ग़सान कनाफ़ानी सिर्फ़ लेखक नहीं था, वो एक मुकम्मल लेखक था। वो लेखक था और क्रांतिकारी था। आज तक यह अंदाज़ लगाना मुश्किल है कि उसने कितना लिखा होगा। कनाफानी को सिर्फ़ अरबी ही नहीं, फ्रेंच और अंग्रेज़ी भी बखूबी आती थी। कनाफ़ानी की मृत्यु बेरूत, लेबनॉन में 1972 में हुई जब उनकी उम्र महज 36 वर्ष की थी। उनकी कार में बम लगाया गया था और उस वक़्त योजनानुसार तो उनके साथ उनका पूरा परिवार, पत्नी और बच्चे भी होने थे लेकिन किसी वजह से वो लोग उनके साथ नहीं आ सके और कार में केवल ग़सान कनाफ़ानी और उनकी 17 वर्षीय भांजी लमीस ही थे। इस कार बम विस्फोट की साजिश की ज़िम्मेदारी इज़रायल की गुप्तचर संस्था मोसाद ने ली थी।
ग़सान कनाफ़ानी का जन्म तत्कालीन फ़िलिस्तीन के उत्तरी शहर अक्का में 1936 में हुआ था। बचपन से ही उन्होंने फ़िलिस्तीनी लोगों का विद्रोह और संघर्ष देखा था। दरअसल पहले विश्वयुद्ध के वक़्त लगभग 600 वर्षों के राज के बाद ऑटोमन साम्राज्य की हार हुई थी और फ़िलिस्तीन पर इंग्लैंड का क़ब्ज़ा हो गया था। सन 1917 में फ़िलिस्तीन पर अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को थोपते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के विदेश सचिव बालफोर ने अपने मंत्री और ब्रिटिश यहूदी समुदाय के प्रतिनिधि लॉर्ड रॉथशिल्ड को इस आशय का एक पत्र लिखा था कि ब्रिटिश साम्राज्य फ़िलिस्तीन की जमीन पर यहूदियों को भी अपने राष्ट्रीय निवास को क़ायम करने की माँग पर सहमत है। हालाँकि उसमें यह भी लिखा हुआ था कि जो ग़ैर-यहूदी समुदाय पहले से फ़िलिस्तीन में रह रहे हैं, उनके नागरिक और धार्मिक अधिकार यथावत रखे जाएँगे लेकिन हक़ीक़त में ऐसा हुआ नहीं।
इस वजह से फ़िलिस्तीन के यहूदियों और ग़ैर यहूदियों के बीच धीरे-धीरे एक अविश्वास पनपाया जाने लगा। एक तरफ़ वे यहूदी इस बात से बहुत प्रसन्न थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार के इस फैसले से यहूदियों के बीच अपनी राजनीति करने का अवसर मिल गया था और जिन्हें साम्राज्यवाद के साथ अपना भविष्य उज्जवल लगता था, दूसरी तरफ़ सैकड़ों वर्षों से साथ रहते आ रहे आम फ़िलिस्तीनियों के मन में साझा पहचान के लिए संकट खड़ा हो गया था। वह पहचान थी अरब पहचान। यह पहचान किसी तरह की नस्ल या धर्म या भाषा या विश्वास के साथ नहीं जुड़ी थी। यह एक धर्मनिरपेक्ष और सीधी पहचान थी कि जो अरब इलाक़े में रहते हैं, वे सभी अरब हैं।
कनाफ़ानी के पिता इसी अरब राष्ट्रीय पहचान के आंदोलन का हिस्सा थे। सन 1948 में जब इज़रायल के एक मुल्क बनने की घोषणा कर दी गई तो फ़िलिस्तीन में रह रहे इसी अरब पहचान के आंदोलनकारियों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया। तब अंग्रेज़ों और पश्चिमी देशों की फ़ौज की मदद से स्थानीय फ़िलिस्तीनी विद्रोहियों का बड़े पैमाने पर कत्ले-आम किया गया। उसे फ़िलिस्तीनी लोग ‘नकबा’ (कहर) कहते हैं। उस वक़्त ग़सान कनाफ़ानी की उम्र 12 वर्ष की थी जब उन्होंने अपने पिता और परिवार के अन्य बड़े लोगों को बेइज़्ज़त होते देखा और वे शरणार्थी बन अपने शहर से बेदखल होने पर मजबूर हुए। यहीं से कनाफ़ानी में एक बाग़ी का जन्म हुआ।
उनका परिवार फ़िलिस्तीन से सीरिया चला गया जहां उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। यह उल्लेखनीय है कि उस समय वे फ्रेंच भाषा में अपनी पढ़ाई कर रहे थे। बाद में वे अरबी भाषा की पढ़ाई के लिए सीरिया की राजधानी दमिश्क में दमिश्क यूनिवर्सिटी में पढ़ने आये लेकिन वहां उन्हें एक फ़िलिस्तीनी मार्क्सवादी नेता जॉर्ज हबाश ने पॉपुलर फ्रन्ट फॉर लिबरेशन ऑफ फ़िलिस्तीन (पीएफ़एलपी) से जोड़ लिया जो अरब राष्ट्रवादियों का एक संगठन था। इस राजनीतिक संबद्धता की क़ीमत ग़सान कनाफ़ानी को चुकानी पड़ी और उन्हें यूनिवर्सिटी से डिग्री पूरी होने के पहले ही निकाल दिया गया।
लोग पूछते हैं कि जब 1948 में फ़िलिस्तीन पर इज़रायल बना तब उसका जोरदार विरोध क्यों नहीं हुआ? इसलिए क्योंकि लड़ने वाले फ़िलिस्तीनियों को ब्रिटिश फ़ौज 1917 से ही जब-तब मारती आ रही थी। सन 1948 में इसीलिए यहूदीवादी (ज़ायोनिस्ट) लोगों को कुछ ज़्यादा संघर्ष करना ही नहीं पड़ा था। कनाफ़ानी की पीढ़ी को फ़िलिस्तीन की आज़ादी के ख्वाब को शक्ल देने में भी वक़्त लगा। साठ के दशक के मध्य तक फ़िलिस्तीन की आज़ादी के लड़ाके फिर से तैयार होने लगे थे।
कनाफ़ानी ने जितना लिखा, उसका अभी तक कुछ अंश ही हासिल किया जा सका है। उन्होंने अनेक अखबारों में लिखा। अनेक नामों से लिखा। उनके लिए लेखन अपना नाम बनाने का नहीं, बल्कि फ़िलिस्तीन की आज़ादी के मक़सद को हासिल करने के लिए तर्क का औजार था, दुश्मन के ख़िलाफ़ मोर्चा था और लोगों को लामबंद करने की पुकार थी। कनाफ़ानी के और अन्य फ़िलिस्तीनी लेखन को इसीलिए किसी विधा में बांधा नहीं जा सकता है। वे कविता भी, कहानी भी, संस्मरण भी हैं, आत्मवृत्त भी और रोज़नामचा भी हैं। वे अपने वक़्त की गवाहियां (टेस्टीमोनी) हैं। वहां लेखन एक कला-कौशल नहीं है जिसे बार-बार लिखकर सुधारा जा सकता है, जिसके शिल्प-सौष्ठव और भाषा को बेहतर बनाया जा सकता है, बल्कि वह अस्तित्व के लिए की जा रही लड़ाई का हिस्सा है। वहां राइटर होना सिर्फ़ राइटर होना नहीं है, फाइटर होना भी है। इस अर्थ में कनाफ़ानी एक मुकम्मल लेखक हैं।
बम धमाकों, अपने लोगों के अपमान, मौत के खतरों के बीच कनाफ़ानी ने जो लिखा उसे शायद दोबारा पढ़ने लायक उन्हें वक़्त भी मिल सका या नहीं, कह नहीं सकते लेकिन उनका लिखा इतना ताक़तवर है कि हड्डियों के भीतर तक महसूस होता है, और इतना विश्वसनीय कि उसके लिए किसी गल्प की ज़रूरत नहीं महसूस होती।
यही स्थिति लातिनी अमेरिका में भी हुई जहां 1970 के दशक में फ़िलिस्तीन जैसे हालात नहीं थे लेकिन लोगों की बदहाली वैसी ही थी। फ़िलिस्तीन में सीधे-सीधे क़ब्ज़ा था लेकिन लातिनी अमेरिकी देशों में आइएमएफ़ और विश्व बैंक की नीतियों ने वैसी ही बदहाली फैलायी हुई थी। इसीलिए उस दौर में जब वहां लेखन हुआ तो हम पाते हैं कि एदुआर्दो गलियानो जैसे लेखकों की पुस्तकों में भी कविता-कहानी-निबंध आदि का फ़र्क़ नहीं रह जाता।
आज के माहौल में ग़सान कनाफ़ानी को याद करने की वजह सिर्फ़ यह नहीं है कि उनके साहित्य की बारीकियों को समझा जाए और उसके कलात्मक अवदान को समझा जाए बल्कि कनाफ़ानी को याद करने का अर्थ है फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के साथ एकजुटता ज़ाहिर करना और उस फ़िलिस्तीन को बेहतर तरह से समझना जो आज लगभग आठ दशकों से इस तथाकथित आधुनिक दुनिया में इज़रायल के ज़ुल्मों को सहते हुए अपनी ही जमीन पर ग़ुलामों की तरह रहने को मजबूर है।
आज फ़िलिस्तीनी लोग जॉर्डन, सीरिया, लेबनॉन, मिस्र सहित अनेक अरब देशों में शरणार्थी बनकर जी रहे हैं। जो गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे हैं, उनकी हालत और ज़िंदगी की तकलीफ़ों के बारे में तो सोचना भी मुश्किल है लेकिन शरणार्थियों की समस्याएं भी बहुत होती हैं। उनका साहित्य भी बिल्कुल अलग क़िस्म का होता है और शरणार्थियों के साथ अलग-अलग देश अलग तरीक़े से व्यवहार करते हैं। कभी उनकी क्षेत्रीयता के आधार पर तो कभी उनके धर्म या जाति के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है।
सन 2010 में जब अहमदाबाद के ट्रेड यूनियन नेता आशिम रॉय एक प्रतिनिधि मण्डल लेकर जब गाज़ा गए थे तब तक वे ग़सान कनाफ़ानी का नाम भी नहीं जानते थे लेकिन वहाँ पहुंचकर लोगों से बात करके उन्होंने पाया कि कनाफ़ानी लोगों के दिलों में संघर्ष की याद के तौर पर तो मौजूद है ही, साथ ही वे भविष्य में मुक्ति के स्वप्न की जगमगाहट की तरह ज़िंदा हैं।
अफ़्रीकी मामलों के विद्वान सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर सुबोध मालाकार के अनुसार अफ़्रीका के अनेक देश भी शोषण और दमन के शताब्दियों तक शिकार रहे और उनके भीतर से भी प्रतिरोध का साहित्य निकला। जहां भी दमन होता है, वहां प्रतिरोध और उसे दबाने की कोशिशें भी होती हैं लेकिन प्रतिरोध का साहित्य अपने समय का दस्तावेज होने के साथ ही भविष्य के संघर्ष का हौसला भी देता है। फ़िलिस्तीन में भी दो समूह हैं। हमास गाज़ा में है तो वेस्ट बैंक में फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी का शासन है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमास को ख़ुद इज़रायल ने ही फिलिस्तीनी एकजुटता तोड़ने के लिए साज़िशन बनवाया था। फ़तह एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक संगठन है जबकि हमास एक कट्टरपंथी संगठन है। इसलिए यह भी सोचना चाहिए कि जब फ़िलिस्तीन आज़ाद होगा तो उसके बाद वहां का शासन कैसा होगा।
अर्थशास्त्री जया मेहता के मुताबिक फ़िलिस्तीन की समस्या को साम्राज्यवाद से अलग करके नहीं देखा जा सकता। वहां रहने वाले लोगों को ग़ुलाम या उपनिवेश बनाकर रखा गया है। ये फ़िलिस्तीन की जनता का हक़ है कि वह ख़ुद की आज़ादी की खातिर लड़े। ज़िल्लत की ज़िंदगी से तंग आकर ही फ़िलिस्तीन के लोगों ने फ़ैसलाकुन लड़ाई छेड़ी है। हमास भी चुनाव द्वारा गाज़ा की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है। आज़ादी के बाद जैसी सरकार बनानी होगी, वो फ़िलिस्तीन की जनता देखेगी लेकिन अभी सबसे पहले फ़िलिस्तीन की आज़ादी लड़ाई में हम सबकी एकजुटता होनी चाहिए।
फ़िलिस्तीन को आज़ाद होना चाहिए। वहां रह रहे सभी इंसानों को गरिमा के साथ जीवन जीने का हक़ मिलना चाहिए और ये ख़्वाहिश कभी खत्म नहीं होगी। जब तक ये ख़्वाहिश रहेगी, ग़सान कनाफ़ानी की कहानियाँ और उपन्यास संघर्षों को और सपनों को ताक़त देते रहेंगे।
यह लेख जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़, दिल्ली द्वारा ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के राष्ट्रीय मुख्यालय में 12 जुलाई 2024 की शाम आयोजित ‘ग़सान कनाफ़ानी की याद’ कार्यक्रम में डॉ. निदा आरिफ़ द्वारा दिए गए व्याख्यान और बातचीत पर आधारित है।