं। हम श्रमिक हैं, मालिक नहीं। हम नागरिक हैं, नेता नहीं। है कि नहीं?