‘पाताल लोक’ की बुनियादी स्थापना एक अतिकथन (AGGRANDISEMENT) है यानी ज़्यादा एकपक्षीय ढंग से कहा गया है कि “जो कुत्तों से प्यार करता है वो अच्छा इंसान है और जिनसे कुत्ते प्यार करते हैं वो अच्छा इंसान है”। इस कथन की, केंद्रीय न भी कहें लेकिन बहुत बड़ी भूमिका इस सीरीज की कहानी में है जिसके बिना कहानी न तो आगे ही बढ़ती और न वह उस निष्कर्ष पर पहुँचती जहां उसे पहुँचाने का जतन किया गया।
इस अतिकथन के अलावा कहानी में एक और अतिकथन है जो किसी पात्र से कहलवाया तो नहीं गया लेकिन सीरीज बनाने की लागत से लेकर, सीरीज के स्पोंसर्स, निर्देशक, निर्माता आदि ने निवेश किया है। यह अतिकथन पूरी सीरीज में मूल विषय वस्तु और अंतरधारा के तौर पर मौजूद है। कहना चाहिए कि इसकी भरपूर व्याप्ति है। पूरे मनोयोग से अगर आप सीरीज देख चुके हैं तो यह भी लग सकता है कि यह जो दूसरा अतिकथन है वह इस सीरीज के बनाने का मकसद जैसा भी है। इसे आप चाहें तो सीरीज का प्राप्य कह सकते हैं।
तो पहले, दूसरे वाले अतिकथन पर चर्चा की जाये…
मूल वस्तु, बड़े स्टार्स, कंटेन्ट, निवेश आदि से निर्मित किए गए इस अतिकथन को हिन्दी के बड़े कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ की एक बहुत छोटी सी कविता की सामयिक व्याख्या से समझा जा सकता है। अज्ञेय की मूल कविता है- “साँप/तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगरों में बसना/ तुम्हें नहीं आया/ एक बात पूछूं/ ये डसना कहाँ से सीखा/ ये विष कहाँ से पाया?”
पाताललोक नाम की इस सीरीज में राजनैतिक दलों, मीडिया, पुलिस, पूँजीपतियों, देश की शीर्ष जांच एजेंसियों, दलालों और स्थानीय गुंडों, हत्यारों, अपराधियों और डाकुओं आदि के मजबूत नेक्सस (दुरभिसंधी) की गिरफ्त में राष्ट्रीय राजनीति के उन तमाम पक्षों को जनता के सामने लाया गया है जिनके बारे में ‘कौन नहीं जानता वाला’ आत्मविश्वास तो आवाम के मन में है लेकिन ‘इतना नहीं जानते थे’ वाला भाव इस सीरीज को देखकर पैदा होता है।
अज्ञेय की कविता को इस सीरीज में समझने की ज़रूरत वहाँ आती है जब इन दुरभिसंधियों की सबसे कमजोर लेकिन सबसे ज़रूरी कड़ी यानी स्थानीय डाकू या हत्यारों की भूमिका पर बात होती है। विशाल उर्फ हथौड़ा त्यागी (अभिषेक बनर्जी) एक कतई स्थानीय डाकू का तैयार किया हुआ हत्यारा है जिसकी सेवाएँ अब राजनीति के काम के लिए मुहैया कराई जाने लगी हैं। उसका कुल काम इतना ही है कि उससे जिसकी भी हत्या करने को कहा जाए (मुंबइया फिल्मों से शब्द उधार लें तो सुपारी दी जाये) वो बिना सवाल पूछे उसकी बेरहमी से हत्या कर दे। इसके बदले उसे कुछ नहीं चाहिए। इस मामले में उसके गुरुजी सब देख लेते हैं।
अब इस हथौड़ा त्यागी से प्रतिस्पर्द्धा के कारण उसे रास्ते से हटाने के लिए एक बड़ी साजिश चित्रकूट नाम के कस्बे में रची जाती है जिसमें दिल्ली, पंजाब, बंगाल, नार्थ ईस्ट, राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ, दिल्ली के पुलिस कमिश्नर, सीबीआई जैसी जांच एजेंसी, पाकिस्तान, आतंकवाद, दलित राजनीति और लगभग सारे मौजूदा विमर्श शामिल हो जाते हैं। दूर की कौड़ी ये है कि ये साजिश विधायकी के चुनाव में महज किसी की जीत सुनिश्चित करने के लिए रची जा रही है।
इतनी फुल प्रूफ साजिश जिसके ट्रैप में सभी फँसते हुए नज़र आ रहे हैं वो अनपढ़ और जाहिल कहे जाने वाले डाकू या उनके बल पर चुनाव जीतने का सपना पाल रहे एक विधायक पद के प्रत्याशी द्वारा रची जा रही है।
आज की पीढ़ी के ‘गूगल के मानसपुत्रों’ को भले ही यह सब ‘कूल’ या ‘रोमांटिक’ लगे पर हम जैसे देहात से वाकिफ लोगों को अपनी स्थानीयताओं की सीमाएं भी पता हैं और शहरों व महानगरों की अभेद्य चतुराइयाँ भी। इसलिए अज्ञेय की कविता को दोहराने की ज़रूरत है और नितांत अभिधा में यह पूछना ज़रूरी है कि तुम सभ्य तो हुए नहीं /शहरों में बसना भी तुम्हें नहीं आया/ ये डसना कहाँ से सीखा/ ये विष कहाँ से पाया???
इसलिए कुत्ते को प्यार करने या कुत्ते का इंसान को प्यार करने से इंसान के अच्छे बुरे होने का आकलन करने जितना ही एकांगी यह अतिकथन भी है कि ये तमाम साज़िशें बीहड़ों में छिपे दस्युओं ने रची हैं। इससे दस्युओं के विलुप्तप्राय पेशे पर आप तोहमत तो आसानी से लगा सकते हैं और शहरों में बसे, सेन्सेक्स की तरह नित नयी ऊँचाइयाँ छूते सरमायेदारों के दीर्घकालीन प्लान में शामिल दुनिया के विशिष्ट संस्थानों में प्रशिक्षित लोगों को दोषमुक्त नहीं कर सकते।
बात दस्युओं या बागियों की हो तो पान सिंह तोमर में ‘इरफान’ के बोले उन अमर शब्दों को ज़रूर ज़हन में रखना चाहिए कि ‘डाकू तो संसद में बैठते हैं, बीहड़ों में बाग़ी रहते हैं’।
बाग़ियों के सर ऐसी साज़िशों को मढ़ देना कतई आसान तो है और नयी पीढ़ी को यह बता पाना भी आसान है कि बाग़ी कितने खतरनाक होते थे। न केवल सामने से लड़ाई में और बेरहमी में बल्कि दिमाग से भी। सत्ता के गढ़ को, सुपर स्टार मीडिया घरानों को, पुलिस को, सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली जांच एजेंसियों को और इक्कीसवीं सदी की सूचना प्रौद्योगिकी से लैस दर्शकों को भी ये बीहड़ में छिपे डाकू अपने दिमाग से चला रहे थे।
संभव है आने वाले बीस साल के बाद जब देश दस्यु-रहित हो जाएगा और गाँव से प्रत्यक्ष राब्ता रखने वाले लोग अल्पमत में आ जाएँगे, तब की पीढ़ी इसी बात पर यकीन कर ले पर अभी दो तीन पीढ़ियों और शहरों व गांवों के बीच की मानसिक बुनावट के इस संक्रमण-काल में यह सीरीज बिना किन्तु-परंतु के गले नहीं उतरती।
थोड़ा ठहरकर यह सोचने की भी ज़रूरत है कि कहीं सीरीज का उद्देश्य भी तो यही नहीं था कि षडयंत्रों से ही रची गयी इस उत्तर-आधुनिक दुनिया की सड़ांध के लिए महानगरों से बाहर एक कोई कूड़ा घर तलाश लिया जाये? बहरहाल…
शहरों और महानगरों में पैदा हो रहे कचरे का निष्पादन वाकई एक बड़ी चुनौती तो बनता जा रहा है। दिल्ली में ही कचरे के चार पहाड़ हैं जिनकी औसत ऊंचाई ताजमहल से ऊँची हो चुकी है। हर रोज़ दस हज़ार पाँच सौ मैट्रिक टन कचरा केवल दिल्ली में ही पैदा हो रहा है।
आधुनिक महानगरों ने सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर जो भी उल्लेखनीय पैदा किया है उसमें कचरा एक बड़ा उत्पाद है। महानगरों ने ढेर कचरा पैदा किया है जो आधुनिक उपभोक्तवाद के अपशिष्ट हैं। हर महानगर अपने इस अपशिष्ट को ठिकाने लगाने के लिए नगर से बाहर ज़मीन खोज रहे हैं, कतिपय बड़े शहर भी ऐसा ही कर रहे हैं। उस पर तुर्रा ये भी है कि गांवों से महानगरों में लोग, झुग्गियों में रहने वाले लोग, सड़क किनारे सोने वाले लोग कचरा पैदा करते हैं बल्कि कई बार तो उन्हें ही कचरा कह दिये जाने का चलन है।
इसकी एक शुरुआती झलक इंस्पेक्टर हाथी सिंह चौधरी (जयदीप अहलावत) दुनिया का तवारूफ़ करते हुए देते हैं- ये जो दुनिया है न, ये एक नहीं तीन दुनिया है। सबसे ऊपर स्वर्ग लोक। जिसमें देवता रहते हैं। बीच में धरती लोक। जिसमें आदमी रहते हैं। और सबसे नीचे पाताल लोक। जिसमें कीड़े रहते हैं। वैसे तो ये शास्त्रों में लिखा हुआ है लेकिन मैंने वट्सऐप पे पढ़ा था।
अपने थाने की लोकेशन को वो तीसरी श्रेणी में रखते हैं। कीड़े मकोड़े कचरे में ही रहते हैं ये तथ्य है, बस मुझे इसमें ये जोड़ना है कि ये कीड़े उस कचरे से पैदा होते हैं जो महानगरों ने पूंजी, राजनीति और मीडिया के गठजोड़ से पैदा किया है और अनवरत करते जा रहे हैं।
इस सीरीज में ‘लिटरली’ साज़िशों, षडयंत्रों, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धाओं, आवारा पूंजी से पैदा हुई विद्रूपताओं को और अमानवीयताओं को चित्रकूट नाम के कस्बेनुमा जिले में ठेला गया है। एक ऐसा तिलिस्म रचा गया है जहां दुनलिया नाम का डाकू देश का राजनैतिक परिवेश रचने लगता है। हालांकि पूरी सीरीज में इस डाकू का चेहरा नहीं दिखाया गया है इसलिए इसे थोड़ी देर के लिए आप कला की संभाव्यताओं और अर्थों पर दर्शकों के अख़्तियार की गुंजाइश देना मान सकते हैं जिसे प्राय: रचना के अच्छे मानक की तरह देखा जाता है। लेकिन चेहराविहीन दुनलिया का एक भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश तो है ही और जो एक छोटा कस्बा चित्रकूट और उसके आसपास का बीहड़ है।
हिंदुस्तान की राजनीति में नेता, व्यापारी और अपराधी का एक महीन गठबंधन हमेशा से रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में विकास दुबे के बुलंद हौसलों और राज्य सरकार व मीडिया की चुप्पी ने इस नापाक गठबंधन (हिन्दी में अच्छा शब्द है दुरभिसंधि लेकिन इस शब्द को लेकर कम से कम मुझे 100 में से 98 पाठकों ने कहा कि बहुत कठिन भाषा लिखते हैं गो ये वही पाठक हैं जो शशि थरूर की भाषा समझने के लिए तीन-तीन डिक्शनरी खोलने की ज़हमत खुशी से उठाते हैं) को विमर्श में ला दिया है। ‘राजनीति का अपराधीकरण’ और ‘अपराध का राजनैतिकरण’ जैसे विषयों पर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में सन 2000 तक निबंध लिखवाये गये हैं। उसके बाद इस पर बौद्धिक विमर्श बंद हो गया क्योंकि अब यह विषय नहीं बल्कि अद्वैत की अवधारणा की साध्यवस्था को प्राप्त कर चुका है। बहरहाल।
पहले अतिकथन पर कुछ चर्चा
अब आते हैं पहले वाले अतिकथन पर जिस पर हथौड़ा त्यागी को इसलिए पूरा भरोसा है क्योंकि वो उसके गुरूजी यानी दुनलिया ने उससे कहे हैं। दुनलिया को लेकर हथौड़ा के मन में बहुत सम्मान है।
ये सम्मान क्यों है? इसके बारे में इस सीरीज में बहुत बताया नहीं गया है। संभव है कि दुनलिया की कथा भी उसके बागी हो जाने की कथा हो पान सिंह तोमर की तरह या फूलन देवी की तरह। यूँ तो विशाल त्यागी की कथा भी उसकी बहिनों के साथ हुई नाइंसाफी, मौजूदा कानून से न्याय को लेकर पैदा हुई नाउम्मीदी, मानवीय आक्रोश और गुस्से से प्रेरित बदले की बर्बर कार्यवाही के तहत अपने तीन चचेरे भाइयों की दुर्दांत हत्या कर देने से बनती है। अब तक की कार्यवाही में कोई साजिश और लुका-छिपी नहीं है बल्कि सीधे-सीधे अन्याय का बदला लेने की कार्यवाही है। अगर उसे गुरुजी का सान्निध्य नहीं मिला होता तो संभव है कि वो उनके समानान्तर खुद भी एक बागी बनता। फूलन देवी को इतिहास जिस तरह याद करता है उस तरह शायद विशाल त्यागी को भी किया जाता।
जिस बुंदेलखंड-बघेलखंड के क्षेत्रीय इलाकों की यह पृष्ठभूमि है वहाँ त्याग, बदले, और शौर्य को ऐतिहासिक मान्यता और ऊंचा दर्जा प्राप्त है। संभव है बहिनों के साथ हुई बेइज्जती के खिलाफ विशाल त्यागी को वहाँ के स्थानीय देवता लाला हरदौल जैसी भावनात्मक छवि भी मिल जाती। जिसने अपनी भाभी के चरित्र को बेदाग साबित करने के लिए उन्हीं के हाथों ज़हर का प्याला पी लिया था। इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक संदर्भ लेना चाहें तो ओरछा में लाला हरदौल का मंदिर देख आवें और अगर इस ऐतिहासिक चरित्र की सांस्कृतिक अनूगूंज सुनना चाहें तो इन इलाकों में जाकर बेटियों की शादियों में शरीक हो जावें जहां हरदौल बेटी के मामा बनकर आते हैं। उनके गीत गाये जाते हैं। आमतौर पर बेटी की मां और मामा के भावनात्मक उद्गारों को संभालना मुश्किल सा हो जाता है। मान्यता है कि लाला हरदौल बेटियों की शादियों में पहुँचते ज़रूर हैं और उनके पहुँचने के बाद किसी चीज़ की कोई कमी नहीं रहती। खैर।
तो विशाल त्यागी को अपराधी न मानना उसकी कार्यवाहियों को न्यायोचित करार देना, उसके धैर्य की, समर्पण की कड़ी परीक्षा लेना गुरूजी को विशाल त्यागी की नज़रों में सम्मान का हक़दार बनाता है। जो इस सीरीज में कहीं नहीं गयी वो बात ये है कि विशाल त्यागी को गुरुजी से वह भरोसा मिलता है कि तूने जो किया वो ठीक किया। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरूजी भी ऐसी ही किसी घटना से इस रूप में पैदा हुए थे। डाकू, बागी भी प्राय: द्विज ही होते हैं यानि वो दो बार जन्मते हैं। ब्राह्मणों की तरह हर बार जन्मने का सौभाग्य उनके हिस्से नहीं है बल्कि उनका दुबारा जन्म होना अपमान, पीड़ा और उत्पीड़न से उपजी परिस्थियों में ही होता है। बहरहाल।
तो विशाल उर्फ हथौड़ा त्यागी गुरुजी की इस बात पर दृढ़ भरोसा करता है कि वो इंसान अच्छा होता है जो कुत्तों को प्यार करता है और वो इंसान भी अच्छा होता है जिसे कुत्ते प्यार करते हैं। इस बात को त्यागी ने उसूल की तरह माना है कहानी में। इसलिए भी वो महज़ अपराधी की तरह नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि एक बागी की तरह ही उसे समझना चाहिए जिसके कुछ उसूल हैं। और शायद उसके इन्हीं उसूलों को ध्यान में रखते हुए उसके अन्य साथी उसे अपना प्रतिद्वंद्वी मानने लगते हैं, हालांकि उसका इस्तेमाल एक बड़े नाटक को रचने में किया जाता है।
क्या होता अगर उस दिन पत्रकार संजीव मेहरा (नीरज कवि) ठीक उस वक़्त कुत्ते को सहलाते हुए इसको दिखलाई नहीं देता जब इसकी गाड़ी उनके सामने खड़ी थी? ज़ाहिर सी बात, ये गोली या हथौड़ा मार देता। और ऐसा करते हुए वह पुलिस द्वारा मार दिया जाता जो उसकी हर हरकत पर नज़र रखे हुए थी। ऊपर से देखने पर लग सकता है कि एक कुत्ते ने एंकर की जान बचा ली? लेकिन बाकी कहानी तो बताती है कि असल में एंकर को कुत्ते से कोई प्यार-व्यार है नहीं बल्कि वो कुत्ते को सहलाते हुए अपनी पत्नी डॉली (स्वस्तिका मुखर्जी) से पीछा छुड़ा रहा होता है। तो इस आधार पर भी यह आप्तवाक्य जो इस सीरीज की मूल वस्तु बन जाता है, बहुत खोखला है और इसे ये कहना चाहिए कि कोई मनुष्य अगर कुत्ते को किसी भी कारण से सहला लेता है तो उसे एक हत्यारा जो खुद कुत्तों से प्यार करता उसे कुछ देर के लिए हत्या करने से रोक सकता है।
सीरीज के अंत तक आते तक जो विशाल त्यागी इस वाक्य को शिद्दत से मानता है वह भी पूरी कहानी का लाचार मोहरा ही साबित हो जाता है। दर्शकों को उससे हमदर्दी-सी हो जाती है। वह दुर्दांत अपराधी है लेकिन उसके गुरू जी का सबसे करीबी ग्वाला गुज्जर (राजेश शर्मा) भी सीरीज के अंत तक उसकी निष्ठा के प्रति कायल हो जाता है जो वास्तव में उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी बताया गया। सीरीज का लगभग अंतिम दृश्य जब हाथी सिंह उसको ग्वाला गुज्जर का दिया हुआ गुरूजी का रुद्राक्ष देता है और उसके बाद वह जिस तरह अपना आपा खोता है और अंतत: खुद को गोली मर लेता है, दर्शकों की स्मृतियों में लंबे समय बना रहेगा। इस एक दृश्य में उसकी निष्ठा, उसकी प्रेरणा और गुरुजी के प्रति समर्पण का ऐसा सघन भाव है जिसकी गहराई को देर तक महसूस किया जा सकता है। शायद यही वह दृश्य भी है जब दर्शकों की सहानुभूति और हमदर्दी उस बेदर्द क़ातिल और संवेदनहीन अपराधी की जानिब होने लगती हैं और दर्शकों को यह भी अनुभव होता है कि ये बंदा इतना भी बुरा नहीं है। इस दृश्य के बाद वह उसकी पूरी ज़िंदगी को रिवाइंड करके देखता है।
हाल ही में विकास दुबे से पूरी कटुता रखते हुए भी समाज के बड़े तबके ने उसके एनकाउंटर पर गंभीर सवाल उठाए हैं। जब सवाल सत्ता से हो तो समझा जाना चाहिए कि विकास के प्रति मुखर समर्थन न भी हो पर एक बड़े तबके ने यह महसूस तो किया ही है कि इस तरह किसी अपराधी का पक्ष सामने आए बगैर, न्याय की न्यूनतम प्रक्रिया का पालन किए बगैर किसी अपराधी तक को मार गिराना उचित नहीं है।
जिस दृश्य का ज़िक्र यहाँ किया जा रहा है वहाँ विशाल त्यागी के हाथ में पिस्टल होती है, सामने हाथी सिंह भी है लेकिन वह हाथी सिंह को गोली नहीं मारता बल्कि खुद को मारता है। और ऐसा इसलिए क्योंकि उसे रुद्राक्ष मिलने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरूजी अब नहीं रहे और जैसा उसका भी जीने का मकसद पूरा हुआ। इस दृश्य तक आते-आते वह महज़ एक मोहरा या शतरंज की बड़ी बिसात का एक अदद प्यादा साबित हो जाता है और जैसे उसे यह एहसास होता है कि उसकी गुरुजी के प्रति निष्ठा का जबर्दस्त दोहन हुआ है, उसे अंधेरे में रखा गया है और वह अपने जीने का मकसद पूरा कर चुका है। एक बागी का जीवन एक प्यादे की तरह पिट जाता है जो महज़ राजा की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी देता है। विशाल त्यागी की कुर्बानी दी जा चुकी होती है, महज़ उसका मरना बाकी रह जाता है। विकास दुबे को सशरीर कुर्बानी देना पड़ी एक ही बार में।
मौजूदा राजनैतिक वास्तविकताओं और इस सीरीज की काल्पनिक कहानी में एक साम्य यह भी है कि दोनों में ही कानून और न्याय व्यवस्था का घनघोर अभाव है। हिन्दी के सी ग्रेड सिनेमा का साम्य विकास दुबे की परिघटना के ज़्यादा करीब है। पाताललोक में फिर भी सस्पेंस है, थ्रिल है और रोमांच है। हत्याओं का सहज पूर्वानुमान जब लगाया जाने लगे और वाकई वो हत्याएं ठीक उसी तरह होने लगें तो समझना चाहिए कि हम वो सिनेमा देख रहे हैं जिसे संस्कारी लोग परिवार के साथ बैठकर नहीं देखते। उस सिनेमा के मैटिनी शो की टिकटें नहीं खरीदते। आज की परिस्थितियों को परिवार के सामने घटित होते देखना पाताललोक देखने से ज़्यादा चुनौती भरा है।
विशाल त्यागी का इलाका: 2005 से 2011 तक जो मैंने देखा-सुना
अब थोड़ा उस इलाके की पृष्ठभूमि की वास्तविकताओं की तरफ रुख किया जाये जिसे इस सीरीज के केंद्र में रखा गया है। यानी चित्रकूट।
चित्रकूट मध्य प्रदेश का एक जिला है। इसके पड़ोस में कर्वी धाम है जिस नाम से रेलवे स्टेशन भी है। कर्वी धाम उत्तर प्रदेश में है। यह दो राज्यों का सीमांत क्षेत्र है। क्षेत्रीयता के हिसाब से इसे बघेलखंड के नाम से जाना जाता है। यह इलाका सफ़ेद शेरों के लिए कभी विख्यात रहा है जिसका कुल निष्कर्ष है कि यहाँ घने प्राकृतिक जंगल रहे हैं। इस क्षेत्र के नेताओं को भक्ति के प्रभाव में सफ़ेद शेर कहने का चलन भी रहा है।
लंबे समय तक यह जंगली इलाका दस्यु गिरहों के लिए सुरक्षित स्थान बना रहा क्योंकि यह दो राज्यों का सीमांत रहा। पुलिस के सामने ये दस्यु दस फीट की दूरी पर खड़े होकर यह बताते रहे कि अब तुम हमें नहीं पकड़ सकते क्योंकि हम मध्य प्रदेश की ज़मीन पर खड़े हैं। यहाँ से उत्तर प्रदेश का अधिकार क्षेत्र खत्म हो जाता है। ऐसे ही कहानी मध्य प्रदेश के साथ दोहराई जाती रही। किंवदंतियों में भी ऐसी कोई चर्चा नहीं है कि दोनों प्रदेशों की पुलिस ने कोई संयुक्त अभियान इन्हें पकड़ने के लिए चलाया हो। जैसा कि अभी विकास दुबे के मामले में हो रहा है उसकी संपत्ति नष्ट कर दी गयी क्योंकि उसे पकड़ा नहीं जा सका। ठीक इसी तर्ज़ पर पुलिस ने उन जंगलों, जंगलों में बसे आदिवासियों के खिलाफ कार्रवाई की क्योंकि डाकू यहाँ आए थे और यहाँ से भाग गए। सारा कसूर इस घटनास्थल है।
ददुआ और ठोकिया नाम के दो डाकुओं के किस्से व्यक्तिगत तौर पर मैंने 2005 से 2011 तक सुने हैं। उन इलाकों में सघन भ्रमण किया है। दलित नेता को जिताने के लिए डाकुओं की अपील का ज़िक्र जो इस सीरीज में किया गया है, वो अर्धसत्य के तौर पर प्रामाणिक लगता है क्योंकि एक बार ठोकिया गैंग के नाम से यह पर्चा मैंने गांवों में चिपका हुआ देखा है जिसका नारा था- मुहर लगेगी हाथी पै, नईं तो गोली छाती पै। बसपा को उस चुनाव में इसका फायदा मिला था। हालांकि लोगों ने तब यह भी बताया था कि ठोकिया गैंग के लोगों ने यह भी कहा कि ऐसे कोई पोस्टर उन्होंने नहीं बनाए। सच जो भी हो पर एक कालखंड विशेष को इस सीरीज ने तवज्जो दी।
यह इलाका जितना सफ़ेद बाघों के लिए जाना जाता है उतना ही बेशर्म और क्रूर सामंतशाही के लिए भी। बेटों की पैदाइश बाप की ‘झोली’ कहलाती है। अगर किसी के यहाँ चार बेटे हैं तो वो चार झोलियों का मालिक है जिसका सीधा सा मतलब बेटों को मिलने वाला दहेज।
इन इलाकों में बसे आदिवासियों की हालत बेइंतिहा ढंग से खराब है। मवासी, कोल और गोंड जनजाति के सैकड़ों परिवार दांतों के बीच जीभ की तरह रहते हैं। 2008-09 तक जो स्थितियाँ मैंने खुद देखीं और इन समुदायों के लोगों से सुनीं उनके लिए लोमहर्षक कहना मुनासिब है। अगर किसी मवासी के घर के सामने तथाकथित ऊंची जाति के व्यक्ति के जूते रखे हैं तो इसका मतलब उस आदिवासी पुरुष के लिए यह है कि अभी घर के अंदर जाना वर्जित है। अंदर क्या हो रहा है उसे पता है।
प्राय: आदिवासी महिलाएं जंगल से सूखी लकड़ी लाकर गाँव में या ट्रेन से मार्फत चित्रकूट ले जाती हैं। उनसे लकड़ियों के मोल भाव की आम भाषा यही है कि लकड़ी के गट्ठे की कीमत मय अपने बताओ।
जंगल के पेड़ों पर अगर किसी बड़ी जात के व्यक्ति ने अपना कपड़ा बांध दिया तो उसका संदेश है कि ये आदिवासी उस पेड़ से फल नहीं चुनेंगे।
किस्से और वाकये और भी हैं पर सामंतवाद के घनत्व को समझने के लिए ये वाकये काफी कुछ बताते हैं। इसी इलाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के संस्थापक नेता और समाज सुधारक नानाजी भाई देशमुख की लंबे समय तक धमक रही। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से गहरी पैठ इन निर्बल आदिवासियों के बीच बनाई। आदिवासी घरों में तुलसीघर होने का पहला वाकया हमने यहीं देखा है।
अगर हिन्दुत्व की लेबरोटरी की तरह इस इलाके को देखा जाए तो कुछ हद तक हम यह कह भी सकते हैं कि आज की हिन्दुत्व की राजनीति का ठोस और अविवादित आधार यह इलाका रहा है। और अगर इतनी बड़ी साज़िशों को लेकर कुछ अटकलें लगाना भी हैं तो उसके लिए बीहड़ों से ज़्यादा पुख्ता प्लॉट कहीं और हैं। दस्युओं ने कभी शोध संस्थान को चुनौती नहीं दी। दलित राजनीति का भी उभार यहाँ कभी नहीं रहा क्योंकि चित्रकूट एक ‘पवित्र नगरी’ हैं जहां राम ने वनवास बिताया। जहां पंचवटी है। जहां चारू चन्द्र की चंचल किरणें क्रीड़ाएं करती रही हैं, जहां राम अपने भ्राता को जीवन के पाठ पढ़ाते रहते हैं। ‘वर्षा विगत शरद ऋतु आई, फूले कस सकल महि छाई’ के वर्णन तुलसीदास ने यहीं के मौसम के लिए किए थे।
इस नगरी की पवित्रता को बनाए रखने के लिए मध्य प्रदेश की हर सरकार पार्टी हितों से ऊपर उठकर अपने वार्षिक बजट में राम के पद चिन्ह तलाशने की योजना पेश करती आ रही हैं। अब यही रोग छत्तीसगढ़ की सरकार को लग गया है। उन्हें इल्हाम हुआ कि राम का ननिहाल तो छत्तीसगढ़ में है, हो न हो एकाध बार राम यहाँ भी आए ही होंगे, तो चलो उनके पद चिन्ह तलाश कर लिए जाएँ। विपदाएं दूर होंगी। तो लबबओलुआब यह कि यहाँ राम के रहते दलित राजनीति कभी उभर नहीं पायी। अन्याय के प्रतिकार में दस्युओं ने जन्म ज़रूर लिया पर राजकीय संरक्षण जैसी किसी शर्त के आगे नतमस्तक होकर वो ताकतवर गिरोह भी अंतत: नतमस्तक रहे और प्रतिकार की भावना का अवसान जान की खैरियत की बलि चढ़ गयी।
अब सीरीज के लिहाज से डाकुओं को जितना बड़ा साजिश का केंद्र दिखाया गया है वो तो हजम नहीं होता।
सीरीज का रचनात्मक पक्ष और उसके साइडनोट्स /फुटनोट्स
बेहद कसी हुई कहानी। जीवंत अभिनय से लैस सभी कलाकार। लंबे समय तक याद रखे जा सकने वाले संवाद। दुरुस्त अभिनय। शानदार प्लॉट। सब कुछ बेहतरीन है।
एंकर की पत्नी का एकाकीपन एक ऐसा पक्ष है जिसे महानगरीय अपशिष्ट के तौर पर देखा जाना चाहिए और जिसे कहानी का मजबूत पक्ष भी कहा जा सकता है। उसकी कुतिया का नाम ‘सती सावित्री’ रखकर सीरीज को जान बूझकर विवादों में लाने का दांव भी चला गया जिस पर हालांकि बहुत हो हल्ला हुआ नहीं।
मीडिया चैनल कैसे मार्केट लिंक्ड बिजनेस है इसे कुछ हद तक समझा जा सकता है। अगर दर्शक हाल ही में रुचि सोया के शेयर्स में आए उछाल और उसके एक बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर रजत शर्मा के संबंधों पर नज़र दौड़ाएं तो शायद इस मार्केट लिंक्ड बिजनेस के उन पक्षों को ज़्यादा तरतीब से समझा जा सकता है जिसे इस सीरीज में पूरी तरह बताया नहीं गया।
पंजाब के गाँव की कहानी प्रामाणिक लगती है और जिसका बहुत अच्छी तरह चित्रण किया गया है। यहाँ आकर थोड़ी देर के लिए उभरते दलित नेता चन्द्रशेखर की राजनीति का अक्स दिखलाई पड़ता है जिसकी धमक बहुत ज़्यादा है पर उसके रास्ते चलने वालों का खुदा ही मालिक है। अस्मितावादी राजनीति जिसे मीडिया में एक व्यक्ति में समेट दिया जाता है उसका हश्र संभवतया ऐसा ही होता है।
स्ट्रीट चिल्ड्रेन और ट्रांस जेंडर को लेकर सीरीज में पर्याप्त तवज्जो दी गयी है और उनकी रोज़ ब रोज़ की ज़िंदगी की असहनीय तकलीफ़ों को बहुत ही सधे ढंग से उठाया गया है। दर्शकों को उनसे हमदर्दी हो जाती है जो इस सीरीज का सबसे बड़ा प्राप्य कहा जा सकता है।
छोटे मोटे अपराधियों को देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी कैसे पाकिस्तान और आतंकवाद से जोड़ सकती है उसके बारे में भी यह सीरीज दर्शकों की ठीक वही प्रतिक्रिया हासिल कर पाती है। शुरू में दर्शक मनाता है कि ‘वह तो ये जानता है’ और बाद में कहता है कि ‘इतना नहीं जानते थे’।
पार्श्व संगीत कमाल का है। लगभग साढ़े छह घंटे की यह सीरीज पूरे समय दर्शक को बांधे रखती है और खत्म होने पर उसे निराश नहीं करती।
बहरहाल, पाताललोक तो है, अगर स्वर्ग है और मृत्युलोक है। यह दिल्ली में भी है, मुंबई में भी है। और हर जगह है। बस इसके नक्शे कहीं और तय होते हैं। कहाँ? जहां से ये सीरीज बनाने के लिए स्पॉनसरशिप मिली है। जहां से इसमें पैसा लगाया गया है। और वो जगह चित्रकूट तो कम से कम नहीं है।