महाराणा प्रताप के लिए लोहे को शस्त्र में ढालने वाली औरतें आज भी भटक रही हैं!

ये लोहार मूल रूप से मेवाड़ के थे और शासकों के लिए हथियार बनाते थे! अकबर से हारने के बाद जब महाराणा प्रताप ने अपना राज्य खो दिया, तो लोहारों ने भी खानाबदोशों की तरह जीने की कसम खाई कि जब तक महाराणा प्रताप को उनका राज्य वापस नहीं मिल जाता, वे भटकते रहेंगे।

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‘दुनिया के मजदूरों एक हो’, लेकिन कैसे? भारत में श्रम के परिदृश्य पर एक नज़र

कोरोना से बचाव की हमारी यह कोशिशें हमारी आर्थिक गतिविधियों के स्वरूप में व्यापक और कई क्षेत्रों में तो आमूलचूल परिवर्तन ला रही हैं। नयी कार्य संस्कृति तकनीकी के प्रयोग द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बनाने की वकालत करती है जिसमें ह्यूमन इंटरफेस न्यूनतम हो। ऐसे में तकनीकी का प्रयोग धीरे-धीरे मनुष्य की भूमिका को नगण्य और गौण बना देगा।

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विफल राज्य, मजदूरों के पलायन और तबाही के बीच 150 साल के लेनिन को याद करने के संदर्भ

लेनिन को याद करने का अर्थ सिर्फ मजदूर क्रांति के सपने को साकार करना नहीं है। अपने समाज को समझने का रास्ता भी है। राज्य की प्रकृति समझना है तो लेनिन को जरूर पढ़िए।

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किसानों के मुद्दे पर संविधान सभा की चुप्पी का नतीजा है कि आज दिल्ली के रास्ते इनके लिए बंद हैं!

संविधान सभा में मजदूरों और किसानों के मुद्दों पर बहुत ही कम बात हुई, विशेषकर उन्हें विधान में समाहित करने के मुद्दे पर। 19 अगस्त 1949 को मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे सामान्य सदस्य एस. नागप्पा ने प्रांतीय विधान परिषदों में श्रमिक वर्गों के प्रतिनिधियों को शामिल करने की अपील की। इसे मसौदा समिति की तरफ से डॉ. अंबेडकर ने ठुकरा दिया।

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“हम देश नहीं बिकने देंगे” नारे के साथ 23 जुलाई को मजदूर-किसानों का देशव्यापी हल्लाबोल

छत्तीसगढ़ में सीटू, किसान सभा और आदिवासी एकता महासभा के कार्यकर्ता गांवों, मजदूर बस्तियों और खदान-कारखानों में प्रदर्शन आयोजित करेंगे। इस आंदोलन के लिए किसान सभा ने “देश नहीं बिकने देंगे” को अपना थीम नारा बनाया है।

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भारत में किसान और मजदूर के व्यावहारिक रिश्ते को सही तरीके से समझे जाने की ज़रूरत है

आज देश के कोने-कोने से मजदूर, कामगार, मेहनतकश और तमाम तरह से रोजी-रोटी के इंतजाम में शहरों में आए लोगों का कोरोना महामारी जैसी विषम परिस्थितियां पैदा होने पर गाँव भाग कर जानें के लिए मजबूर होना यह दर्शाता है कि इनका संबंध अभी भी निश्चित रूप से खेती-किसानी और किसान से है और इसलिए अब जरूरी हो जाता है कि उस रिश्ते को सही तरीके से समझा जाए।

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बहुत पहले से तैयार हो रही थी मजदूरों के हित वाले ‘कानून के जंगल’ काटने की ज़मीन!

अपनी संवेदनहीनता के चरम पर जाते हुए कई राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों को खत्म करने के अवसर के रूप में इस संकट का इस्तेमाल किया है

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लॉकडाउन गवाही दे रहा है कि व्यवस्था चलाने वाले मजदूरों की जान कितनी सस्ती है

नाकारा सरकार और अमानवीय प्रशासनिक अमले के लिए मजदूर अब भी सिर्फ एक संख्या ही रहेंगे। इसके बाद भी वह उनके लिए कुछ करने वाले नहीं हैं।

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सीमाएँ खोलना, कुछ रेलगाड़ियाँ शुरू करना भी अपर्याप्त और अर्धसफल!

राज्यों के बीच की सीमाएँ खुलने के बावजूद कई श्रमिक, हर दिन सैकड़ों की तादाद में पैदल ही सीमा पार कर रहे हैं।

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महाबंदी, महामारी, मज़दूर और मुग़ालते

ट्रोजन हॉर्स बनाये कौन? बन भी जाये तो हर खेमे में पलटू राम जैसे कई नेता हैं। फिर ये सारा खर्च उठाये कौन? वो भी तब, जब सारे धन का आभूषण पहने हाथी बैठा इठला रहा है।

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