सांस्कृतिक विविधता का डर और संघर्ष


किसी भौगोलिक क्षेत्र विशेष में काल क्रम की अवधि में किसी संस्कृति के निरंतर संक्रमण से उपजी दो संस्कृतियां अपने शैशव काल से प्रौढ़ावस्था तक जाते-जाते एक दूसरे के अस्तित्व पर परस्‍पर निर्भर हो जाती हैं। संस्कृतियों में प्रौढ़ता के साथ मूलभूत विविधताओं पर परस्‍पर परिस्थितिजन्य संबंधों में परिवर्तन आता है और यह लाजमी भी है, परंतु संबंधों में परिवर्तन के साथ सहजीविता के इनर्शिया को धक्का तब लगता है जब किसी एक संस्कृति के आर्थिक उत्पादन के साधनों और राजनीतिक हितों की परिधि को किसी दूसरे संस्कृति की मौजूदगी से ही खतरा होने लगता है। यहीं पर आता है क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन का प्रश्न। प्रकृति के लिए सांस्कृतिक विविधताएं अस्तित्व संरक्षण के उपागम हैं और विविधता का यह स्तर जितना ऊंचा होगा, मानव जाति (या किसी भी जीवित समूह) के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना उतना ही आसान होगा।

सहजीविता की यह समझ हालांकि वास्तविक धरातल पर देखने को नहीं मिलती। हर एक समाज में बहुसंख्यकों एवं अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष वस्तुतः ‘सांस्कृतिक विविधता की जरूरत’ के ऊपर आर्थिक राजनीतिक उपागम के अधिकार की लड़ाई है। यदि इस संघर्ष के बीच अल्पसंख्यक समूह के किसी छोटे अंश द्वारा भी कोई अनैतिक कदम उठाया जाता है तो यह परिस्थिति बहुसंख्यक वर्ग को अपने सांस्कृतिक संघर्ष को पोषित करने का पर्याप्त मौका देती है। इस परिस्थिति को बहाना बनाया जाता है उस सांस्कृतिक विविधता को  समाप्त करने का, और यहीं  देखने को मिलती हैं नस्ली/जातीय संहार  की घटनाएं।

सभ्‍यताओं के टकराव या क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन को आज के अंधराष्ट्रवाद का सहारा मिल गया है। राष्ट्रवाद के झंडे तले बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों  के दमन को वैध ठहराया जा रहा है। 1984 में सिख विरोधी दंगे, ईस्टर हमले के बाद श्रीलंका में मुस्लिमों की हालात, म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों का दमन, हिटलर द्वारा यहूदियों का संहार या  चीन के शिंजियांग प्रांत के उईगुर मुस्लिम समुदाय का दमन- ये सब इसी के उदाहरण हैं।

सांस्कृतिक संघर्ष पर राष्ट्रवाद का चोला पहनाने से एक बड़े शोषक वर्ग को अपने शोषक होने का अहसास नहीं होता और वे कुंठाएं जागृत नहीं होती हैं जो होनी चाहिए थीं। अतिराष्ट्रवाद वह म्यान है जिसमें सांस्कृतिक हत्या की तलवार को रखा जाने लगा है।

श्रीलंका में अप्रैल 2019 के भयावह बम ब्लास्ट के बाद मुस्लिम अल्पसंख्यकों को हाशिये पर डाल दिया गया था। एक लोकल कट्टर इस्लामिक समूह के इस शर्मनाक आतंकी हमले के बाद हर एक मुस्लिम को शक की निगाह से देखा जा रहा था। लिट्टे की मौजूदगी में शोषण का दंश झेल चुके इन अल्पसंख्यकों को मौजूदा परिस्थिति में कुछ अंधराष्ट्रवादी सिंहली-बौद्ध बहुसंख्यकों के कोप का भाजन बनना पड़ा। दरअसल,  बहुसंख्यक वर्ग के किसी छोटे अंश का अनैतिक कदम एक खास तबके की ‘भूल’ होती है जबकि अल्पसंख्यक वर्ग के किसी छोटे अंश का अनैतिक कदम समूचे वर्ग की ‘साजिश’ मानी जाती है। इससे बहुसंख्यक वर्ग को सांस्कृतिक विविधता समाप्त करने का आधार प्राप्त होता है। आर्थिक उत्पादन के साधनों पर एकछत्र अधिकार और राजनैतिक सामाजिक रूप से हमेशा प्रथम सोपान पर रहने की लालसा को अंधराष्ट्रवाद की खुराक मिल जाती है। घटना के पश्चात श्रीलंका के मंत्रिपरिषद में मुस्लिम मंत्रियों को अपना त्यागपत्र देना पड़ा था। आगे जांच पड़ताल के बाद उन्हें सरकार में वापस स्थान मिला। तात्पर्य है कि वहां हर मुस्लिम को शक के दायरे में रखा गया जब तक कि जांच पूरी नहीं हुई।

यही परिस्थिति भारत में 1984 में  इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देखने को मिली थी। अकेले दिल्ली में 2733 सिखों की हत्या की गई। समूचे देश में कई जगह सड़कों पर सिखों को जिंदा जला दिया गया। ‘अपने मुल्क’ की तलाश में जो सिख आजादी के बाद पाकिस्तान में अपनी रोजी-रोटी, घर-खेत  छोड़ कर दिल्ली आए थे, आजादी के 37 साल बाद अंधराष्ट्रवाद के पीछे छुपे सांस्कृतिक वर्चस्‍व ने उन्हें एक ही निगाह से देखा।

26 जनवरी 2021 को लाल किले पर हुई घटना और पूरे कृषि आंदोलन की पृष्ठभूमि में खालिस्तान के मुद्दे को हवा दी गयी। इसने पुनः किसानों की वाजिब मांग के समानांतर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के सवाल को ही उछाला।

विविधता का यह डर मानव मस्तिष्क का सबसे बड़ा डर है। अमेरिकी गृहयुद्ध में अश्वेतों से राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हैसियत साझा करने का डर हो या वर्तमान भारत में हरेक जाति के बराबर हो जाने का डर। ‘दलित जाति के दूल्हे का भी घोड़े पर चढ़ना’ अब भी  उच्च जाति के मस्तिष्क के उस कल्पित समाज के डर को जगा देता है जहां कोई जातिगत सोपान क्रम नहीं होगा। संस्कृति का यह तनाव संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया की देन है जहां मूल संघर्ष आर्थिक उत्पादन के साधनों पर अधिकार का होता है। यही एकाधिकार विचारधारा से लिबास तक, खाने की आदत से अदब-लिहाज़ तक सब कुछ एक जैसे की कामना करता है। विविधता से उसे सत्ता खोने का डर होता है।


About आशुतोष कुमार सिंह

View all posts by आशुतोष कुमार सिंह →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *