लखीमपुर खीरी की घटना में निहित चेतावनी को अनदेखा न करें!


लखीमपुर खीरी की घटना एक चेतावनी है- हमारे लोकतंत्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। श्री अजय कुमार मिश्र, जिनके हिंसा भड़काने वाले बयान एवं गतिविधियां चर्चा में हैं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वे देश के गृह राज्य मंत्री हैं। उन पर देश में संविधान एवं कानून का राज बनाए रखने की जिम्मेदारी है- शांति-व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व है। यह तभी संभव है जब वे अराजकता का विरोध करें, अहिंसा का आश्रय लें, यह समझें कि विरोध और असहमति लोकतांत्रिक समाज के जीवित-जागृत होने का प्रमाण हैं। प्रदर्शनरत किसान उनके शत्रु नहीं हैं, न ही उनका विरोध व्यक्तिगत है। वे उस राजनीतिक दल एवं सरकार का विरोध कर रहे हैं जिसका श्री मिश्र एक महत्वपूर्ण अंग हैं।

सोशल मीडिया में वायरल एक वीडियो के अनुसार 25 सितंबर 2021 को श्री मिश्र ने एक जनसभा में किसानों को धमकी भरे लहजे में कहा- ’10 या 15 आदमी वहां बैठे हैं, अगर हम उधर भी जाते हैं तो भागने के लिए रास्ता नहीं मिलता।’ उन्होंने कहा, ‘हम आप को सुधार देंगे 2 मिनट के अंदर.. मैं केवल मंत्री नहीं हूं, सांसद विधायक नहीं हूं। सांसद बनने से पहले जो मेरे विषय में जानते होंगे उनको यह भी मालूम होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं और जिस दिन मैंने उस चुनौती को स्वीकार करके काम करना शुरू कर दिया उस दिन बलिया नहीं लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा यह याद रखना..।’ उनका एक अन्य वीडियो भी चर्चा में है जिसमें वे प्रदर्शनकारी किसानों को चिढ़ाते हुए दिखते हैं।

यदि श्री अजय कुमार मिश्र में उस संवैधानिक पद की मर्यादा एवं गरिमा का बोध समाप्त हो गया है जिस पर वे आसीन हैं तथा अपने वक्तव्य व आचरण में निहित अभद्रता एवं असहिष्णुता को समझने में वे नाकाम हैं तो उन पर क्रोधित होने के स्थान पर उनके लिए चिंतित होना उचित लगता है। वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं और उन्हें शायद काउन्सलिंग की जरूरत है। बतौर देश के गृह राज्य मंत्री उनका बने रहना उचित नहीं है।

जब देश का शासन चला रहे महानुभावों में से अधिसंख्य सरकार की नीतियों के विरोध को व्यक्तिगत शत्रुता का रूप देने लगें तथा प्रतिशोधी एवं भड़काऊ बयान देकर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से असहमत स्वरों के विरुद्ध हिंसा के लिए अपने समर्थकों को उकसाने लगें तो देश की जनता का चिंतित एवं भयभीत होना स्वाभाविक है। श्री अजय कुमार मिश्र के आचरण को एक अपवाद नहीं माना जा सकता। वे केंद्र और भाजपा शासित राज्यों के नेताओं की उस परंपरा का एक हिस्सा हैं जिसमें “पश्चाताप रहित आक्रामक एवं हिंसक बयानबाजी” को एक प्रशंसनीय गुण माना जाता है। अब तक यह बयानबाजी साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित हुआ करती थी किंतु अब इस प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है और आंदोलनकारी किसान इन जहरीले बयानों का निशाना बने हैं।

जुलाई 2021 में केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने किसानों को मवाली कहा था। केंद्रीय राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने मार्च 2021 में बयान दिया था कि किसान वो दिन याद करें जब गन्ने की पेमेंट के लिए कांग्रेस ने किसानों को घोड़ों के पैरों तले कुचलवाया था। इससे पूर्व दिसंबर 2020 में केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा था कि किसान आन्दोलन में प्रदर्शन कर रहे कई लोग किसान नहीं दिखते हैं। यह किसान नहीं है जिन्हें कृषि कानूनों से कोई समस्या है, बल्कि वो दूसरे लोग हैं। विपक्ष के अलावा  कमीशन पाने वाले लोग इस विरोध के पीछे हैं।

ये बयान उत्तरोत्तर हिंसक होते गए हैं। पंजाब बीजेपी के प्रवक्ता हरिमंदर सिंह ने 15 सितंबर 2021 को कहा कि अगर मुझे किसानों से बात करने के लिए बोला जाता तो मैं मार-मार के पैर तोड़ देता और जेल में बंद करवा देता। आगे उन्होंने कहा कि किसानों का यही हाल करना चाहिए।

इस कड़ी का नवीनतम एवं सर्वाधिक चिंता तथा भय उत्पन्न करने वाला बयान हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा दिया गया है। सोशल मीडिया एवं अन्य समाचार माध्यमों में दिखाए जा रहे वीडियो के अनुसार श्री खट्टर कह रहे हैं- “दक्षिण हरियाणा में समस्या ज्यादा नहीं है, मगर उत्तर-पश्चिम हरियाणा के हर जिले में है। अपने किसानों के 500-700-1000 लोग आप अपने खड़े करो। उन्हें वालंटियर बनाओ और फिर जगह-जगह “शठे शाठ्यम समाचरेत”! क्या मतलब होता है इसका? क्या अर्थ होता है इसका? कौन बताएगा? अंग्रेजी में बता दिया! हिंदी में बताओ! “जैसे को तैसा”, “जैसे को तैसा”, उठा लो डंडे! हां ठीक है, (पीछे से स्वर आता है कि बचा लोगे, जमानत करवा लोगे)। वह देख लेंगे और दूसरी बात यह है जब डंडे उठाएंगे डंडे तो जेल जाने की परवाह ना करो! महीना-दो महीने रह आओगे तो इतनी पढ़ाई हो जाएगी जो इन मीटिंग में नहीं होगी! अगर 2-4 महीने रह आओगे तो बड़े नेता अपने आप बन जाओगे! (हंसने की आवाजें आती हैं)। बड़े नेता अपने आप बन जाओगे चिंता मत करो, इतिहास में नाम अपने आप लिखा जाता है!” यह बयान अक्टूबर 2021 का है।

इससे पहले अगस्त 2021 में करनाल में किसानों पर हुए बर्बर लाठी चार्ज के ठीक पहले का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एसडीएम आयुष सिन्हा ने साफ तौर पर सिपाहियों से कहा था कि यह बहुत सिंपल और स्पष्ट है। कोई कहीं से हो, उसके आगे नहीं जाएगा। अगर जाता है तो लाठी से उसका सिर फोड़ देना। कोई निर्देश या डायरेक्शन की जरूरत नहीं है। उठा-उठा कर मारना। तब भी हरियाणा के मुख्यमंत्री पुलिस की बर्बर कार्रवाई और अधिकारी के निर्णय से सहमत नजर आए थे। उन्होंने कहा था- शब्दों का चयन ठीक नहीं था। हालांकि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सख्ती जरूरी थी।

इन बयानों के परिप्रेक्ष्य में ही आशीष मिश्रा या उस जैसे किसी युवक के हिंसक पागलपन को देखा जाना चाहिए। इस नौजवान के मन में इतना जहर भरा जा चुका है कि गुस्से, भय, नफरत और हिंसा के अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सूझता। उसके अपने क्षेत्र के परिचित लोग उसे शत्रु की भांति लगते हैं। वह सत्ता के संरक्षण को लेकर आश्वस्त है। शायद उसके मन में यह आशा भी हो कि वह नायक बन जाएगा और उसे पुरस्कृत किया जाएगा। इस घातक मनोदशा में वह जघन्यतम अपराध करने की ओर अग्रसर होता है। यह भी संभव है कि उसके मन में कोई पश्चाताप न हो। हो तो यह भी सकता है कि सोशल मीडिया में सक्रिय हिंसा और घृणा के पुजारी इस लड़के की कायरता को वीरता का दर्जा दें और अन्य नवयुवकों को इसके अनुकरण की सलाह दें। इस घटना के बाद पता नहीं एक पिता के तौर पर श्री अजय कुमार मिश्र अपने पुत्र के लिए कैसी राय रखेंगे? किंतु मुझे लगता है कि उन्हें चिंतित होना चाहिए। उनका लड़का जेहनी तौर पर बीमार है। उन्हें स्वयं पर लज्जित होना चाहिए। वे कैसा हिंसा-प्रिय घृणा-संचालित समाज बनाने में योगदान दे रहे हैं? आशीष के बर्ताव पर देश के हर माता-पिता को शर्मिंदा होना चाहिए; उन्हें भयभीत एवं फिक्रमंद होना चाहिए। यह उनके लिए सतर्क होने का समय है। यदि नफरत और बंटवारे की इस आंधी को न रोका गया तो कोई भी नहीं बचेगा। ऐसा बिलकुल नहीं है कि हिंसा की आग हिंसा प्रारंभ करने वाले को बख्श देगी। इस आग में सब झुलसेंगे- हम सब।

https://twitter.com/tehseenp/status/1445071513854484482?s=20

इस जघन्य वारदात की पटकथा तब से ही रची जाने लगी होगी जब किसानों को पाकिस्तानपरस्त, खालिस्तानी, विलासी, आम टैक्सपेयर के पैसे से ऐश करने वाला सब्सिडीजीवी, अराजक, हिंसक एवं राजनीतिक दलों का पिट्ठू ठहराने वाली झूठ से भरी पहली जहरीली पोस्ट सोशल मीडिया में फैलायी गयी होगी। यह पटकथा तब और पुख्ता हो गयी होगी जब किसी वायरल पोस्ट के माध्यम से सरकार की गलत नीतियों के कारण बेरोजगारी और गरीबी की मार झेल रहे नौजवानों को यह विश्वास दिलाया गया होगा कि उनकी दुर्दशा के लिए अल्पसंख्यकों के बाद कोई जिम्मेदार है तो वह किसान ही हैं। इन किसानों को मार भगाना उनका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। इससे भी बहुत पहले जब पहली बार युवाओं की किसी हिंसक भीड़ ने किसी निर्दोष को अपना अपराधी चुनकर उसका अपराध तय किया होगा और फिर उसे मृत्यु दंड दिया होगा तब ऐसे निर्मम एवं अमानवीय कृत्य की पूर्वपीठिका तैयार हो गयी होगी। उस समय हम सब चुप थे, हमने इन नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स का आनंद लिया, प्रतिवाद नहीं किया। हम यह सोचकर खुश होते रहे कि हम हिंसा करने वालों में से एक हैं, इसका शिकार बनने वाले तो कोई और हैं। हम अपने बच्चों को हिंसक शैतानों का जॉम्बी बनते देखते रहे। अब भी हम आत्मघाती चुप्पी के शिकार हैं। गांधी के देश में अहिंसा को कमजोरी बताकर खारिज किया जा रहा है और हम तमाशबीन बने हुए हैं।

सत्ताएं असहमत स्वरों को कुचलने के लिए अनेक रणनीतियां अपनाती हैं। इनमें से सर्वाधिक घातक है राज्य-पोषित हिंसा। कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग और पुलिसिया दमन के लिए राज्य को प्रत्यक्ष रूप से कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और विश्व जनमत उस पर लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दबाव बना सकते हैं किंतु राज्य-पोषित हिंसा से स्वयं को अलग कर लेना राज्य के लिए बहुत आसान होता है। अब भी सरकार की यही रणनीति है। सरकार यह जाहिर करने का प्रयास करेगी कि वह तो असीम धैर्य से अराजक किसानों की हठधर्मिता को झेल रही थी किंतु जनता का धैर्य जवाब दे गया और उसने किसानों को सबक सिखाने का फैसला किया। इसके बाद किसानों पर हिंसक आक्रमण होंगे। कहीं न कहीं, कभी न कभी किसानों का संयम टूटेगा और हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्र चल निकलेगा। फिर सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर उतरेगी और किसानों की गिरफ्तारी एवं दमन की प्रक्रिया चल पड़ेगी। असहमति रखने वाले वर्ग को सरकार समर्थक मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रद्रोही सिद्ध करना और फिर सरकार के हिंसक समर्थकों को राष्ट्रभक्ति के नाम पर उन पर हिंसक आक्रमण की छूट देना- यह रणनीति सरकार को बड़ी आकर्षक एवं कारगर लग सकती है लेकिन समाज को अलग अलग परस्पर शत्रु समूहों में बांटकर हिंसा को बढ़ावा देने के घातक दुष्परिणाम निकल सकते हैं और सामाजिक विघटन तथा गृहयुद्ध के हालात बन सकते हैं।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसी माह दिए गए एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट कर दिया है कि कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। उन्होंने हमेशा ही किसान आंदोलन को विपक्षी दलों के षड्यंत्र के रूप में चित्रित किया है। इस बार भी कृषि कानूनों पर विपक्ष के रवैये को ‘बौद्धिक बेईमानी’ और ‘राजनीतिक छल’ करार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए कड़े और बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है। ये फैसले दशकों पहले ही लिए जाने चाहिए थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार प्रारंभ से ही कह रही है कि वह विरोध करने वाले कृषि निकायों के साथ बैठकर उन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार है, जिन पर असहमति है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में कई बैठकें भी हुई हैं, लेकिन अब तक किसी ने भी किसी विशेष बिंदु पर असहमति नहीं जतायी है कि हमें इसे परिवर्तित करना चाहिए।

प्रधानमंत्री जी भी अनेक बार उसी विभाजनकारी नैरेटिव का प्रयोग किसान आंदोलन को महत्वहीन एवं अनुचित बताने के लिए कर चुके हैं जिसे उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर गढ़ा है। अपने भाषणों में इन कृषि कानूनों को छोटे किसानों हेतु लाभकारी बताकर वे यह संकेत देते हैं कि आंदोलन में केवल मुट्ठी भर बड़े किसान शामिल हैं। कभी वे ‘आन्दोलनजीवी’ जैसी अभिव्यक्ति का उपयोग कर यह दर्शाते हैं कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार हैं। कभी वे कांग्रेस पर हमलावर होते हैं कि उसे कृषि कानूनों के विरोध का कोई अधिकार नहीं है। अभी भी वर्तमान साक्षात्कार में जब वे कहते हैं कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े और कड़े फैसले लेने पड़ते हैं तो इसमें यह अर्थ निहित होता है कि आंदोलनरत किसान देश के नागरिकों को मिलने वाले लाभों के मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री जी इन बैठकों की कार्रवाई से भी अनभिज्ञ हैं अन्यथा उन्हें किसान नेताओं द्वारा कंडिकावार दी गयी आपत्तियों का ज्ञान होता। कोरोनाकाल की अफरातफरी में किसानों से बिना पूछे कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले, किसानों पर जबरन थोपे गए यह बिल किसानों को अस्वीकार्य हैं, कम से कम प्रधानमंत्री जी को इतना तो ज्ञात होगा। यदि आम जनता से बिना संवाद किए उस पर अपना निर्णय थोपना, जनमत की अनदेखी करना, जन असंतोष को षड्यंत्र समझना तथा हिंसा एवं विभाजन को समर्थन देने वाले अपने अधीनस्थों को संरक्षण देना मजबूत नेता के लक्षण हैं तो आदरणीय प्रधानमंत्री जी निश्चित ही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी की इस स्पष्टोक्ति के बाद कि कृषि कानून वापस नहीं होंगे उनके अंध-समर्थकों को यह अपना नैतिक उत्तरदायित्व लग रहा है कि वे किसानों को जबरन खदेड़कर आंदोलन समाप्त कर दें। आदरणीय प्रधानमंत्री जी को यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि आंदोलित किसानों से भले ही उनकी असहमति है किंतु वे इन किसानों के विरोध दर्ज करने के अधिकार का सम्मान करते हैं और वे इन पर होने वाली किसी भी प्रकार की दमनात्मक एवं हिंसक कार्रवाई के साथ नहीं हैं।

आने वाला समय किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए कठिन परीक्षा का है। उकसाने वाली हर कार्रवाई के बाद भी उसे आंदोलन को अहिंसक बनाए रखना होगा। किसान नेताओं को जनता को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वे हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हैं।


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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