बहुत पहले से तैयार हो रही थी मजदूरों के हित वाले ‘कानून के जंगल’ काटने की ज़मीन!


एक मई के शिकागो के मजदूर आंदोलन और उससे पहले और बाद में हुए सतत मजदूर अधिकार आंदोलनों के फलस्वरूप दुनिया के श्रमिकों को कई मौलिक अधिकार मिले। इसकी एक कड़ी के तौर पर ही भारत के मजदूरों को भी श्रम कानून अधिनियम 1948के तहत मौलिक और सार्वभौमिक अधिकार प्राप्त हुए जिनको सही मायनों में लागू करवाने के लिए विभिन्न ट्रेड यूनियनों का निरंतर संघर्ष जारी है।

अपने हक को पाने के लिए मजदूरों को लगातार कुर्बानियां देनी पड़ी हैं जबकि मजदूरों का शोषण, उनके श्रम की लूट, श्रम कानून का अवमूल्यन सरकार और कंपनियों के लिए आम बात रही है। आज जब देश वैश्विक महामारी कोरोना से घिरा हुआ है जिसके चलते बड़ी संख्या में मेहनतकश दर-बदर भटकने को मजबूर है, तब इस संकट को अपनी संवेदनहीनता के चरम पर जाते हुए कई राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों को खत्म करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया है जो निंदनीय है।

यह महामारी देश के उद्योगपतियों तथा सरकारों के लिए उनके “कानून के जंगल” को साफ करने के एजेंडे को लागू करने में मदद कर रही है। अखबार में छपी खबरों के मुताबिक दिनांक सात को मध्यप्रदेश की सरकार ने सभी श्रम कानूनों को ताक पर रखते हुए काम के बारह घंटे का कानून बनाया है। राजस्थान सरकार ने काम के 12 घंटे का कानून बनाया जिसमे चार घंटे ओवर टाइम शामिल है (अतिरिक्त काम का दो गुना भुगतान शामिल है)। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो हद ही कर दी और 1948 में बनाए गए कुछ प्रावधानों को छोड़कर तीन साल के लिए सभी श्रम कानूनों को अस्थायी तौर पर सस्पेन्ड करते हुए न्यूनतम काम के बारह घंटे का कानून बना दिया जो उद्योगपतियों की बड़ी कोशिशों के बाद भी संभव नहीं हो पा रहा था।

आज जो देश में मजदूरों की हालत है इसकी पृष्ठभूमि लंबे अरसे से तैयार की जा रही थी। मजदूरों की दिनचर्या से संबंध रखने वाले लोग समझते थे और समझते हैं कि पहले उन्हे जाति और धर्म के नाम पर बांटा गया। जितनी पार्टियां, उतने ट्रेड यूनियनों का गठन कराया गया और फिर जातीय आधार पर मजदूर संगठन बनाए गए। जितनी ही सक्रियता से मजदूरों एवं मजदूर संगठनों के बीच विभाजन की कार्यवाही तेज हुई, उतनी ही तेजी से सरकार और कंपनियों के द्वारा मजदूरों के हकों पर हमले कर छंटनी, वीआरएस, संविदा, अघोषित काम के घंटे बढ़ा देना एवं मजदूरों के विरुद्ध तमाम कार्यवाहियों को अंजाम देने का काम हुआ। ये बंटवारा मजदूरों की ताकत को कमजोर करता गया।

देश की राजनीति में ज्यों-ज्यों जातीय एवं धार्मिक उभार आया मेहनतकश वर्ग को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित किया गया। संसद और असेंबली में जातीय एवं धार्मिक अस्मिता  के नाम पर जन प्रतिनिधि चुन कर जाने लगे। देश में तेजी से निजीकरण का प्रभाव बढ़ने लगा, साथ ही देश के पूंजीपतियों का कब्जा देश की संसद और विधानसभाओं पर साफ दिखने लगा और संसद व असेंबली में मजदूर किसानों के सवालों पर बहस बंद हो गयी। हालात यहां तक पहुंच गये कि व्यवस्था ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का सहारा लेकर साजिश के तहत मजदूरों का पलायन कराया। उन्हें पुरबिया, बिहारी और भइया जैसे नामों से नवाजा ताकि उनके अंदर हीन भावना पैदा हो और क्षेत्रीयता के नाम पर बंटवारा किया गया ताकि उनके हकों को हड़पा जा सके और हड़पा भी गया।

एक ओर पूंजीपति वर्ग के अंदर मुनाफा एवं श्रम के लूट की भूख तेजी से बढ रही थी जबकि सरकारें मजदूरों किसानों के हितों को नजरंदाज कर पूंजीपतियों के मुनाफे की चिंता मे लग गयीं। अब तो सरकारें बनाने बिगाड़ने का काम कंपनियां ही कर रही हैं। देश के प्रधानमंत्री खुले मंचों से श्रम कानूनों को “कानून का जंगल” कहकर खत्म करने की बात करने लगे। देश की सभी ट्रेड यूनियनें, विपक्षी राजनैतिक दल एवं देश के मेहनतकश मजदूरों एवं समाज के वे सभी जनसंगठन जो मेहनतकश मजदूरों के हिमायती थे या हैं, उन्हें आभास हो चुका था कि प्रधानमंत्री के खुले मंच से इस तरह की घोषणा के क्या मायने हैं। यह जल्द ही दिखने भी लगा। श्रम कानूनों में तमाम संशोधन किये जाने लगे तथा जहां संशोधन नहीं हो सका वहां अवमूल्यन होता गया।

मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद एक राजनैतिक विशेषज्ञ द्वारा यह चिंता जतायी गयी थी कि अब राज्यसभा में बहुमत हो जाने के बाद भूमि अधिग्रहण संशोधित कानून 2013 एवं श्रम कानून मे संशोधन होना तय है। भूमि अधिग्रहण 2013 के संशोधन के बाद कंपनियों के लिए जमीन लेना आसान हो जाएगा, वहीं श्रम कानून को संशोधित कर उसमें दिए गए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों को खत्म करने के साथ हायर एण्ड फायर जैसे नियमों का प्रावधान कर मजदूरों की श्रम की लूट आसान हो जाएगी और इस तरफ लगातार कोशिश जारी रहीं। दूसरी तरफ देश के मजदूरों, मजदूर संगठनों, किसानों एवं किसान संगठनों द्वारा लगातार देशव्यापी प्रतिरोध भी जारी रहा जिसके कारण कंपनियों की मंशा के अनुरूप चाह कर भी सरकार कानून बनाने मे असफल रही।

आज के हालात के लिए पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर ली गयी थी। लॉकडाउन से पहले ही मजदूरों के स्वैच्छिक स्थान पर जाने के उपाय हो सकते थे। यदि वे चले गए होते तो जो अफरातफरी के हालात डेढ़ महीने में पैदा हुए वे नहीं होते। लॉकडाउन घोषित होने के बाद अचानक इन मजदूरों को सरकारी तंत्र, कॉर्पोरेट मीडिया एवं राज्य सरकारों एवं शहरी मिडिल क्लास द्वारा माइग्रेंट या प्रवासी घोषित किया जाना या इन शब्दों से नवाज़ दिया जाना स्तब्ध कर देता है। भारतीय संविधान के मुताबिक सभी लोग भारत के नागरिक हैं न कि किसी राज्य या क्षेत्र विशेष के, इसलिए हर किसी को देश में कहीं भी किसी को भी काम करने या बसने की आजादी है। इसलिए कोई भी अपने ही देश में प्रवासी नहीं हो सकता और यदि ऐसा कहा गया है या कहा जा रहा है तो निश्चित ही कहने वालों के अपने निजी हित हैं और मजदूरों के खिलाफ साजिश है। इससे मजदूरों के अधिकार कमजोर होते हैं और उनकी लड़ाई कमजोर होती है।

जब ये नैरेटिव तैयार किया जा रहा था तो साफ-साफ दिखने लगा था कि या जो आशंका थी, वो कर्नाटक की सरकार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश या राजस्थान व गुजरात की सरकारों ने साबित कर दिया और आगे अन्य सरकारों द्वारा ऐसा किये जाने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

कर्नाटक की सरकार ने सिर्फ लॉकडाउन में फसे मजदूरों को वापस ले जाने के लिए वहां के बिल्डरों के दबाव में श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को निरस्त कर दिया। यह अनायास नहीं था। लॉकडाउन के दौरान देश के कोने-कोने में मजदूरों की बदहाली एवं उनकी दिनचर्या के बारे में पूरा देश देख रहा है। मजदूरों की बदहाली की खबरें आने के बाद राज्य सरकारों की चिंताएं इसलिए भी बढ़ गयी थीं क्योंकि स्थानीय स्तर पर फंसे मजदूरों के परिवारों का विरोध स्थानीय  प्रतिनिधियों को झेलना पड़ रहा था। इस चिंता के कारण बाहर से मजदूरों को घर बुलाने के लिए सरकारें जुगाड़ में लग गयीं। वहीं डेढ़ महीने से ट्रेड सेंटरों पर फंसे मजदूरों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति एवं भुखमरी उन्हें बेचैन किये हुए है लेकिन एक तरफ देश की कंपनियों एवं केंद्र सरकार और राज्य की सरकारों की चिंता ये है कि जिन ट्रेड सेंटरों पर मजदूर काम करते थे यदि वापस चले गए और कार्य की पुनः शुरुआत करनी होगी तो मजदूर वापस जल्दी नहीं आ सकेंगे इसलिए उन्हें भेजना मुश्किल हो रहा है।

हमने पहले भी अपने कई लेखों में इस बात का जिक्र किया है कि मंदी हो या महामारी, इससे दुनिया में कई तरह के बदलाव देखे जाते हैं जिसका मेहनतकश मजदूर गरीब एवं किसान को ही बड़ा ख़मियाजा भुगतना पड़ता है। यह तय हो गया कि लॉकडाउन के दौरान या महामारी की वजह से अर्थव्यवस्था को जो क्षति पहुंचेगी तथा कंपनियों का जो आर्थिक नुकसान होगा तथा खाए अघाए समाज को जो दुख तकलीफ पहुंची होगी तथा कॉर्पोरेट मीडिया जो कंपनी के रूप मे काम कर रही है उन सबकी भरपाई कानून बनाकर मेहनतकश मजदूरों के श्रम की लूट से की जाएगी।

जब मजदूरों के साथ ये सारी घटनाएं घट रही थी तब जाति-धार्मिक, अगड़े-पिछड़े के नाम पर सामाजिक बंटवारे की राजनीति करने वाले लोगों ने किसी किस्म का विरोध दर्ज नहीं कराया बल्कि सरकारों में शामिल होकर इन मजदूरों के शोषण के हथियार के रूप में काम कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं। देश में मजदूरों के साथ जो हो रहा था या हो रहा है, कानून बनाकर उनके अधिकार छीने गए हैं और उनके श्रम की लूट का मार्ग प्रशस्त किया गया है तब जाति और धर्म की राजनीति पर सामाजिक बंटवारा करने वाले लोग क्या  बता सकते हैं कि देश के कोने-कोने में जो मजदूर यातनाएं सह रहे हैं और उनके साथ जैसा व्यवहार हो रहा है क्या उन मजदूरों में उनके जाति धर्म के लोग नहीं हैं? क्या उन मजदूरों में ब्राह्मण, पिछड़े, दलित, मुसलमान नहीं हैं जो सामाजिक बंटवारे की राजनीति करने वाले लोग उन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं?

जवाब जाहिर है कि रोटी का सवाल कभी इस राजनीति के केंद्र में नहीं रहा है और संकट की इस घड़ी में मजदूरों की जाति और धर्म आधारित पहचान अर्थहीन है। मुझे पूरा भरोसा है कि उन मजदूरों में देश के कोने-कोने से सभी गावों के सभी जाति धर्मों के परिवारों से नौजवान शामिल हैं जिनकी पहचान अब सिर्फ और सिर्फ मजदूर की है जिन्हें समय-समय पर अन्यान्य नामों से गालियों के रूप  मे उनकी पहचान दी जाती रही है और उनके श्रम की लूट की जाती रही है। यह लूट आपकी ही है। अब मजदूरों का अपना हक पाने की सिर्फ एक ही शर्त है और वो मजदूर के रूप में पहचान और उसकी अपनी एका। 


लेखक किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं


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