कथा कलकत्ता: एक बौद्धिक समाज के अवसान के सात दशक की आंखों देखी स्मृतियां


घर-द्वार-धर्म-भगवान और संपत्ति को छोड़कर मैं 1950 में कलकत्ता आया था। पांचवें दशक का कलकत्ता हर दृष्टि से स्वर्णिम काल था विशेषकर साहित्य-संस्कृति के लिए। छठे दशक के अंत से कलकत्ते में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अवसान शुरू होता है।   

बड़ाबाज़ार के हैरिसन रोड (अब महात्मा गांधी रोड) में हिंदी पुस्तकों की 15-16 दुकानें थीं। हिंदी पुस्तक एजेंसी का विशेष नाम था। इसके मालिक बैजनाथ केडिया देशभक्त थे, प्रगतिशील पुस्तकें बेचते थे। इसके लिए उनकी दुकान पर दो बार छापा मारा गया और एक बार उनको जेल की सज़ा भी भुगतनी पड़ी थी।     

दूसरा नाम था परमानंद पोद्दार का, जिनका अपना प्रकाशन था-आधुनिक प्रकाशन। इस प्रकाशन ने राहुल सांकृत्यायन की कई किताबें छापीं। एक होते थे ठाकुर साहब। उनका अपना प्रकाशन था और किताब की दुकान भी थी। नाम था-विशाल बुक डिपो। ठाकुर साहब के यहाँ साहित्यकारों का अड्डा लगता था और मिट्टी की चुक्कड़ में मुफ्त की चाय मिलती थी-एक या दो पैसे वाली।   

एक और नामी-गिरामी प्रकाशन संस्थान था, हिंदी प्रचारक संस्थान। संभवत उसके संस्थापक निहालचन्द्र बेरी या उनके पुत्र कृष्णचन्द्र बेरी थे। बहुत ही कम कीमत पर पुस्तकें छापते और बेचते थे। मसलन समग्र शरत चन्द्र, समग्र प्रताप चन्द्र आदि आदि।   

इन दुकानों पर मेरी मुल़ाकात एकाधिक बार यशपाल, अमृत राय, उपेन्द्रनाथ अश्क, फणीश्वरनाथ रेणु आदि जैसे दिग्गज लेखकों से हुई थी। बहस-मुबाहिसा भी होता रहता था। इन सबके अपने प्रकाशन संस्थान थे। पुस्तकें सप्लाई करते थे और कीमत वसूल करने कलकत्ता आते थे।   

आम तौर पर लोग लेखकों का पैसा नहीं मारते थे, एकाध को छोड़कर।  इन दुकानों में कोर्स की पुस्तकें नहीं बिकती थीं।  बिकती थीं केवल साहित्य की। 

चितपुर (रवीन्द्र सरणी) स्थित फूलकटरा के ऊपर सुराना प्रिंटिंग प्रेस में हिंदी लेखकों का हर शाम अड्डा जमता था। उसके ऊपर के तल्ले पर हिंदी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और आचार्य चतुरसेन शास्त्री महीनों रहे और मैं कई बार उनसे वहीं मिला था। उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और विनम्रता की जो छाप मेरे दिल पर पड़ी वह आज भी यथावत है।    

इसी महानगर से एक पत्रिका निकलती थी- ‘मतवाला’ जिसके सम्पादक थे मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, शिवपूजन सहाय एवं महादेव सेठ इससे अंतरंग रूप से जुड़े थे। धर्म और अंधविश्वास पर लोहार के हथौड़े की तरह चोट करती थी इसकी रचनाएँ। सत्यनारायण पार्क के पास अफीम चौरास्ता में महादेव सेठ और निराला में मल्लयुद्ध हुआ। महादेव सेठ को निराला ने पटखनी दी। साहित्य का यह भी एक निराला रोमांच था।    

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से मेरी पहली मुल़ाकात कलकत्ता में हुई थी। सेठ आनंदीलाल पोद्दार हर साल मो. अली पार्क में एक मुशायरा और कवि सम्मेलन करवाते थे सारी रात का जो रात 9 बजे से शुरू होकर सुबह 5 बजे ख़त्म होता था। एक साल (सन मुझे याद नहीं) तय हुआ कि निरालाजी को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाय। माधो भवन में रह रहे ऋषि जैमिनी कौशिक बरुआ के जिम्मे यह भार दिया गया कि वे इलाहाबाद से निरालाजी को लेकर कलकत्ता आएं। निरालाजी इलाहाबाद से रवाना तो हुए पर मुगलसराय में ट्रेन से उतर गए और कहा कि मैं नहीं जाऊँगा। बरुआ जी की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे। बहुत मिन्नत की। पैर पकड़ा। निराला जी नहीं माने। अंतिम हथियार का प्रयोग करते हुए बरुआ जी ने कहा कि आने वाली ट्रेन से कटकर मर जाऊंगा क्योंकि मैं कलकत्ता जाकर मुंह नहीं दिखा सकूंगा। निराला जी का मन पसीज गया। कहा-चलो चलते हैं।  मो. अली पार्क में लगभग 8000 श्रोताओं की भीड़ में निराला जी ने अपनी ओजस्वी वाणी में कवितायें सुनाईं और भरपूर ताली बटोरी। मैंने भी एक कविता सुनाई। मेरा नंबर सुबह 4 बजे आया। बरुआ जी सेठों की जीवनियाँ लिखते थे और अच्छी-खासी कमाई करते थे।   

कर्मेंदु शिशिर द्वारा लिखित ‘मतवाला की होली’ पुस्तक से एक उद्धरण देना चाहूँगा जो निम्न प्रकार है: 

जिस देश में गरीबों की उष्ण रक्त से देशभक्त नेताओं की मोटरें दौड़ती हैं, शराब की बोतलें उड़ती हैं, वार बनितायें बगलें गरमाती हैं और जिन्हें बाल उखाड़ने का भी शऊर नहीं वे बरियार खान बन जाते हैं। वहाँ साम्यवाद और साम्यवादी की जरूरत ही क्या है? देश में साम्यवाद फ़ैल जाएगा तो क्या हमारे बड़े कांग्रेसी बैठकर कॉपर चाटेंगे? 

बाबा नागार्जुन को कलकत्ता से बहुत लगाव था। वो महीनों यहाँ आकर रहते थे। कलकत्ता में रहकर उन्होंने कलकत्ता पर आधारित कई रचनाएँ कीं। उनकी बांग्ला की सभी रचनाएँ यहीं रची गईं जिनमें ‘देखछो खोकन एई जे गांधी महात्मा’, ‘आमि मिलिटरिर बुरो घोड़ा’ चर्चित रहीं। उनका उपन्यास ‘कुंभीपाक’ कलकत्ता की बदनाम बस्ती का जीवंत दस्तावेज है। उनका अधिकाँश गद्य साहित्य भी कलकत्ता में ही रचा गया।   

कलकत्ता से ‘विशाल भारत’ मासिक पत्रिका का संपादन होता था जिसके संपादकों में बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, अज्ञेय आदि के नाम उल्लेखनीय थे।   

कलकत्ता से ही ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ का प्रकाशन शुरू हुआ। आजकल यह ‘नया ज्ञानोदय’ के नाम से दिल्ली से प्रकाशित होती है। उस वक़्त संपन्न मारवाड़ी समाज का एक तबका साहित्य में रुचि रखता था। ज्ञानोदय के जवाब में नरसिंह दास अग्रवाल ने एक पत्रिका निकाली-‘सुप्रभात’- जिसके सम्पादन के लिए उस समय के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान पृथ्वीनाथ शास्‍त्री को बंबई से बुलाया। गणेश सराफ इसके प्रकाशक थे।    

एक पत्रिका निकली थी-‘अणिमा’ जिसकी चर्चा सारे उत्तर भारत में होती थी। शरद देवड़ा इसके संपादक थे जो बाद में जयपुर चले गए। अणिमा कार्यालय में स्थानीय लेखकों का अड्डा जमा करता था।   

1914 से प्रकाशित ‘दैनिक विश्वमित्र’ लगातार प्रकाशित होने वाला भारत का सबसे पुराना दैनिक है। बाबू मूलचंद अग्रवाल ने बड़ाबाज़ार में अपनी पत्नी के गहने बेचकर प्रेस लगाया और ‘दैनिक विश्वमित्र’ का प्रकाशन शुरू किया। इसी पत्र में मैंने डेढ़ साल काम कर पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया 1951- 1952 में। कलकत्ता सहित यह कुल पांच स्थानों से प्रकाशित होता था- कानपुर, पटना, बंबई, दिल्ली। इसकी गूँज कलकत्ता से लेकर जयपुर तक थी और राजस्थान असेम्बली में इसको लेकर कई बार चर्चा हुई। संभवत 1955-56 तक इस पत्र में धार्मिक समाचार तो क्या सूचना तक नहीं छपती थी। बड़ाबाज़ार के सत्यनारायण पार्क में करपात्री जी के अनुगामी इसकी होली जलाते थे। यह उस समय सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र था।   

बाबू मूलचंद अग्रवाल गांधीवादी थे लेकिन प्रगतिशील विचारधारा वाले वामपंथियों का खुलकर समर्थन करते थे। वी.  के. कृष्णमेनन को चुनाव जिताने में ‘दैनिक विश्वमित्र’ की अहम भूमिका होती थी। विश्वमित्र के जवाब में मारवाड़ी समाज के पुरातन पंथियों ने सन्मार्ग निकाला और बनारस से पंडित सूर्यनाथ पाण्डेय को बुलाकर संपादन का भार दिया। रामअवतार गुप्त इसके मुद्रक, प्रकाशक थे। बाद में वे इसके मालिक बने और इसकी प्रसार संख्या कालांतर में ‘विश्वमित्र’ से कई गुणा ज्यादा हो गई। आज भी ‘सन्मार्ग’ अन्य समाचार पत्रों की तुलना में नंबर एक पर है।   

8 नंबर चौरंगी रोड स्थित कैफे डी मोनिको क़ॉफी के लिए नहीं प्रेम मिलन के अड्डे के लिए मशहूर था। यह भारत में अपने ढंग का अकेला क़ॉफी रेस्टोरेंट था जिसमें सड़क की तरफ मुंह किये छह सोफे लगे थे। वे थे आँख सेंकने के लिए। उसके पीछे छह केबिन थे जिसके दरवाज़े पर पर्दे लगे होते थे जिसमें शहर के भद्रलोक, जिनमें अधिकांश लेखक, कवि होते थे, अपनी प्रेमिकाओं को लेकर क़ॉफी पीते, जिसकी रेट सोफे वालों से ज्यादा होती। बैरे को भी अच्छी-खासी टिप दी जाती थी ताकि वह इनकी तन्हाई में खलल न डाले। केबिन में अड्डा लगाने वालों में राजेन्द्र यादव-मन्नू भंडारी, रमेश बक्षी-सुधा अरोड़ा, बाद में सुधा की जगह ले ली अचला शर्मा ने। वह भी बाद में रमेश बक्षी को छोड़ लंदन चली गईं और वहाँ बीबीसी हिंदी विभाग की निदेशक बनीं। रमेश बक्षी यहाँ वर्षों रहे। साहित्य रचना की और असफल प्रेम भी। कहते हैं रमेश बक्षी को भी नहीं पता था कि उनकी कितनी पत्नियां हैं और प्रेमिकाएं कितनी हैं? वे ज्ञानोदय में काम करते थे।   

सोफे पर आँख सेंकने के लिए कभी-कभार मैं भी राजकमल चौधरी, ‘शनिचर’ के संपादक ललित, रंगनाथ मिश्र आदि के साथ बैठता था। क़ॉफी के पैसे वही लोग देते थे। मेरी ऐसी कोई प्रेमिका भी नहीं थी जिसको लेकर केबिन में बैठता और ऊँची कीमत चुकाता। ललित की बात चली तो यह बता दूं कि उसकी ‘शनिचर’ पत्रिका बम विस्फोट करती थी। जिस लेखक, कवि पर कलम चलाते उसकी ऐसी की तैसी कर देते। ‘शनिचर’ की दशा से बचने के लिए लेखकवृंद ललित की मान-मनुहार करते थे। 

राजेन्द्र यादव तो आरंभिक दौर में रहते ही कलकत्ता में थे।  राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी का प्रेम जब परवान चढ़ा तो दोनों ने शादी करने की ठानी। चूँकि वे भद्र लेखकों की श्रेणी में थे तो जाहिर है उनका अच्छा-ख़ासा परिचय रमा जैन और साहू शांति प्रसाद जैन से था। तय हुआ कि शादी अलीपुर स्थित उनके ‘जैन निलय’ में की जाय। मात्र 10-12 लोगों को आमंत्रित किया गया। संभवत 1959 होगा, मैं भी वहाँ घुसपैठिये की तरह पहुँच गया। ठाकौर साहब ने देखा तो पूछा- तुम कैसे आ गए? तुम तो आमंत्रित नहीं हो? मैंने बड़ी विनम्रता से कहा-आपकी पूंछ पकड़कर। और ठाकौर साहब ने ठहाका लगाया और लोग चौंक गए। शादी का माहौल था। खाने-पीने का जबर्दस्त इंतज़ाम। बात आई-गई हो गयी। 

मनमोहन ठाकौर (ठाकुर नहीं) का छोटा सा फ़्लैट लेखकों का अड्डा होता था जिसमें शहर के और बाहर से आये लेखक शामिल होते थे। दुनिया भर की बेसिर-पैर की बातों की चर्चा होती, कभी कुछ काम की बातें भी।   

ठाकौर साहब का ठहाका प्रसिद्ध था। हृदय के ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ने आगाह किया कि आप हँसिये, मुस्कुराइए पर ठहाका मत लगाइए। ये जानलेवा हो सकता है। ये बात मुझे मृत्यु के 15-20 दिन पूर्व ठाकौर साहब ने ही बताई थी और कहा था ‘ठहाका न लगाए तो ठाकौर कैसा’? और जोर से ठहाका लगाया। बाद में सुना कि ठहाके के कारण ही उनकी जान चली गई।   

इसी महानगर में राजेन्द्र यादव की पहली पुस्तक ‘उखड़े हुए लोग’ बैरिस्टर भगवती प्रसाद खेतान के सौजन्य से प्रकाशित हुई। उस काल में कई सेठ ऐसे होते थे जो लेखकों की पुस्तक प्रकाशित करवाने में मुक्तहस्त सहयोग करते थे। उदाहरण के तौर पर बैरिस्टर काली प्रसाद खेतान, रामपुरिया आदि आदि।   

यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र  का पहला उपन्यास ‘संन्यासी और सुंदरी’ कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ। राजकमल चौधरी वर्षों कलकत्ता रहे। उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ यहीं से प्रकाशित हुआ। जिन सेठों को गाली देते थे उन्हीं में से एक ने उन्हें प्रकाशन के लिए आर्थिक सहयोग दिया।   

सुशील गुप्ता ने कम से कम सौ बांग्ला उपन्यासों और कविता संग्रहों का हिंदी में अनुवाद किया। इसी शहर में अनुवाद के क्षेत्र में कहानीकार छेदीलाल गुप्त का योगदान भी अहम रहा।   

अक्खड़ और औघड़ व्यक्तित्व के धनी चन्द्रभाल ओझा उस वक़्त कलकत्ता में छाये हुए थे। ओजस्वी वाणी, ओजस्वी कविता से लोगों का मन मोह लेते थे। वे चंदा बटोरते थे और अच्छी-खासी रकम मिलती थी। ‘हमारा एशिया’ कविता संग्रह छापने के लिए दानवीर सेठ और सटोरिये सोहन लाल दूगड़ ने उनको चालीस हज़ार रुपये दिये। बड़तल्ला स्ट्रीट स्थित रेपल आर्ट प्रेस ने पुस्तक छापी। मालिक ने कहा-रुपये दे दें और प्रतियां ले जाएं। चन्द्रभाल ओझा ने तो रुपये खर्च कर दिए थे, दें कहाँ से? अग्रिम पांच पुस्तकें मिली थीं वही उनके पास रही। बाकी रेपल आर्ट प्रेस ने रद्दी में बेच दी। दूसरी पुस्तक ‘जय जवानी आगपानी चन्द्रभाल’ छपी। ये भी काफी लोकप्रिय हुई। उनकी औघड़ता और फक्कड़ता की एक मिसाल देखिये- 

हावड़ा पुल की चोटी पर बैठकर कविता लिख रहे थे। भीड़ जमा हो गई। ट्रैफिक जाम। पुलिस आई। मान-मनौव्वल की। धमकी दी। लेकिन चन्द्रभाल कविता लिखने में व्यस्त और मस्त।  दमकल आई किन्तु सीढ़ी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती थी। कविता ख़त्म हुई तब चन्द्रभाल उतरे। पुलिस ने पकड़ा और हावड़ा स्थित मजिस्ट्रेट की अदालत में ले गई। पूछा-आप पुल की चोटी पर क्या कर रहे थे? जवाब दिया- कविता लिख रहे थे। मजिस्ट्रेट ने कविता सुनी और 100 रुपये जुर्माना किया। उनके पास तो एक कौड़ी नहीं। वहाँ उपस्थित यार-दोस्तों ने जुर्माना भरा। मजिस्ट्रेट ने शाम को घर बुलाकर फिर कविता सुनी और सौ रुपये अपनी जेब से दिए। यह उनकी अपनी कमाई थी। वे अरबी, फारसी, उर्दू के अच्छे जानकार थे। उर्दू के नामचीन विद्वानों को धूल चटा देते थे। एक वक़्त रामबगान के इलाके में रहते थे। उनकी मेजबान एक महिला थी जिनको माताजी कहकर पुकारते थे। उनकी लड़की से इश्क हो गया मगर लड़की किसी और से प्रेम करके भाग गई। मैं एक बार उनके घर गया तो कहा-आओ गीतेश, मिलो मेरी माताजी बनाम प्रेमिका से। प्रेमिका यानि माताजी। बाद में ये हावड़ा चले आये और माताजी जब तक जीवित रहीं उनके साथ रहीं। 

कविता के क्षेत्र में शलभ श्रीराम सिंह का नाम जाना-पहचाना था। उनको हमेशा ये गुमान रहा कि एक न एक दिन उन्हें नोबल पुरस्कार मिलेगा। जीवन में बुरी तरह भटके हुए थे। उसी भटकाव के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। केदार सारथी अच्छे कहानीकार, उपन्यासकार थे। अपनी रचनाएँ खुद टाइप करते और छापते थे। दलित और दरिद्र। अवधनारायण के विशेष शिष्य। जाहिर है सुबह से शाम तक शराब पीने का शौक तो था ही। कलकत्ता के तत्कालीन हिंदी के मठाधीशों ने न तो कभी उनका नोटिस लिया, न किसी को लेने दिया।   

इन पंक्तियों के लेखक ने उनकी एकमात्र कहानी पुस्तक ‘आग अब भी जल रही है’ का प्रकाशन करवाया। उनका सम्मान किया और अपने रसूख से बड़े लेखकों को बुलाकर उनकी प्रशंसा में उनका गुणगान करवाया। 

बड़ाबाज़ार के राधाकृष्ण नेवटिया ने वर्षों की मेहनत और लगन से बड़ाबाज़ार का प्रामाणिक इतिहास लिखा-प्रारम्भ से पिछली सदी के सातवें दशक तक का। बड़ाबाज़ार कुमारसभा पुस्तकालय से आचार्य विष्णुकांत शास्‍त्री और डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी के संपादन में कई पुस्तकें प्रकाशित और संपादित हुईं। जुगल किशोर जैथलिया इस संस्था के प्राणपुरुष थे।   

पंचदेव शहर के जाने-माने हिंदी के रचनाकार थे। सरकारी नौकरी करते थे। अचानक बीमार पड़े तो उन्हें कोठारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिन बाद डॉक्टरों ने कहा कि ऑपरेशन होगा जिसमें चालीस हज़ार रुपये लगेंगे। घरवालों ने कहा, अभी तो दस हज़ार हैं ये ले लीजिये, बाकी कल सुबह दे देंगे। पहले तो प्रबंधकों ने आनाकानी की, फिर ऑपरेशन कर दिया मगर ऑपरेशन के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई। हॉस्पिटल का बिल बढ़ता गया और लाख के करीब पहुँच गया। सगे-संबंधियों को प्रबंधकों ने कहा-रुपये ले आइये और लाश ले जाइए यानि लाश बंधक रख दी गई। उस समय लेखकों में आपस में अच्छा संपर्क रहता था। एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम आते थे। लेखकों के बीच बात पहुंची तो उन्होंने पैसे इकट्ठे करने शुरू किये। मेरे पास भी आये। मैंने कहा-पैसे तो नहीं दूंगा। आपलोग भी इकट्ठा मत कीजिये। सुबह दस बजे आ जाइये, लाश आपको मिल जायेगी।   

मैंने सुबह जी. डी. कोठारी को फोन किया और कहा कि आपके यहाँ एक लेखक की लाश बंधक रखी हुई है। अगर दस बजे तक न छोड़ी गई तो हम सारे पत्रकारों को फोन करेंगे और शहर के हिंदी लेखक वहाँ प्रदर्शन करेंगे। आपकी थू-थू होगी। पहले तो उन्होंने हमें धमकाने की कोशिश की, आपकी हैसियत क्या है? जब मैंने भी जवाब में धमकाया तो कहा-हमारे मैनेजर सोमानी जी से हॉस्पिटल में मिल लीजिये। सोमानी जी से मिला तो कहा कि ऐसे अस्पताल नहीं चलता है। अगर हम यूँ ही लाश छोड़ते रहे तो अस्पताल बंद हो जाएगा। मैंने कहा-ये सब बातें बाद में होंगी। पहले आप लाश छोड़ें, नहीं तो दस बजे यहाँ हंगामा होगा। गुस्से में सोमानी ने जवाब दिया-लाश तो छोड़ देता हूँ लेकिन भविष्य में कभी मुंह मत दिखाइएगा। उन्होंनें कर्मचारियों को आदेश दिया कि लाश छोड़ दी जाए। बात नब्बे के दशक की है। इस बात के चश्मदीद गवाह शहर के जाने-माने बुज़ुर्ग लेखक कपिल आर्य, परशुराम, विमल वर्मा आदि अभी जिंदा हैं।   

कला के क्षेत्र में भी कलकत्ता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।  हिंदी नाट्य समिति, जिसके संस्थापक पन्ना लाल गुजराती थे, जो कद-काठी, हाव-भाव में बमबैया फिल्‍मी सितारा आई. एस. जौहर की प्रतिलिपि थे। कॉटन स्ट्रीट के कोने के एक मकान में पहले तल्ले पर इसकी ऑफिस होती थी। इसकी कई नाटकों पर आज़ादी के पहले रोक भी लगी। मूनलाइट जो अब सिनेमा हाल है उसमें पहले नाटक ही हुआ करते थे हर रोज़ दो शो। इस नाट्य समूह के प्रमुख कलाकार थे प्रेम शंकर नरसी (फिदा हुसैन) जो मुसलमान थे। 47 ज़करिया स्ट्रीट में रहते थे। भले ही वो धर्म से मुसलमान थे पर हिन्दू उन्हें मुसलमान मानने को तैयार नहीं थे। संयोग यह था ज़करिया स्ट्रीट के इसी मकान में पश्चिम बंगाल के एक समय विधानसभा अध्यक्ष और बाद में कानून मंत्री ईश्वर दास जालान भी रहते थे। बाद में अनामिका, अदाकार, कलामंदिर आदि कई नाट्य संस्थाएं खुलीं और जिनके नियमित शो होते थे संगीत कला मंदिर में।

नाटक की बात चली तो एक घटना का जिक्र करना आवश्यक है। नाटक की लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि विश्वमित्र के तात्कालीन संपादक कृष्ण चन्द्र अग्रवाल ने घोषणा की कि वे एक नाटक ‘नेपोलियन बोनापार्ट’ का दो प्रदर्शन करेंगे। रॉक्सी के पास मैदान था। वहाँ कनातें लगाईं गईं। स्टेज बनाया गया। आखिरी वक़्त नाटक के हीरो ने थोड़ी आनाकानी की तो कृष्ण चन्द्र जी ने कहा-हीरो जाये भाड़ में। मैं करूँगा एक्टिंग। धन्नासेठ विश्वनाथ मोर इस तरह के सामाजिक कार्यों में न केवल रुचि लेते थे बल्कि खुलकर आर्थिक सहायता भी देते थे। मर-पचकर नाटक का मंचन हुआ। दर्शकों के अभाव में नाटक का एक ही मंचन हो पाया। 5 क्लाइव रोड की छत पर भी नियमित नाटक हुआ करते थे। हरे कृष्ण उपाध्याय, जो विश्वमित्र में काम करते थे, साथ ही अभिनेता, नाट्यकार, निदेशक सब थे। 

सामयिक नाट्य प्रतिभाओं एवं संस्थाओं में उषा गांगुली तथा उनकी नाट्य संस्था ‘रंगकर्मी’ का जिक्र महत्वपूर्ण है। अभी-अभी दिवंगत हुईं उषा गांगुली ने हिंदी नाटकों को बांग्ला दर्शकों में लोकप्रिय बनाया और कई नए कीर्तिमान स्थापित किये।  कोलकाता के नाटक को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। इसके साथ ही उमा झुनझुनवाला व अज़हर आलम तथा उनकी संस्था ‘लिटिल थेस्पियन’, विनय शर्मा, अनुभा फतेहपुरिया, अशोक सिंह, कल्पना झा तथा प्रसिद्ध नाट्य संस्था पदातिक, संचयिता भट्टाचार्य व महमूद आलम और उनकी नाट्य संस्था ‘जनूस’, प्रताप जायसवाल, एस. एम.  राशिद तथा उनकी नाट्य संस्था ‘यूनिवर्सल थिएटर’ तथा अमन जायसवाल और उनकी नाट्य संस्था ‘ब्लैक कर्टेन’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 

भारतेंदु हरिश्चंद्र की वंशज प्रतिभा अग्रवाल का नाट्य शोध संस्थान राष्ट्रीय स्तर पर अपने ढंग का अनूठा संस्थान है। इसे किसी जमाने में वर्ल्ड बैंक से अच्छी-खासी रकम मिली। इसके ट्रस्टियों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि यह पारिवारिक संस्थान होकर रह गया है।   

इनके पति मदन लाल अग्रवाल सेंट्रल एवेन्यू स्थित क़ॉफी हाउस के नियमित अड्डाबाज़ थे। क़ॉफी हाउस के दो भाग थे- हाउस ऑ़फ कॉमन्स और हाउस ऑ़फ लॉर्ड्स। हाउस ऑ़फ लॉर्ड्स में उनकी टेबल लगती थी। शहर का शायद ही कोई ऐसा लेखक, कवि हो जिनकी उन्होंने मदद न की हो। माँगने पर तो आर्थिक सहयोग देते ही थे, बिन मांगे भी देते थे। कुछ अपवाद जरूर थे जिन्होंनें उनसे मदद नहीं ली। बीच-बीच में वे हाउस ऑ़फ कॉमन्स में जाते थे और वहाँ उपस्थित लेखक-कवियों से बहुत ही आत्मीयता से मिलते थे। शहर में वे अपने ढंग के अलग ही व्यक्ति थे। वे दान देते थे और भूल जाते थे। कभी किसी पर एहसान नहीं जताया।   

इसके अलावा ‘प्रोसिनियन’ के शिव कुमार झुनझुनवाला स्वयं अच्छे अभिनेता व निर्देशक रहे हैं। वे साल में एक फुल लेंथ नाटक करते हैं। वे अभावग्रस्त नाट्य संस्थाओं को निशुल्क अपना हॉल देते हैं। इसके पीछे भी एक राज़ है। राज्य सरकार से इनको नाम मात्र की कीमत पर एक संस्कृति केंद्र बनाने के लिए जगह मिली थी। उसका उन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए दुरुपयोग किया और सरकार को झांसा देने के लिए ‘प्रोसिनियन’ आर्ट सेंटर की स्थापना की। नाट्य समीक्षकों में अब एकमात्र प्रेम कपूर रह गए हैं।   

कलकत्ता में विजय सिंह नाहर के परिवार में एक राष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार होते थे। नाम था-इंद्र दूगड़। उन्हें जो ख्याति मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली। इसके पीछे ईर्ष्या भाव यह भी था कि वे मारवाड़ी जैन थे जिनके पूर्वज सदियों पहले मुर्शिदाबाद आकर बस गये थे। बाद में वे कलकत्ता आकर मोट्ट लेन में रहने लगे थे।  शांतिनिकेतन से उन्होंनें चित्रकारी की शिक्षा ग्रहण की और उस समय के दिग्गज चित्रकारों में गिने जाते थे। अंतर्मुखी, संकोची स्वभाव के कारण में वे उतने लोकप्रिय नहीं हुए जिसकी अपेक्षा थी। 

जैन दर्शन और धर्म पर गणेश ललवानी के टक्कर का शायद ही कोई व्यक्ति इस देश में हुआ हो। यूँ तो लफ्फाजी बहुत लोग करते हैं किन्तु ललवानी जैसे व्यक्ति विरल होते हैं। उनके लेख  शोधपरक होते थे। जैन साहित्य और दर्शन में कलकत्ते में उनके टक्कर का कोई दूसरा नहीं था। अंधविश्वास से दूर रहते हुए वह एक पत्रिका ‘जैन जर्नल’ का संपादन भी करते थे।  गणेश ललवानी की मृत्यु अत्यंत दुखद हुई। सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में उन्हें भर्ती कराया गया। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि सरकारी अस्पतालों में जनरल वार्ड की क्या स्थिति होती है। मैं और कुसुम जैन जब उन्हें देखने गए तो बेड पर उनके बगल में एक बिल्ली सो रही थी और उनके मुंह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। यह तथ्य है कि कलकत्ता में जैन समाज धनी समाजों में है लेकिन किसी ने उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। दानवीर समाजरत्न सरदारमल कांकरिया एकबार देखने गए, हालचाल पूछा और चले आये। 

मैंने वह वक़्त भी देखा है जब महानगर के नामचीन लेखक अनियतकालीन लघु पत्रिकाएँ निकालते थे। अपने खर्चे से देश भर के हिंदी लेखकों को भेजते थे। कलकत्ता हिंदी की लघु पत्रिकाओं का केंद्र था। अधिकांश प्रोफेसर, लेक्चरर, स्कूल के अध्यापक कोई न कोई लघु पत्रिका निकालते थे-अनियतकालीन। कोई पत्रिका एक अंक के बाद, कोई दो-चार, कोई दस-बारह (इससे ज्यादा नहीं) अंकों के बाद दम तोड़ देती थी। एक पत्रिका थी-‘रेखायन’ जिसके प्रकाशक थे राजनंदन और संपादन का भार प्रो. बिमलेश्वर पर था, इस शर्त के साथ कि वो जो सामग्री चाहेंगे वही छपेगी। प्रो. अनय भी एक पत्रिका निकालते थे। उन्होंने उपन्यास और कहानियां लिखीं। विमल वर्मा द्वारा संपादित ‘धूमकेतु’ की भी धूम मची रहती थी। इन पत्रिकाओं की गूँज पूरे हिंदी जगत में थी। उस वक़्त प्रोफेसर, लेक्चरर, अध्यापकों को बहुत ही कम तनख्वाह मिलती थी। शायद सौ से पंद्रह सौ तक लेकिन लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता लाज़वाब होती थी। आज पचास हज़ार से डेढ़ लाख तक की तनख्वाह मिलती है और अपवाद को छोड़कर लेखन के प्रति किसी का लगाव नहीं है।   

लब्बोलुबाब यह कि जिस कलकत्ते का मैंने जिक्र किया वह तो विलुप्त हो गया। अब तो बस दो-चार नामलेवा लेखक-कवि रह गए हैं जो जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। कविता के क्षेत्र में युवा पीढ़ी की संख्या इतनी है कि आप गिन नहीं सकते जबकि इनकी कविता में सबकुछ होता है पर कविता नहीं होती। कहानी लेखन का भी वही हाल है। संस्थाओं और मंचों पर कब्ज़ा ऐसे लोगों का है जो अपने प्रिय और प्रियाओं को मंच देते हैं। गंभीर लिखने वालों को दूर रखते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं उनको मंच दिया तो इनकी विद्वता की कलई न खुल जाए।   

भारतीय भाषा परिषद अपना गौरव खो चुकी है। यहाँ आयोजित गोष्ठियां ऐसे विषयों पर होती हैं जिससे समाज का कोई संबंध नहीं है। भाषा परिषद ने दो खण्डों में हिंदी विश्वकोष प्रकाशित किया। वाणी ने छापा। तिकड़म भिड़ाकर अगर सरकारी खरीद हो तो प्रकाशक को लाभ हो सकता है। विश्वकोष इतना लचर है कि कोई संजीदा पाठक इसको पढ़ना नहीं चाहेगा। हाँ, निदेशक ने अपने मित्रों, सहयोगियों, चेले-चपाटियों को निहाल कर दिया। कहते हैं वह एक करोड़ का प्रोजेक्ट था। भाषा परिषद के निदेशक शंभुनाथ जी ऐसे महान विद्वानों को बुलाते हैं जो सौंदर्यशास्त्र के भीतर के सौंदर्यशास्त्र पर भाषण देते हैं जो किसी के पल्ले नहीं पड़ता है। इन लोगों ने भीड़ जुटाने का नायाब तरीका निकाला है।  कार्यक्रम में शामिल होने वालों को सर्टिफिकेट दी जाती है जो उनके कैरियर से जुड़ी होती है। 

जिन विद्वानों ने भाषा परिषद में न जाने की कसम खाई थी वे ही अब वहाँ जाकर, भाषण देकर और भाषण की कीमत वसूल कर हवाई जहाज का किराया व अन्य सुविधा पाकर उपकृत होते हैं। बहुतों को शायद पता नहीं हो 10, जवाहर लाल नेहरू रोड स्थित भारतीय संस्कृति संसद जहां हिंदी के शीर्षस्थ कवि, रचनाकार आते रहे और जहां के भोजन का अपना अलग अंदाज़ था, अब  बंद होने  के कगार पर है।    

बचे-खुचे नामचीन लेखकों में, जिनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर रही है विमल वर्मा (90 वर्ष), श्रीनिवास शर्मा (88 वर्ष), सिद्धेश जी (82 वर्ष), कपिल आर्य (82)। वाचक परंपरा में प्रो. बिमलेश्वर, लेखिकाओं में अलका सरावगी, दिवंगत प्रभा खेतान, स्व. हर्षनाथ, स्व. सन्हैया लाल ओझा, प्रो. तनूजा मजूमदार, परशुराम के नाम उल्लेखनीय हैं। सद्यप्रयात नवल जी विलक्षण व्यक्तित्व के धनी अजातशत्रु कवि थे। सदा हँसी से सराबोर उनका मुखमंडल उनकी प्रतिभा, दक्षता और उदारता का प्रकाश बिखेड़ता था।  सरकारी बैंक में उच्च पद पर रहे और पर्दे के पीछे रहकर नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करते रहे। कई बार मुझे जबरन उनको सामने लाना पड़ता था।   

संभवत प्रभा खेतान हिंदी में पहली नारीवादी लेखिका थीं लेकिन जीवन में कभी नारीवादी नहीं रहीं। उन्होंने अपने संस्मरण में स्पष्ट लिखा है कि मैं जी. के. सराफ की चालीस साल तक रखैल रही। मुझे पत्नी का दर्ज़ा नहीं मिला। यह कैसा नारीवाद है? हालांकि जो कुछ उन्होंनें लिखा, सशक्त लिखा और राष्ट्रीय स्तर की लोकप्रिय लेखिकाओं में उनकी गणना अग्रिम पंक्ति में होती रही। समालोचक श्रीनिवास शर्मा 88 साल की उम्र में भी लिख रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘युद्ध और साहित्य’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रो. बिमलेश्वर हिंदी साहित्य के विश्वकोष हैं और मात्र एक कहानी संग्रह है, तथ्यपरक दूसरों के बेडरूम में झांकते हुए। मधु कांकरिया वर्षों पहले कलकत्ता छोड़कर जा चुकी हैं। इन्होंने ‘संस्कृति पर सेज’ एक उपन्यास लिखा जिसमें पारसनाथ मंदिर में चल रहे अनाचारों पर वहाँ महीनों रहकर जुटाये गए तथ्य विस्तृत रूप से शामिल किये गए थे। सिद्धेश जी ने कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे और बांग्ला से अनुवाद किया।   

कुसुम जैन ने अच्छी कवितायें लिखीं। ‘नवलेखन’ के नाम से एक पुस्तक का संपादन किया जिसमें देश भर के उदीयमान रचनाकारों को शामिल किया गया था जिसका विमोचन पार्क होटल में विष्णु प्रभाकर ने किया। संभवत नए रचनाकारों का हिंदी जगत में यह पहला संकलन था। उनकी कविताओं का वियतनामी, स्वीडिश, बांग्ला, अंग्रेज़ी और ओड़िया में अनुवाद हुआ और प्रशंसित हुई। बाद में साहित्य जगत से दूर होती चली गईं। 78 वर्षीय प्रेम कपूर ने कई महत्वपूर्ण लेखकों की रचनाओं का अंग्रेजी और बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया। नाट्य समीक्षक तो वे कलकत्ते में अकेले ही रह गए हैं। जितेन्द्र धीर हिंदी ग़ज़ल में राष्ट्रीय स्तर की काबिलियत रखते हैं लेकिन उनको वैसी पहचान नहीं मिली जिसकी अपेक्षा थी।   

‘लहक’ का उल्लेख करना आवश्यक है।  महानगर से प्रकाशित इस पत्रिका ने देश के हिंदी जगत में तहलका मचा रखा है।  ‘लहक’ जब किसी के पीछे पड़ जाती है तो फिर आगे-पीछे नहीं सोचती है। कहीं-कहीं इसमें पूर्वाग्रह भी देखने को मिलता है। संपादक किसी लेखक या लेखिका को पसंद नहीं करते तो नहीं करते। होगा कोई लेखक या लेखिका मेरी बला से।   

एक हैं कवयित्री विद्या भंडारी। अच्छा लिखती हैं। महिला लेखिकाओं की संस्था ‘साहित्यिकी’ से जुड़ी हुई हैं। इससे जुड़ी गीता दूबे ने समीक्षा और कविता दोनों में अपनी जगह बना रखी है।   

अजय राय, संजय बिन्नानी और उसकी धर्मपत्नी ने मिलकर शहर कलकत्ता और हिंदी जगत के नामी-गिरामी कवियों की कविताओं को सुर देकर इस तरह गाया कि श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।  पर दुर्भाग्य रहा कि महानगर के हिंदी जगत के पुरोधाओं ने उनको किसी भी प्रकार के सम्मान से वंचित रखा।   

डॉ. तनूजा मजूमदार उन विषयों पर लिखती रहीं जिस पर कोई नहीं लिखता। मसलन, निराला और नज़रुल का तुलनात्मक अध्ययन। गांधीवाद पर कई प्रपत्र और पुस्तकें आदि। आज के हिंदी वाले उनको घास नहीं डालते क्योंकि वे बंगाली हैं और प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय की हेड ऑ़फ डिपार्टमेंट रह चुकी हैं। अभी डीन हैं।   

संत कवि दद्दा छविनाथ मिश्र नौकरी करते थे किन्तु कवि गज़ब के थे। उन्होंनें वेदों का भावानुवाद किया जिसकी जितनी कद्र होनी चाहिए थी वह नहीं हुई। न जाने क्यों? 

शिक्षायतन की शिक्षिका सुकीर्ति गुप्ता कहानियाँ और कवितायें लिखती थीं और स्वतंत्र जीवन जीती थीं। ज्ञानेन्द्रपति से इश्क किया। अपने घर बुलाकर रखा। सुकीर्ति जी के पैसे पर ये कई महीने पले। खुद कमाई-धमाई नहीं करते थे। अंतत: सुकीर्ति जी ने उन्हें घर से निकाल बाहर किया। उनके एक और प्रेमी पृथ्वीनाथ शास्त्री ने मुस्लिम रीति से विवाह किया और उनका भरपूर आर्थिक एवं दैहिक शोषण किया। सुकीर्ति जी ने उन्हें घर से निकल जाने को कहा तो उन्होंनें एक लाख रुपये एवं किताबों की मांग की और कहा कि अगर यह नहीं मिले तो मैं तलाक नहीं दूंगा।   

सुकीर्तिजी ने मुझे सारी कहानी बताई। मैंने पृथ्वीनाथ को कहा कि अगर परसों तक आप नहीं निकले तो आपकी एक टांग तोड़ने की व्यवस्था कर दी गई है। पृथ्वीनाथ जी घबड़ाए और दूसरे दिन ही सर सामान बाँधा और सुकीर्तिजी से कहा- कुछ तो दे दो। वे हृदय से बहुत ही निश्छल और भावुक थीं। उन्होंनें बीस हज़ार रुपये दे दिए। पृथ्वीनाथ जी वहाँ से सीधे शांतिनिकेतन गए और अंत तक वहीं रहे।   

शोभाराम बैशाख स्ट्रीट में भी चाचा नोपानी की प्रेस थी जहां साहित्यिक पुस्तकें छपती थीं। प्राय: अड्डा लगता था जिसमें नवलजी, छविनाथ जी और उस  समय के उनके शागिर्द शामिल होते थे।    

हो सकता है कई बातें छूट गईं हों लेकिन खलासी टोला का जिक्र किये बिना कलकत्ता के हिंदी जगत की कहानी पूरी नहीं होगी। होने को तो खलासी टोला आज भी है लेकिन एकदम उदास। खलासी टोला मतलब देशी ठर्रा का केन्द्रीय मिलन स्थल, विशेषकर लेखकों, कवियों के लिए। बांग्ला के शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय, निरंजन हालदार, हिंदी के अपवाद को छोड़कर हर कवि, लेखक शाम 6 बजे के बाद खलासी टोला पहुँच जाता था। अवध नारायण सिंह के नेतृत्व में अलख नारायण, सकलदीप सिंह, केदार सारथी, नई पीढ़ी के राजनन्दन, शिव शारडा आदि आदि।   

एक समय था अलख नारायण हांफते-दौड़ते जनसंसार कार्यालय में आते थे और आते ही एक धमाकेदार आलेख थमाकर पांच रुपये माँगते थे। पूछने पर कहते-मेरे जैसा चिंतक पूरे देश में नहीं मिलेगा और वो सही कहते थे। बेहिसाब शराब पीने की लत ने उनकी जिंदगी असमय लील ली।   

मैं अपने आप से पूछता हूँ डेढ़ करोड़ की आबादी के इस महानगर में कम से कम 60 लाख हिंदी भाषी रहते हैं। ज़ाहिर है हिंदी के साहित्यकारों का अनुदान भी उसी के अनुरूप होगा।  पहले केवल कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग होता था।  अब तो कम से कम चार या पांच विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग है। लेक्चरर, प्रोफेसर की संख्या सैकड़ों में है और छात्रों की हज़ारों में। प्रो. कल्याणमल लोढ़ा तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी का वर्चस्व बना हुआ था। उनके बाद हिंदी का अवसान शुरू होता है।

एक संस्था है नीलांबर जिससे आईएएस, आईपीएस, सरकारी हिंदी अधिकारी, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक और प्रोफेसर जुड़े हुए हैं। अच्छी तनख्वाह पाते हैं, आर्थिक रूप से संपन्न हैं। साल में एक बार हिंदी के नाम पर एक बड़ा आयोजन करते हैं। कहते हैं उसका बजट लाखों में होता है। देश के चुनिंदा रचनाकारों को हवाई जहाज से बुलवाते हैं। पांच सितारा गेस्ट हाउस में रुकवाते हैं। उनका भाषण करवाते हैं और जुटाए गए छात्र-छात्राओं से तालियाँ पिटवाते हैं।  

पीएचडी और शोध करने वाले छात्र-छात्राओं की बड़ी संख्या है लेकिन अपवाद को छोड़कर इनके शोधग्रंथ या तो छपते नहीं क्योंकि इस लायक होते नहीं कि छपाए जाएँ। हाँ, रूपा गुप्ता ने भारतेंदु हरिश्चंद्र पर और सुफिया यास्मीन ने नागार्जुन पर, सुनीता गुप्ता ने जैनेन्द्र कुमार पर शोध किये, ग्रंथ लिखा और छपवाया। वर्षों पहले स्वर्गीय डॉ. इलारानी सिंह ने मुक्तिबोध पर शोध किया और उनके बारे में तथ्य देते हुए भला-बुरा सबकुछ लिखा। वामपंथियों को यह रास नहीं आया। इसीलिए इलारानी और उनके शोध ग्रंथ की ऐसी उपेक्षा की कि आज के लेक्चरर, प्रोफेसर तक उनके शोधग्रन्थ से परिचित नहीं हैं। हालांकि एक-एक व्यक्ति पर हिंदी में कई-कई शोध ग्रंथ निकले हैं लेकिन उल्लेखनीय शायद ही कोई होता है।   

कलकत्ता, जो कभी राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का केंद्र होता था उसकी आज कोई राष्ट्रीय पहचान नहीं है। राष्ट्रीय तो क्या स्थानीय पहचान भी नहीं है। महानगर के हिंदी के डॉक्टरेट क्या उर्दू के शायर शाहिद फरोगी के नाम से भी परिचित हैं? डॉ. फरोगी ने उपेन्द्रनाथ अश्क पर हिंदी में शोध किया। एक तो मुसलमान दूसरे इनके परिवार में कोई हिंदी विभाग के बड़े पद पर नहीं। वर्ष भर बेकार रहने के बाद ये किचेन का सामान बेचने का धंधा करने लगे।  ‘पढ़े फारसी बेचे तेल’ वाली कहावत सौ फ़ीसदी इन पर लागू होती है।   

हिंदी के छात्र-छात्राओं, लेखक-लेखिकाओं को राष्ट्र चेतना से कोई लगाव नहीं होता। देश के हित में, अहित में तेज़ी से घटनाएं-दुर्घटनाएं घट रही हैं उससे इनका कोई सरोकार नहीं।  इन्हें यह डर लगता रहता है कि कहीं नौकरी न चली जाए।  यह है हिंदी की दशा हमारे प्रिय महानगर में।   

महानगर में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। हिंदी लगभग बोलचाल की भाषा होकर रह गई है। हिंदी माध्यम के जो नामचीन स्कूल और कॉलेज थे वे अंग्रेज़ी माध्यम में बदल गए हैं।   

आप ही सोचिये जिस भाषा में समाज विज्ञान की स्तरीय पुस्तकें न हों, साइंस तथा मेडिकल आदि की तो बात ही दरकिनार है तो उसका क्या भविष्य? यह मसला राष्ट्रीय है केवल कलकत्ता का नहीं। किन्तु मोटी तनख्वाह पाने वाले राजभाषा अधिकारी, प्रोफेसर, लेक्चरर हिंदी के विकास के लिए क्या कर रहे हैं? इनका तो एकमात्र उद्देश्य है पैसा कमाओ और अधिक पैसा कमाओ। हिंदी जाए भाड़ में। रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलती है और साथ ही सेठाश्रयी संस्थानों में नौकरी कर जो रकम उठाते हैं वो अलग।  मुझे बताया गया कि एक भूतपूर्व सांसद राज्यसभा से और यूनिवर्सिटी दोनों संस्थानों से पैसा लेती हैं। विश्वविद्यालय की विभिन्न समितियों से जो रेम्युनेरेशन मिलता है सो अलग।   

ज्योति बसु के मुख्यमंत्रित्व काल में पश्चिम बंग हिंदी अकादमी का गठन किया गया। तनुजा मजूमदार इसकी सचिव नियुक्त की गई। दो कमिटियाँ गठित की गईं-जनरल कौंसिल और गवर्निंग बॉडी। मेरे मित्रों के विरोध के बावजूद बिमान बोस ने मुझे जनरल कौंसिल में मनोनीत किया। दो कार्यकाल तक ये अकादमी चली।  फिर अपने आप डीफंक्ट हो गई। संस्कृत कॉलेज के दो कमरे आवंटित किये गए इस वादे के साथ कि जब इसका अपना भवन बनेगा तो ये खाली कर देंगे। अभी तृणमूल सरकार ने हिंदी अकादमी की नयी कार्यकारिणी गठित की है। उम्मीदें बंधी हैं कि कुछ बेहतर होगा जो आने वाले समय में ही पता चल सकेगा?   

आज उर्दू अकादमी का तीन तल्ले का अपना भवन है। अपना प्रकाशन संस्थान है। उर्दू पुस्तकों की दुकान है। आये दिन सेमिनार-सभाएं होती हैं। हिंदी अकादमी?   

एक बात और…

यूनिवर्सिटी में जितने भी विभागाध्यक्ष हुए सबने अपने बेटे-बेटियों को प्रोफेसर या लेक्चरर बना दिया ताकि दूसरी पीढ़ी भी मौज-मस्ती में रहे। प्रो. सदानंद सिंह ने तो गज़ब का चमत्कार किया। उनको ‘नमन’। मुख्यमंत्री ज्योति बसु की उपस्थिति में केवल कवर दिखाकर उस किताब का विमोचन करा लिया जो कभी छपी ही नहीं।  हिंदी अकादमी ने पत्रिका निकाली ‘धूमकेतु’ जिसकी प्रतियां अभी भी गोदाम में पड़ी सड़ रही होंगी या दीमक ने नष्ट कर दिया होगा। न तो उसे बेचने की कोई चेष्टा की गई न ही वितरित करने की। मैं जब मीटिंग में विरोध करता था तो वहाँ उपस्थित सभी लेखक-लेखिका मेरा विरोध करते थे। और बाहर आकर उनमें से अधिकांश मेरी पीठ थपथपाते थे कि आपने बहुत सही कहा।    

हिंदी की रोटी (मलाई) खाने वालों में हिंदी के प्रति कोई प्रतिबद्धता तो दूर लगाव तक नहीं है।   

राजभाषा हिंदी की जिस शब्दावली का प्रयोग करता है तथा ‘आज का शब्द’ नाम पर जो शब्दावली प्रचारित होती है वह इतनी कठिन होती है कि आम आदमी की तो बात ही छोड़िये, हिंदी के अध्यापकों तक को समझ में नहीं आती। हिंदी को सरल बनाने की तो कभी कोई चेष्टा ही नहीं हुई।   

मैंने 70 साल कोलकाता की सामाजिक-सांस्कृतिक जिंदगी को जिया है इसीलिए बहुत से प्रसंग हैं, बहुत से चेहरे हैं जो वक़्त-बेवक्त आँखों के सामने आते हैं और उनकी खूबियाँ-खामियाँ मुझे रोमांचित करती हैं। यादों का गहरा समंदर है जिससे कुछ ऐसे मोती ही यहाँ निकाल पाए हैं जिनकी चमक ने यहाँ के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत को अपनी उपस्थिति से प्रभावित किया। 

कलकत्ता का साहित्यिक जगत शानदार इमारत से खँडहर में बदल गया। मैं कितना भी आशावादी क्यों न होऊं यह जानता हूँ कि जहां तक हिंदी भाषा का प्रश्न है इसका भविष्य पता नहीं क्यों अंधकारमय लगता है?   

और अंत में…

इन पंक्तियों के लेखक बेचारे गीतेश शर्मा को चौबीस पुस्तकें लिखने के बावजूद और वह भी उन विषयों पर जिन पर कोई नहीं लिखता, महानगर के लेखक, लेखक ही नहीं समझते, जिनमें नौ राजकमल प्रकाशन ने छापा, जिनमें कई पुस्तकों के कई संस्करण बिके। मैं स्वयं से और पाठकों से यह सवाल करता हूँ कि इस महानगर में हिंदी का क्या कोई भविष्य है? इसके पहले यह बता दूं कि केंद्र व राज्य सरकारें हिंदी के विकास के लिए करोड़ों की राशि खर्च कर रही है। 


नब्बे साल के गीतेश शर्मा बीते सत्तर साल तक कोलकाता के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश की धुरी रहे हैं और अब भी सक्रिय हैंयह संस्‍मरण लहक पत्रिका से साभार प्रकाशित है।

कवर तस्वीर: अभिषेक श्रीवास्तव


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